रास्ते और भी हैं
“बोलो बाँके बिहारी लाल की जय !
बोलो बंसी वाले की जय !
जय जय श्री राधे…..!”
और असंख्य स्वर एक साथ दोनों हाथ ऊपर उठाते हुए दंडवत प्रणाम करने लगते हैं। नित्य प्रतिदिन मंगला झांकी का यही दृश्य होता है।
आरती आरम्भ हो चुकी है। नेत्र बन्द किए पद्मा ध्यान लगाए स्मृतियों में खो जाती है ……
अंधियारे की चादर ओढ़े, सूर्य देवता भी आगमन की प्रतीक्षा में अभी द्वार पर खड़े हैं । मंद मंद शीतल पवन के झोंके तन और मन को अलौकिक आनंद से पुलकित कर रहे हैं। चहुँ ओर पंछियों का कलरव, मोर पपीहे की कुहुक, समग्र वातावरण को उल्लास से भर कर रोम रोम से बार बार जयकारे लगाने को प्रेरित कर रहे हैं। जैसे सूर्य की तपन में तन मन को तरुवर की छाया मिल गई हो। जैसे अकाल की विभीषिका से तपती धरा को बरखा ने भीगो दिया हो। जैसे अमावस्या की काली अंधियारी रात्रि के पश्चात पूनम का चांद निकल आया हो। जैसे युगों से अतृप्त प्यासे मन को अमृत का पान करा दिया हो। ऐसा ही उजाला होने से पहले मंगला झांकी का ये मनोहारी दृश्य मन मोह रहा है।
अपने मुंडे सर को श्वेत धोती से ढकती, कांधे पे झूलते झोले को संभालती, कोहनी पे लटकती डोलची को दबाए, दूधिया वर्ण पे नासिका से ललाट तक चंदन तिलक से सुशोभित चौड़ा माथा, मृगनयनी जैसी बड़ी बड़ी आँखें, मुख मंडल पे क्लांत आभा लिए मानों कोई अप्सरा रूप बदल कर धरती पे उतर आई हो। अथवा कोई गोपी महारास से भटक कर इधर आ गई हो।
मंगला झांकी के दर्शन पश्चात कतारबद्ध होकर हाथ फैलाए खड़ी इन असंख्य गोपियों का अब तो यही जीवन और दिनचर्या बन गया है। देश विदेश के श्रद्धालुओं द्वारा दिया जाने वाला दान ही इनकी जीविका चलाने का साधन बन गया है। आम भिखारियों की भांति ये सारा दिन भीख नहीं मांगती, ना ही आगंतुकों के पीछे पीछे दौड़ लगाती हैं । बस, पेट भरने जितना मिल जाए तो भजन कीर्तन में रम जाती हैं।
नित्य की भांति आज भी उसी क्रम को दोहराती वो भी हाथ पसारे पंक्ति में खड़ी अपनी बारी का इंतजार कर रही है। श्रद्धालु अपनी सामर्थ्य अनुसार उसके हाथ में सिक्का डाल, आगे बढ़ रहे हैं। तब ही हथेली के मध्य में पड़े काले तिल को देख कर एक दानदाता ठिठक जाता है । दान हेतु दिए जाने वाले सिक्के को मुट्ठी में भींच लेता है और सर उठा कर देखता है तो अवाक रह जाता है। मुंह से बरबस निकल पड़ता है ….तुम …. आप ? उसे अपनी आंखों पे विश्वास नहीं होता कि ये वही पद्मा है। जिससे मिलने की खातिर वो न जाने कितनी रातों से ठीक से सोया तक नहीं। जिसके कारण उसकी ज़िन्दगी में इतनी उथल पुथल मची हुई है। न ठीक से काम कर पा रहा है और ना चैन से जी पा रहा है। आसपास खड़ी गोपियों को अपनी ओर घूरते देख, पद्मा हाथ छुड़ाकर तेजी से निकल पड़ती है । पीछे पीछे नीलेश भी चल पड़ता है। थोड़ी दूर चलते ही पलटकर पद्मा पूछती है….
“मेरा पीछा क्यों कर रहे हो ? क्या चाहते हो मुझसे ?”
“पद्मा मैं आपसे बात करना चाहता हूँ। आपसे माफी मांगना चाहता हूँ।”
“किस बात की माफी ? आपने क्या किया है, जिसकी माफी मांगना चाहते हैं।”
“अच्छा पद्मा आप मंदिर की सीढ़ियों पे बैठो और मेरी बात तो सुन लो। देखो पद्मा मैं शहर के खुले माहौल में पला बढ़ा हूँ । स्कूल से लेकर कॉलेज तक और फिर मल्टीनैशनल कम्पनी तक लड़कियों के साथ रहा हूँ। मुझे गांव के तौर तरीके नहीं मालूम। मैं तो बरसों बाद माँ की ज़िद पर बीमार मामा को देखने गांव चला आया। सोचा थोड़ी आउटिंग भी हो जाएगी और रिलेक्स भी हो जाऊंगा। पहले दिन ही सवेरे सवेरे, छत पे टहलते हुए जब पास वाले मकान की छत पे कपड़े सुखाते हुए आपको देखा तो आपके घुटनों से भी नीचे तक लंबे बाल देख कर अचानक मुंह से निकल पड़ा। अरे इतने लंबे बाल! क्योंकि शहर की लड़कियां तो इतने लंबे बाल रखती नहीं इस कारण मुंह से निकल गया। लेकिन मेरी बात सुनकर आप मुस्कुराते हुए अपनी छत से चली गई थी। अब मामा के घर न तो कुछ करने को था, ना ही टाइम पास करने का कोई जरिया था। इसलिए पुरानी कॉमिक्स ले कर छत पे बैठा पढ़ रहा था। जिसे देख कर आप खिलखिला कर हंस पड़ी। आपका इस तरह खिलखिलाना मुझे बहुत अच्छा लगा और आपसे बात करने को मन करने लगा। उस दिन शाम को आपसे छत पे बस आपकी पढ़ाई लिखाई की बात हुई। तब आपने बताया था …बहुत मन होने के बावजूद आप ट्वेल्थ के आगे पढ़ नहीं पाई। गांव में कॉलेज नहीं था और शहर भेजने को आपके भाई तैयार नहीं थे। तो बस आपकी शादी करवा दी गई। यही सब बातें तो हुई थी आपसे। उसके बाद क्या हुआ मालूम नहीं। मुझे तो उसी रात मामा ने तुरंत शहर वापस भेज दिया और वहां से मैं अपनी जॉब के लिए बैंगलोर चला गया। वो तो कुछ दिनों बाद मम्मा ने पूछा कि नीलेश तू मामा के वहाँ क्या करके आया तो पता चला कि ……!”
“देखिए नीलेश जी ! जो कुछ भी हुआ अब उसको याद करने से कुछ होने वाला नहीं। बस हमारी तक़दीर में यही लिखा था वही भोग रहे हैं। ये देख रहे हैं, अंसख्य गोपियां, जो अपनों के द्वारा, अपनों के कारण यहां पड़ी हैं। हमारे लिए अब यहाँ से आगे कोई रास्ता नहीं है …..! यहां सबकी अपनी अपनी कहानियां है जिनका अंत एक ही है। हमारा कोई नहीं और हम किसी के नहीं। भीख मांगना और किसी दिन मर जाना। बस यही हमारा भाग्य है। आपने हमारी हथेली के बड़े से तिल को देख कर कहा था ना जैसे आपके लंबे बाल वैसे ही आपकी बुलंद तकदीर का ये निशान। अब देख रहे हो ना हमारी बुलंद तक़दीर …..! और पद्मा आगे बोल न पाई उसकी रुलाई फूट पड़ी। रुंधे गले से उसने हाथ जोड़ते हुए इतना ही कहा आप चले जाइए । हमें हमारे हाल पे छोड़ दीजिए बस।”
नम आंखों से नीलेश ने पद्मा से विनती करते हुए कहा ….
“नहीं पद्मा आप मुझे पूरी बात बताइए वरना आत्मग्लानि से मैं जी नहीं पाऊंगा।”
बहती हुई अश्रु धारा के साथ पद्मा बोली …..
“क्या सुनना चाहते हैं आप? यही कि छत पर आपसे बातें करते देख घर में कोहराम मच गया। हमें कुलच्छनी, कुल्टा और बिगड़ी औरत बोल कर सास ससुर, देवर और पति ने खूब मारा पीटा। उसी रात हमारे भइया को बुलवाया गया और बोल दिया गया। ये कुल्टा अब हमारे घर में नहीं रहेगी। बिन मां बाप की मुझ लड़की को बोझ समझकर बदनामी के डर से भाई ने भी साथ ले जाने से मना कर दिया। आनन फानन में खबर पूरे गांव में फैल गई । मामला पंचायत तक चला गया। आपके मामा ने तो बोल दिया कि हमें कुछ नहीं पता। क्या हुआ क्या नहीं और आप तो पहले ही चले गए थे। फिर हमारे निर्दोष होने का प्रमाण कौन देता ? पंचायत ने फैसला किया। सर मुंडवा कर मुंह काला करके इस कुल्टा को गांव से बाहर निकाल दिया जाए। ये अब इस गांव में रहेगी तो न जाने कितनी बहू बेटियों पे गलत असर पड़ेगा। हम रोते गिड़गिड़ाते रहे, अपने मरे बाबू जी और माँ की सौगंध लेकर विनती करते रहे। सबसे गुहार लगाते रहे कि हम निर्दोष हैं। हमने कोई पाप नहीं किया। लेकिन उस भीड़ में हमारी सुनने वाला कोई नहीं था। अग्नि के सात फेरे ले कर हर संकट में साथ देने का वचन देने वाला पति जिस पर हम अपनी जान न्यौछावर करते थे वो भी पीछे हट गया। जिस सास को माँ की तरह मानते थे। जिस ससुर को पिता समझते थे उन्होने ही लांछित किया। आखिर पंचायत के फैसले के अनुसार हमारे वो लंबे लंबे केश नोंच नोंच कर काट डाले गए। चेहरे पे कालिख पोत कर मारते पीटते, गंदी गंदी गालियां देते गांव से बाहर निकाल दिया गया।
तब यही सोच कर की अब इस जीवन का कोई मतलब नहीं है। अब इसे खत्म कर देना ही हमारा प्रायश्चित है। यही सोच कर हमने गांव के बाहर नहर में छलांग लगा दी। लेकिन देखिए हमारी बुलंद तक़दीर …. गांव के बाहर साधुओं ने डेरा डाला हुआ था उन्होंने हमें बचा लिया। सारा हाल जानने के बाद ये कहते हुए यहां ला कर छोड़ दिया कि प्राणी का अंतिम पड़ाव भगवान का घर होता है जहां आकर सारे रास्ते समाप्त हो जाते हैं। तब से यहीं है। अब यहाँ से कोई रास्ता नहीं …..!
“नहीं पद्मा जी नहीं! रास्ते कभी समाप्त नहीं होते अपितु नए मार्ग खोजने पड़ते हैं। इतनी जल्दी हताश और निराश हो कर आप यूँ अपना जीवन बर्बाद नहीं कर सकती हैं।”
“जीवन तो बर्बाद हो चुका अब बचा ही क्या है इस ज़िन्दा लाश में।”
“बस कीजिए पद्मा जी मैं आपको अपने साथ ले कर जाना चाहता हूँ।”
“वाह! बस आ गए ना अपनी असलियत पे …पुरुष कभी भी नारी को उसकी देह से परे सोच ही नहीं सकता। उसके लिए औरत सिर्फ भोग करने की वस्तु मात्र है जिसका अपना कोई अस्तित्व नहीं। वो तो बस कच्ची माटी है जिसे जो चाहे वैसा रूप दे देता है। मुझे अब इस समूचे संसार से विरक्ति हो गई है। अफ़सोस है आप भी वही पुरुष निकले जिसकी मानसिकता उन्हीं पुरुषों जैसी है। जो सिर्फ स्त्री की देह को पाना चाहता है। मुझे अब पुरुष जाति ही नहीं समूचे संसार से ही नफरत हो गई है। मैं जहाँ हूँ जैसी हूँ जिस हाल में हूँ, ठीक हूँ। अब यही मेरी दुनिया है और यही मेरा संसार। आपकी दुनिया आपको ही मुबारक हो।”
“आपने ठीक कहा पद्मा जी जब अपने ही अपने नहीं हुए तो पराए कैसे अपने हो सकते हैं। और हाँ ये भी तो सत्य है ….एक पुरुष नारी को उसकी देह से परे सोच ही नहीं सकता। लेकिन एक भाई तो अपनी बहन को अलग नजर से देख सकता है ना?
हाँ पद्मा जी ये भाई अपनी बहन को अपने घर ले जाना चाहता है।”
बिटिया ……..
बहुत देर से हम, तुम दोनों की बातें सुन रही हैं। वैसे तो इंसान ने दर्द के सिवा रचा क्या है, और दुनिया में अब प्रेम के सिवा बचा क्या है।”
रक्त्त के रिश्तों ने तो तुम्हें वेदना के सिवा कुछ न दिया। अब मन के रिश्ते को भी अपना कर देख लो। जाओ बिटिया अपने भाई के घर जाओ। जब सारे मार्ग बंद हो जाते हैं तो मन का मार्ग शेष रह जाता है। इस नवीन पथ पे आगे बढ़ो बिटिया ……!”
“मेडम….. मेडम! आरती संपन्न हो गई है।
कहाँ खो गईं आप? आप तो जैसे तल्लीन हो गईं। पुजारी जी ! ये है हमारी नई जिला कलेक्टर पद्मा सिंह, कल ही ज्वॉइन किया है। आपका आग्रह था सबसे पहले बाँके बिहारी की मंगला झाँकी करेंगी उसके बाद ही अपना कार्य आरंभ करेंगी।”
और नयनों के दीपों में जैसे खुशियों की ज्योति छलक उठी । मंद मंद मुस्कुराते हुए पद्मा आगे चल पड़ी …..
अरुण धर्मावत
जयपुर, राजस्थान
व्यवसाय : स्टेशनरी प्रिंटिंग
अब तक प्रकाशित : संदल सुगन्ध, हमराही, मृगनायना, रक्तमंजरी, कलमकार, भाषा सहोदरी हिन्दी, सहित्यनामा, लघुकथा कलश, स्टोरिमिरर, भाषा सहोदरी हिन्दी सोपान- 6, समय की दस्तक के साथ साथ अनेक साझा संग्रह एवम समाचार पत्र – पत्रिकाओं में कविता एवम कहानियां प्रकाशित हो चुकी है ।
आकाशवाणी जयपुर, पत्रिका टीवी एवम दूरदर्शन जयपुर से
रचना पाठ।