करिआ फुआ

करिआ फुआ

माँ, आज करिया फुआ नहीं आई ?
मैं शहर से उनके लिए उनके मनपसंद रंग की साड़ी लाया हूँ ।
सुमित मैं तुम्हें बताना भूल गई थी वह पिछले दो हफ्ते से घर पर नहीं आ रही है बहुत बीमार है।
ठीक है, मैं उनके घर जाकर ही उनसे मिल कर आता हूँ। उनकी साड़ी भी दे दूंगा। देखना मुझे देखते ही उनकी तबीयत ठीक हो जाएगी -कहते हुए सुमित चला गया।
तीन महीने बाद सुमित शहर से आया है मुझे उसकी पसंद के खाने बनाने है यह सोच कर मैं रसोई में चली गई।
दोपहर के दो बज गए और अभी तक सुमित वापस न आया। मैं उसे फोन करने ही वाली थी कि देखा सुमित चला आ रहा है। मैंने उसे डांटते हुए कहा- तुम्हें वक्त का ख्याल है? दिन के दो बज गए। जब भी तुम गाँव आते हो तो तुम्हारी दिनचर्या बदल जाती है। न समय पर उठते हो और न वक्त पर खाना खाते हो ।
सुमित उदास और बुझा-बुझा सा मेरे पास आकर बोल पड़ा -माँ आपने करिआ फुआ के इलाज का कोई इंतजाम क्यों नहीं किया? वह बहुत बीमार है ।उनका तो हमारे सिवा यहां कोई और नहीं?
मैंने कहा -यह तुमने कैसे सोच लिया कि मैं उनके दवाई और इलाज का ध्यान न रखूँगी ?तो फिर वह वहां अकेले क्यों रह रही हैं।
वो इसलिए कि उन्हें कोरोना हुआ है। इस बीमारी में रोगी को अकेले ही क्वॉरेंटाइन में रहना पड़ता है। मैं सुबह शाम धनिया के हाथों खाना और दवाई भिजवा देती हूँ।दो दिन पहले ही धनिया कह रही थी की अब उनकी तबीयत ठीक हो रही है।
कैसी हैं आज उनकी तबीयत ?
पहले से काफी अच्छी है पर बहुत कमजोर हो गई है ।
हाँ, इस बीमारी में कमजोरी तो होती ही है। पता नहीं यह बीमारी कब दुनिया से जाएगी और हम सब पहले जैसे आजादी से घूम फिर सकेंगे।
चलो ,हाथ मुँह धो लो मैंने तुम्हारी पसंद का खाना बनाया है। खाने की बात सुनकर सुमित को करिया फुआ के हाथों की स्वाद की याद आ गई ।कैसे वह अपने घर से मेरे लिए भुनी हुई मछली और कुछ तरी वाली मछली आंचल में छुपा कर मेरे लिए लाती थी। आते हैं आंगन में मुझे इशारे से बुलाकर चुपके से दे देती थी। उनके हाथ से वह मसाले वाली मछली लेकर घर से बाहर निकल इत्मीनान से मैं खाता था ।उन्हें पता था कि बाबूजी को जिस दिन इस बात की भनक लग जाएगी उस दिन से ही उनका मेरे घर में आना बंद हो जाएगा । हम ठहरे शुद्ध शाकाहारी ब्राम्हण। घर में ठाकुर जी को भोग लगाए बिना कोई खाने को हाथ भी न लगा सकता था। जब से होश संभाला है माँ को सुबह शाम पूजा पाठ करने के बाद ही रसोई में खाना बनाते देखा है।
जब मेरी नौकरी लगी तो शहर जाते समय बाबू जी ने शराब और मांस से दूर रहने की सख्त हिदायत दी थी पर तब उन्हें कहाँ मालूम था कि मैंने तो बचपन में ही मांस का स्वाद चख लिया है। करिआ फुआ के हाथों के स्वाद को मैंने कहीं रेस्टोरेंट में ढूंढा है पर कहीं भी वो स्वाद न मिला ।
सब भाई बहनों में मैं सबसे छोटा हूँ इसलिए उनका प्यार सबसे ज्यादा मुझे ही मिला। जब मेरी नौकरी की खबर सुनी तो मुझे साथ ले गाँव के पहाड़ी वाले मंदिर में मन्नत के प्रसाद मेरे हाथों से चढ़वाया शायद मेरी नौकरी के लिए उन्होंने मन्नत मान रखी थी।
रक्षाबंधन के दिन बाबूजी को बड़े प्यार से राखी बांधती और मिठाई खिलाती। उस दिन अपने हाथों से बनी मिठाई न लाती क्योंकि वो जानती थी कि उनके हाथ की बनी मिठाई बाबूजी नहीं खायेंगे क्योंकि एक तो वो निम्न जाति की है ऊपर से मांसाहारी। बदले में बाबूजी जब उसे साड़ी देते तो हमेशा पूछते- तुम्हें पसंद आई न? वह खुश होकर हामी में सिर हिला देती ।
अपने रोजमर्रा के जीवन में घटने वाली घटनाओं के बारे में हमेशा बाबूजी से सलाह लेती। उसकी नजर से देखें तो पूरे गाँव में एक बाबूजी ही थे जो सबसे समझदार और सही राह दिखाने वाले व्यक्ति हैं। घर में माँ के काम में हाथ बटाती थी। बस रसोई में उन्हें जाने की इजाजत न थी ।
आज भी गाँव में जातिवाद और छुआछूत इतनी आसानी से खत्म न होने वाली है। मेरा घर इसका एक जीता जागता उदाहरण है। हम भाई बहनों की विचारधारा बाबू जी से अलग थी और कभी-कभी इस जातिवाद को लेकर घर में चर्चा होती तो घर का वातावरण इतना गर्म हो जाता की चर्चा का समापन ही उसका समाधान होता।
मैं जब कुछ बड़ा हो गया तो मैंने एक दिन बातों ही बातों में करिया फुआ से शादी न करने की वजह पूछी तो उन्होंने हँसकर टालते हुए कहा- मेरी जाति में खेत में ट्रैक्टर और हल चलाने वाली, बैल गाड़ी चलाने वाली इस बदसूरत मर्दों की तरह दिखने वाली तेरी फुआ से कौन शादी करेगा?
मुझे तो कहीं से भी वह बदसूरत न लगती है। हाँ उनका रंग गाढ़ा है। कद काठी और काम में मर्दों से कम न थी।
पर यह सब तो वो गुण हैं जो उन्हें सबसे अलग बनाते हैं ।यही तो उनकी विशेषता है। पर हमारा ग्रामीण समाज पीढ़ियों से चली आ रही रीति रिवाज और परंपराओं से ऐसा जकड़ा है जिसमें स्त्रियों के लिए कुछ सीमा रेखा खींच दी गई है। जिससे अलग हटकर काम करने वाली स्त्रियों को समाज स्वीकार नहीं करता। गाँव के लोग इसी वजह से उन्हें पसंद नहीं करते थे। बाबूजी के सामने तो किसी की हिम्मत न होती पर गाँव की औरतें माँ को उनकी शिकायत कर घर में आने से मना करने के लिए कहती। पर माँ उनके हम लोगों के प्रति प्यार को देख कर कभी मना न कर पाई ।जब किसी काम से बाबूजी शहर जाते तो माँ उन्हें रात में घर पर ही रोक लेती। वो भी पूरी रात एक सजग प्रहरी की तरह ही घर की रखवाली करती थी। घर की एक सदस्य की तरह हमारे घर के मामलों में अपनी सलाह देती। मैंने तो उन्हें अपनी दूसरी माँ ही मान लिया है।
आज बिस्तर पर कमजोरी की हालत में उन्हें देख मन बहुत दुखी हुआ ।घर आकर खाने की भी इच्छा नहीं हो रही है। मैंने माँ से उन्हें घर पर लाने की बात करते हुए कहा क़ि यहाँ हमसब के साथ रहेगी तो जल्दी ठीक हो जायेगी। माँ भी चाहती थी उन्हें घर पर लाना पर उनके पूरी तरह से ठीक होने के बाद। लेकिन मेरी जिद के आगे उन्हें झुकना पड़ा उन्होंने बाहर वाले गेस्ट रूम की सफाई करवाई और सुबह उन्हें लाने के लिए मुझे भेज दिया। वैद्य जी ने बताया कि अब उन्हें कोरोना नही है पर कमजोरी बहुत है इसलिए आराम की जरूरत है ।बिना सहारे के वह बिस्तर से उठ कर चल भी नहीं सकती। मैंने उन्हें जब अपने घर चलने की बात कही तो पहले तो उन्होंने मना कर दिया पर एक बेटे के जिद के आगे उन्हें झुकना पड़ा। मैंने उन्हें सहारा देकर गाड़ी पर बिठाया गाड़ी में बाबूजी को देख खुशी से उनकी आँखोँ से आंसू निकल पड़े।
माँ ने आज घर को खूब सजाया है। करिया फुआ के मनपसंद खाने के साथ हम सब का इंतजार कर रही है। घर आंगन बगीचा आज खुशियों से झूम रहा था और हो भी क्यों नहीं उनकी देखभाल करने वाली जो वापस घर आ जा रही है।

बी अपर्ना तिवारी
सिकन्दराबाद,भारत

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