वजूद

वजूद

सच में! आज का दिन ही खूबसूरत था, चमचमाता सूरज, ताज़ी हवा, चहकते पंछी, सुबह सुबह चाय पीकर, जल्दी से नहाने चल दी ‘किरण’। आज कुछ जल्दी भी उठ गई वह या यूं कहो की रात बस करवट बदल बदल कर काटी। आज उसके काम का पहला दिन था कितना कुछ चल रहा था उसके मन मेंं थोड़ी घबराहट, थोड़ा डर, थोड़ी उम्मीद और ढ़ेर सारा उत्साह। यह आम बात है हर उस इंसान के लिए जो पहली बार काम पर जाता है। पर किरण के लिए, तो बहुत बड़ी बात थी। क्योंकि वो सिर्फ काम करने नहीं जा रही थी। बल्कि अपने हक और समान सम्मान की एक लम्बी लड़ाई लड़कर काम पर जाने वाली थी आज। जाने क्या कहेंगे लोग? कहते हैं जो, कहने दो, मैं ध्यान ना दूंगी, उसने खुद को समझाया।
वो तैयार हुई, नाश्ता किया, इतने में गाड़ी आई। वो आकर बैठ गई और चल दी कार्यालय के लिए। रास्ते में मानो अब तक का जीवन सफर, चलचित्र की तरह, उसकी आंखों के आगे आया।
बचपन में बाबा का उसे निर्ममता से पीटना, मां का सिर पटक पटक कर रोना, और एक ही वाक्य बार बार कहना “तू लड़का है, लड़की नहीं, ये क्या करता फिरता है?” पहले तो वह समझ नहीं पाती थी कि उसकी गलती क्या है? मां की तरह उसे भी बिंदी, काजल, चुन्नी, श्रृंगार से प्यार था। पर जब देखो उसे डांट और मार क्यों पड़ती है? ऐसा क्या गलत है? उसे पेंट बुशर्ट ना भाते थे।
और थोड़ा बड़ा हुआ तो कुछ कुछ समझ आई बातें, तो कहा जाता “किन्नर का कोई वजूद नहीं समाज में, संभल जा।” कितने ही डाक्टरों, बाबाओं और फकीरों के वहां उसे ले जाया गया। कभी बिजली के झटके, कभी झाडू की मार, कभी दमघोंटू धुंआ, सब सहा उसने। पर बस, अब उसकी हिम्मत जवाब दे गई। उसने कहा, “बस, बस करो, मैं ऐसा ही हूं। नर का तन और नारी का मन, पाया मैंने, यही मेरा सच है, भगवान ने मुझे ऐसा बनाया है तो क्या करूं?”

गली मौहल्ले में ये बात अब पूरी तरह फैल गई। कोई हंसता, कोई ताने देता, कोई मां बाप से सहानुभूति जताता। बाबा ने इन सब से तंग आकर एक दिन ‌कहा “निकल जा घर से, तेरा हमसे कोई नाता नहीं…”

अनगिनत ताने, अनेक असहनीय मानसिक और शारीरिक घाव के बाद आज वो यहां पहुंची है। वह ही जानती है उसने घर सेे निकाले जाने के बाद कैसे-कैसे दिन देखे। रोते बिलखते किरण ने घर छोड़ दिया था। दर दर की ठोकरें खाई। ना सिर पर छत, ना बदलने को कपड़े, ना खाने को ही कुछ। जीवन के सबसे कठीन परिस्थितियों से गुज़री वो। पर हार नहीं मानी, भीख तो बिल्कुल नहीं लूंगी, ठान लिया था। क्या कुछ नहीं किया अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए। और जीवन की ये जंग उसने लड़ी अपने जैसे उन सबके लिए जो हार जाते, जो बता नहीं पाते, यातनाएं सहते हैं, भीख मांगने को मजबूर हो जाते हैं। अंततः एक लम्बी जंग जीत ही ली उसने और पा लिया अपना सम्माननीय “वजूद”।
गाड़ी कार्यालय के आगे रूकी, उसकी तंद्रा टूटी। उसने पूरे आत्मविश्वास के साथ प्रवेश किया। सभी लोग स्वागत में खड़े थे, सभी ने अभिवादन किया और उसे उसका कमरा और कुर्सी दिखाई। मेज पर रखी थी नामपट्टी “मैनेजर किरण”। सभी की आंखों में अपने लिए सम्मान और अपनी मेज पर अपना नाम रखा देख, उसका सपना आज पूरा हुआ। आज अगर बाबा होते तो उनसे कहती आज किन्नर का समाज में मान भी है और वजूद भी।

अंकिता बाहेती
दोहा, क़तर

संप्रति – लेखिका, कवियत्री, चित्रकार, शिक्षिका
लेखन विधा -छंदमुक्त तुकांत/ अतुकांत कविता, हाइकु, सेदोका, वर्गम, वार्णिक छंद, लघुकथा, गद्य।
आविष्कृत लेखन विधा -वर्गम कविता।
प्रकाशित पुस्तकें (साझा संग्रह) – मीमांसा, स्त्रोतम्, काव्य वाणी 1, Women we know, Audacity of blank pages, Psithurism, Inquest: Ambers of life.
प्राप्त सम्मान -2018 में अंतरराष्ट्रीय चित्रकला प्रदर्शनी में पुरस्कृत, प्रशस्ति पत्र।
अनेकों मंच द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित।

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