मैं उन्हें पहचान ही न सकी

मैं उन्हें पहचान ही न सकी

निशान्त ने जब बताया कि उसके रिसर्च डिपार्टमेन्ट में कोई डॉ. कृष्णन् मुंबई से सीनियर एनर्जी प्लानर के पद पर एक वर्ष के लिए आ रहे हैं तो जेहन में खुशी की लहर सी दौड़ गई। निशान्त के रिसर्च डिपार्टमेन्ट में पन्द्रह लोग पन्द्रह देशों के, मतलब हमारे लिये सभी गैर, विदेशी थे। उनसे एक दूरी व हिचक थी। ऐसे में यह पता चलना कि अपना एक देशी भाई उनके दफ्तर में उनका सहकर्ता बन कर आ रहा है तो खुशी का होना स्वाभाविक था। डॉ. कृष्णन् के आने में अभी डेढ़ माह का समय था। हम पति-पत्नी के बीच वे चर्चा का विषय बन गये। रोज उनकी ईमेल आ जाती। कभी-कभार फोन भी कर लेते। हमसे शहर, मौसम, डेनिश लोगों के विषय में जानकारी लेते। और भी न जाने क्या-क्या पूछते रहते। वे नई जगह एक नया जीवन शुरू करने आ रहे थे, उनके मन में कौतुकता फैली थी और हमें उनका डेनमार्क पहुँचने का इन्तजार। उनके लिये दो कमरों के एक छोटे से फर्निस्ड अपार्टमेन्ट का इन्तजाम हमने ही किया। वे फिलहाल अकेले ही एक साल के कॉन्ट्रेक्ट पर कोपनहेगन आ रहे थे। बड़े मकान की उन्हें आवश्यकता नहीं थी। उनकी पत्नी मुंबई में एक स्कूल में प्रधानाध्यापिका थी। किन्ही कारणों वश वह उनके साथ नहीं आ रही थी।
जिस दिन डॉ. कृष्णन् इंडिया से कोपनहेगन पहुँच रहे थे, निशान्त, मेरे पति, उन्हें कार से एयरपोर्ट लेने गये। शाम का वक्त था। उनका सामान उनके घर पहुँचा कर निशान्त उन्हें भोजन के लिये सीधे हमारे घर ले आया। सत्तावन वर्षीय डॉ. कृष्णन् तमीलियन थे मगर पिछले तीस सालों से मुंबई में रह रहे थे। वहाँ एक शैक्षिक संस्था में प्रोफेसर थे। उनके हिन्दी उच्चारण में तमिल भाषा का पुट था, साथ ही मुंबइया हिंदी का भी प्रभाव था।
मैंने व बच्चों ने उन्हें अभिवादन किया। उन्होंने हमें आशीष दिया। वे हमारे लिये केले के चिप्स और नारियल की मिठाई का डिब्बा लेकर आये थे, जो उन्होंने आते ही बच्चों को पकड़ा दिये। विदेशी प्रचलन के अनुसार हमने उन्हें कोक, कोला या बाजार में बिकने वाले संघनित जूस के लिये पूछा। उन्होंने मना किया। निशान्त ने उन्हें बीयर व ह्विस्की के लिये पूछा। “मैं मदिरा नहीं लेता,” वे बोले।
“तो आप क्या लेंगे?”
“तुम्हारे घर में हरी चाय या पुदीना या मीठी नीम में से कुछ है?”
“मैंने व निशान्त ने एक दूसरे को देखा। “पोदिना है,” मैं बोली।
“तो पुदीने की ही चाय पिला दो।”
“पुदीने की चाय! ”
“हाँ पुदीने का चटनी के अलावा भी कई तरह से प्रयोग किया जाता है। पुदीने की चाय कैफ़ीन मुक्त होती है। अब तो बाज़ार में भी मिंट टी बैग मिल रहे हैं,” वे बोले।
“अच्छा!” मैं आश्चर्य से भर गई।
उन्होंने ही मुझे समझाया कि पुदीने की चाय मैं कैसे बनाऊँ। एक गिलास पानी में दस पुदीने की ताज़ी पत्तियां, चौथाई चम्मच काली मिर्च पाउडर, चुटकी भर काला नमक, आवश्यकतानुसार दूध व स्वादानुसार चीनी।
मैं उनकी बतायी रेसीपी से उनकी ‘हर्बल चाय’ बना कर ले आयी।
“सुना है कि आपकी पत्नी मुंबई में नौकरी करती हैं इसलिये वह आपके साथ नहीं आ पायीं,” चाय का प्याला उन्हें थमाते हुये मैंने पूछा।
“नौकरी से तो उन्हें साल भर की छुट्टी मिल सकती थी। मगर वृद्धा माँ है मेरी, अस्सी साल की। उन्होंने इस उम्र में विदेश आने से मना कर दिया। सो पत्नी को उनकी देखभाल के लिये उनके पास रुकना पड़ा,” वे बोले।
“आपके बच्चे?”
चाय के घूँट भरते हुए वे बोले, “बस एक लड़की है। उसकी शादी हो चुकी है। वह पति के साथ बॉस्टन, अमेरिका में रहती है। माँ की जिम्मेवारी पत्नी पर डाल कर यहाँ आ गया हूँ।” फिर मजाक करते हुये बोले, “मैं तो अभी इतना बूढ़ा नही हुआ हूँ। यहाँ अकेले रह सकता हूँ। वहाँ माँ अकेले नहीं रह सकती।”
हम हँसने लगे। साथ में वे भी – स्वच्छ व पवित्र हँसी। मैं उन्हें देखती रही। इस उम्र में भी उनके सभी दाँत एकदम पंक्तिबद्ध, श्वेत व स्वस्थ थे।
सहसा उन्होंने अपने होंठ सिकोड़े। गंभीर होकर मेरे पति से बोले, “पर, निशान्त, मैं यहाँ सिर्फ तुम्हारी वजह से आया हूँ। मुझे जब पता चला कि यहाँ ऑफिस में एक इंडियन भी है तभी मैंने नौकरी का ऑफर स्वीकार किया।”
हम जिन्दगी में एक बदलाव के लिये, नई जगह, नई परिस्थितियों में रहने के लिये अपनी जगह से परदेश आते हैं। मगर परदेश में भी अपनों को ही तलाशते हैं। खैर…।

प्रायः रोज ही शाम को जब निशान्त ऑफिस से लौटते, साथ में डॉ. कृष्णन् भी होते। वे हमारे साथ चाय पीते, भोजन करते, हमसे बतियाते रहते – बदलते हुये भारत की कई नई बातें हमें बताते – आर्थिक विकास, तकनीकी प्रगति व समाजिक बदलाव। शुरू में तो मुझे उनका रोज आना अच्छा लगा लेकिन जब यह एक नियम सा बन गया तो मुझे अखरने लगा। एक तो वे शुद्ध शाकाहारी थे। इसके अलावा कितनी ही तरह की सब्जियाँ भी नहीं खाते थे। कहते थे कि लहसुन, प्याज, बैंगन व मशरूम तामसिक हैं। बटर व चीज हाजमें के लिये ठीक नहीं है। फ्रिज में रखी फ्रोजन सब्जियाँ सेहत के लिये खराब। डॉ. कृष्णन् के लिये मुझे एक विशेष प्रकार का भोजन पकाना पड़ता, जो मुझे चिड़ा देता।
निशान्त को डॉ. कृष्णन् से एक अपनत्व हो गया था। उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुये मुझसे कहता, “वे अकेले रहते हैं। इतने जवान भी नहीं रहे। उनके लिये उनकी पसन्द का अगर थोड़ा सा भोजन पका दो तो क्या हो जायेगा।”
खैर डॉ. कृष्णन् जितना हमारे घर में खाते उसे किसी न किसी रूप में लौटाने की कोशिश करते। कभी चायपत्ती का डिब्बा ले आते, कभी इंडियन दुकान से ताजी तरकारियाँ तो कभी बासमती चावल का पाँच किलो का पैकेट ही तोहफे के रूप में दे देते। कभी बच्चों को उनकी पसन्द के छोटे-मोटे गिफ्ट दे देते।
डॉ. कृष्णन् अक्सर एक बात कहते, “ इस जग में सबसे अधिक साधन-सम्पन्न जीव मनुष्य है। फिर भी एक इन्सान दूसरे इन्सान की मदद लिये बगैर जी ही नहीं सकता। अतः हमें सभी से अच्छे रिश्ते बनाने की कोशिश करनी चाहिये। न जाने कौन, किस रूप में, कब काम आ जाये।” कहते-कहते वे तरून्नुम में कबीर का दोहा सुनाने लगते, “इस जग में आई के सबसे मिलये धाय, न जाने किस रूप में कौन भगवान मिल जाये..।”
हम छह वर्षों से कोपनहेगन में रह रहे थे, मगर डॉ. कृष्णन् को छह हफ्तों में ही कोपनहेगन में बसे भारतीयों की जानकारी हमसे अधिक हो गई। उन्हें एक तमिल संस्था का भी पता चल गया। वे उसके सदस्य बन गये। समय-समय पर संस्था के होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगे। कई उनके मद्रासी मित्र बन गये। उनका हमारे घर आना क्रमशः कम होता गया। मैंने महसूस किया कि पहले मुझे उनका रोज-रोज अपने घर आना अखरता था और अब न आना अखरने लगा था।
“इंडियन्स चाहे कहीं भी चले जाये, वे मद्रासी, गुजराती, बंगाली, पंजाबी ही बने रहेंगे,” एक दिन मैं निशान्त से उलाहना देते स्वर में बोली। “केवल हिंदुस्तानी तो वे बनना ही नहीं चाहते। डॉ. कृष्णन् को लो… कितने पढ़े-लिखे इन्सान हैं, लेकिन आते ही अपने मद्रासियों से जुड़ गये। उन्हीं के साथ ही उठने-बैठने लगे हैं।”
“डॉ. कृष्णन् के ऑफिस के लोगों से भी बहुत अच्छे सम्बन्ध है,” निशान्त तुरन्त बोला। “क्रिस्टन तो उन्हें बहुत पसन्द करती है।”
क्रिस्टन… बेचारी… निशान्त की सहकर्मी, पैंतालीस वर्षीया, चार बच्चों की अम्मा, उसका एक लड़का अपाहिज़ है। आजकल पति से तलाक भी चल रहा। वह एक थकेली औरत…। जिन्दगी के बोझों तले उसकी बिगड़ी हुई मनःस्थिति। इधर डॉ. कृष्णन् भी अपने अकेलेपन से त्रस्त। बकबक करने वाले डॉ. कृष्णन् उससे बतियाते रहते होंगे, उसका हालचाल पूछ लिया करते होंगे, उसका मन बहल जाता होगा, इसलिये वह उन्हें पसन्द करती होगी… ।

“ये विदेशी लोग विवाह की वचनबद्धता निभाना ही नहीं जानते,” डॉ. कृष्णन् अक्सर गोरे विदेशियों को कोसा करते। “बड़ी जल्द ही तलाक पर उतर आते हैं। यूज एंड थ्रो कल्चर। मैं इनकी संस्कृति का अध्ययन करता रहता हूँ। बड़ी खोखली है इनकी संस्कृति। हमारी भारतीय संस्कृति सचमुच बहुत ग्रेट है। भारत जैसी महानता कहीं नहीं है। इन विकसित देशों के पास धन है, विज्ञान है और टेक्नोलॉजी है। संसार में जब किसी को शान्ति, परम सुख, सच्चिदानन्द और आत्मा का ज्ञान चाहिए होता है वह भारत आता है। भगवान से मिलने लोग भारत आते हैं। हमारा देश अध्यात्म की भूमि है, भारत विश्व गुरु है।”
जब कभी लोग उनसे उनका परिचय पूछते तो वे अपना लम्बा-चौड़ा परिचय देते, “जाति से तमिल हिन्दू ब्राहमण हूँ। बीस साल पहले अपना चेन्नई, पूर्व नाम मद्रास, छोड़ कर मुंबई, पूर्व नाम बम्बई बस गया था। आजकल स्कॅन्डिनेवियन देश डेनमार्क में जीवन आजमा रहा हूँ… ।”

मुझे लगता कि डॉ. कृष्णन् को खुद के भारतीय होने पर बड़ा गर्व है, फिर हिन्दू होने पर और सबसे ऊपर एक तमिल ब्राह्मण होने का तो उन्हें जबरदस्त अभिमान है।
मुझे वे एक धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति लगते थे। रोज सुबह चार बजे उठ कर दो घंटों तक पूजा में लिप्त रहते। माथे पर हमेशा चंदन का लम्बा टीका लगाये रखते। लोग जब उत्सुकता वश उनके टीके के विषय में पूछते तो प्रफुल्लित होकर वे अपने धर्म-नियमों का बखान शुरू कर देते। गर्मियों के मौसम में अपनी झक सफेद लुंगी पहनकर ही सड़कों में निकल जाते। खाना खाने से पहले वह अपनी कमीज के भीतर हाथ डाल कर अपना जनेऊ पकड़ते और आँखें मूँद कर कुछ मंत्र बुदबुदाते। यह वह विदेशियों के बीच भी करने से कतराते नहीं थे। विदेशी उन्हें हैरत से देखते। मुझे उनके इन आचार-विचारों से बड़ी कोफ्त होती। उनके व्यवहार में मुझे हमेशा उनके कट्टरपंथी होने की बू महसूस होती।
“ऐसे लोगों को इंडिया से बाहर नहीं आना चाहिये,” मैं निशान्त से बोलती। “जब वे अपने को जगह के मुताबिक बदल नहीं सकते, नये तौर-तरीके अपना नहीं सकते तो उन्हें अपनी ही जगह बने रहना चाहिये।”
“लोगों को हमेशा अपनी वास्तविकता, स्वयं के सच्चे संस्करण में रहना चाहिए, निशांत उनका बचाव करता।
एक दिन मैंने अचानक सुना कि डॉ. कृष्णन् का कोई लड़का इंडिया से आ रहा है। मैं आश्चर्य से भर गई, क्योंकि उन्होंने बताया था कि उनकी सिर्फ एक लड़की है, जो शादीशुदा है और अमेरिका में अपने पति के साथ रहती है।“उनका कोई लड़का कहाँ से आ गया?” मैंने निशान्त से पूछा।
“वह उनका अपना लड़का नहीं है। डॉ. कृष्णन् ने उसे सिर्फ पढ़ाया-लिखाया है,” निशान्त ने जवाब दिया।
डॉ. कृष्णन् का कोपनहेगन में अपना एक बहुत बड़ा तमिल समुदाय बन गया था, उनके साउथ इंडियन फ्रेन्ड्स। मुझे हैरत होती, कहाँ से मिल गये उन्हें डेनमार्क जैसे एक नन्हे से देश में अपने इतने सारे तमिल बन्धु ! पता चला कि उनमें से कई श्रीलंका के तमिलियन हैं, जो गृहयुद्ध के दौरान श्रीलंका से भाग कर यूरोपीय देशों में पनाह लेने के लिए आ गये थे।
खैर, ऑफिस के सहकर्ताओं से जहाँ हमारे औपचारिक संबध थे, उनके बड़े अन्तरंग बन गये। मगर उन्हें जब भी कोई जरूरत पड़ती, किसी काम से कहीं जाना पड़ता तो मेरा पति निशान्त ही उन्हें नजर आता। उनके तथाकथित बेटे को एयरपोर्ट से लाने के लिये निशान्त ही अपनी कार से उनके साथ गया। मैं भुनभुनाती कि जरूरत पड़ने पर निशान्त, नहीं तो और लोग। ऐसा यूज करते हैं निशान्त को ! मैं यह सुन चुकी थी उन्होंने कई बार अपने तमिल मित्रों को अपने घर बुलाकर दावत दी है। लेकिन आज तक उन्होंने हमें एक बार भी अपने घर नहीं बुलाया था। बस एक-दो बार रसम या साँभर बना कर हमारे घर ले आये थे। उनके उस रसम व सांभर को चख कर ही मैंने अनुमान लगा लिया था कि डॉ. कृष्णन् पाक कला में भी बहुत निपुण हैं। उनके घर खाना खाने की मेरी दिली ख्वाहिश थी – ताजे नारियल की चटनी के साथ गर्म गर्म उत्पम। हाय ! मगर कोई निमन्त्रण ही नहीं…।
एक बार मजाक-मजाक में मैंने कहा भी, “अंकल, नये लोगों से मिलने की आतुरता में पुरानों को दरकिनार मत करो। यह मत भूलो कि आपका परिचय इस शहर में हमसे ही शुरू हुआ था…।”
वे एक स्निग्ध मुस्कान के साथ निशान्त की ओर देखते हुये बोले, “निशान्त तो मेरा यहाँ सबसे पुराना व अन्तरंग दोस्त है।”
निशान्त भी उनके लिये कोई भी काम करने के लिये हमेशा तत्पर रहते। मेरी कुड़कुड़ाहट निशान्त को रोकती नहीं बल्कि उन्हें मुझसे ही खफा कर देती। सच कहूँ तो डॉ. कृष्णन् कितनी ही बार हम पति-पत्नी के बीच तकरार का कारण बने।
खैर उनका लड़का मुंबई से आया था। एक बार उन्हें फिर उनके लड़के समेत अपने घर भोजन पर बुलाना पड़ा। उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से अपने लड़के को परिचित करवाया। “विजय – माय ब्यॉय…” वे फख्र से बोले।
डॉ. कृष्णन् तो साँवले रंग के थे। मगर विजय, उनका तथाकथित लड़का, गोराचिट्टा। आकर्षक नैन-नक्श, चौबीस-पच्चीस की जवान उम्र।
“आपने कभी बताया नहीं कि आपका कोई लड़का भी है,” मैं शिकायती लहजे में उनसे बोली।
उन्होंने जवाब में विजय की ओर देखा। विजय मुस्कुरा दिया। दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। मैं समझ गई कि उनके बीच एक अभिन्न रिश्ता तो है, मगर यह कैसे, किन परिस्थितियों में बना उसका खुलासा दोनों ने ही नहीं किया। मैंने कुरेदना ठीक नहीं समझा।
विजय हमारे घर आया नया आगुन्तक था। बातों का सिलसिला उसी पर केन्द्रित रहा। बड़े शिष्ट तरीके से वह निशान्त की बातों का जवाब दे रहा था। पता चला कि वह वास्तुकला की पढ़ाई कर रहा है जो कुछ महीनों में पूरी हो जायेगी। डॉ. कृष्णन् खामोश और मंत्रमुग्ध से विजय को निशान्त से बात करते देख रहे थे। सात महीने उन्हें कोपनहेगन में हो गये थे लेकिन जो खुशी उनके चेहरे पर आज थी वह मैं पहली बार देख रही थी।
भोजन के बाद जब वे विदा लेने लगे तो डॉ. कृष्णन् मुझसे बोले, “शीतल, तुमने मुझे बहुत बार खाना खिलाया है। अब विजय आ गया है, मैं तुम्हें अपने घर खाने में बुलाऊँगा।”
“माय प्लेजर, अंकल…” मैं बोली।
मैं और निशान्त दरवाजे पर खड़े होकर बड़ी देर तक डॉ. कृष्णन् को विजय के साथ जाते देखते रहे, जब तक वे आँखों से ओझल न हो गये। पलट कर घर में घुसे तो निशान्त उनकी तारीफ करते हुये बोले, “देखो कितने अच्छे इन्सान हैं। अपनी पत्नी को यहाँ नहीं बुलाया, माँ को नहीं बुलाया, बेटी को नहीं बुलाया, पर विजय को यहाँ बुलाया है। उसे नार्वे, स्वीडन… पूरा स्केन्डिनेवियन घुमा रहे हैं।”
“तुम पर डॉ. कृष्णन् का जरा ज्यादा ही प्रभाव है,” मैंने उलाहना दी।
“मैं उन्हें तुमसे ज्यादा जानता हूँ। मैं उनके साथ ज्यादा समय बिताता हूँ,” निशान्त थोड़ा नाराजगी से बोला।
“अच्छा-अच्छा छोड़ो। अब उस बुढ़ऊ के पीछे मुझसे लड़ना मत।”
“उम्र के हर दौर से हर इंसान गुजरता है। उन्हें बुढ़ऊ मत बोलो,” निशांत ने मुझे फटकारा।
“उनके सामने थोड़े ही बोलती हूँ….” मैंने दलील दी।
“न सामने, न पीठ-पीछे,” निशांत सख्ती से बोला। ***
उनके सूने घर में मैं पहले भी दो दफा गई थी। उस दिन जब गई तो विजय की उपस्थिति से घर में एक अलग ही रंगत नजर आयी। घर बहुत सजा-सँवरा, व्यवस्थित लग रहा था। सुंदर ताजे फूलों के गमले सजे हुये, मोमबत्तियाँ जल रहीं, डॉ. कृष्णन् किचन में खाना पका रहे, विजय टेबल पर प्लेटें व गिलास लगा रहा। म्यूजिक सिस्टम में फिल्मी गीतों की बजती मधुर धुन…।
हमारे दोनों बच्चे विजय से जा लगे। डॉ. कृष्णन् के घर जाने के लिए वे कोई ख़ास उत्सुक नहीं रहते थे मगर विजय की वजह से वे हमारे साथ खुशी-खुशी हो लिए थे।
हमारे अलावा उनके घर भोजन पर कई अन्य मेहमान आमंत्रित थे। ऑफिस की डेनिश सहकर्मी क्रिस्टन थी, जो अपनी दस वर्षीय लड़की के साथ आयी थी। मलेशिया का एक मले परिवार था, दो परिवार सिंगापुरी तमिल थे। एक अफ्रीकन भी वहाँ मौजूद था। एक अच्छा-खासा अन्तरराष्ट्रीय जनसमूह वहाँ नजर आया। मुझे हैरत हुई कि डॉ. कृष्णन् ने यह किस-किस से दोस्ती कर ली।
विजय और डॉ. कृष्णन् ने मिलकर बड़े शानदार तरीके से अतिथियों को स्वादिष्ट भोज करवाया – स्टार्टर से लेकर डेजर्ट तक के कोर्स। उनके घर में किसी गृहणी की कमी महसूस ही नहीं हुई। दोनों पुरूष मिलकर ऐसे सहयोग व सरलता से काम निपटा रहे थे जैसे काम की बारिकियों के आलावा एक-दूसरे के भावों को भी भली-भाँति समझते है। एक दूसरे को पूरा-पूरा जानते हैं। इतनी समझदारी तो सगे बाप-बेटे के बीच भी शायद ही होती हो।
विजय उन्हें स्नेहमय पुकारता – कृष्णन् अप्पा !
वे विजय को प्रेम से पुकारते – विज्जू…!
“अरे वाह, अंकल आपको तो पत्नी की जरूरत ही नहीं। पूरा घर इतने अच्छे से सँभाला हुआ…” मैंने उनकी प्रशंसा के पुल बाँधे।
“अरे नहीं… गीता को मैं हर पल मिस करता हूँ।”

दीवार पर टँगी अपनी पत्नी की तस्वीर की तरफ देखते हुए डॉ. कृष्णन् ने उन्मुक्त हो अपने तमिल उच्चारण से गीत गुनगुनाने लगे,” जरूरत है, जरूरत है, सख्त जरूरत है… एक श्रीमती की, कलावती की, सेवा करे जो पति की… ।
हसीं हजारों भी हो खड़े, मगर नजर उसी पर पड़े।
है जुल्फ गालों से खेलती कि जैसे दिन रात से लड़े.
अदाओं में बहार हो, निगाहों में खुमार हो,
कुबूल जिसे मेरा प्यार हो…।
क्या बात है !
है… जरूरत है, जरूरत है…. ।”

मेज पर विजय की उँगलियाँ गाने की लय-ताल में थिरकने लगीं।
उनका कंठ सुरीला था। सभी ने उनके गाने का लुत्फ़ उठाया, भले ही उस महफिल में बहुत कम लोग हिन्दी समझते थे।
डॉ. कृष्णन् डेनमार्क में विजय के लिये वास्तुकला की आगामी पढ़ाई का जुगाड़ करने में लगे थे। कहते कि वह मुंबई में बैचलर कर रहा है, मास्टर अगर डेनमार्क में कर ले तो उसके करियर के लिये अच्छा रहेगा। उसे विदेश में रहने और अन्तरराष्ट्रीय लोगों के साथ काम करने का अनुभव हो जायेगा। वे इससे मिलते, उससे मिलते। विजय डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन घूमकर इंडिया लौट कर चला गया। मगर डॉ. कृष्णन् का प्रयास उसे किसी वास्तुकला संस्था में प्रवेश दिलवाने का जारी रहा।
***

एक साल बहुत जल्दी गुजर गया। हालाँकि ऑफिस उनके काम से अत्यधिक खुश था और उनके जॉब कॉन्ट्रेक्ट को आगे बढ़ाना चाहता था, किन्तु डॉ. कृष्णन् ने मना कर दिया। उनका कहना था कि उनकी माँ और पत्नी उन्हें बहुत मिस कर रहे हैं, वे भारत वापस लौटना चाहते हैं। डेनमार्क छोड़ने से पहले अपनी पत्नी और बेटी को अपने पास बुला कर इस क्षेत्र का थोड़ा भ्रमण करने की उनकी योजना थी। इसके लिए उन्होंने अपनी मौसी की लड़की से भी बात कर ली थी कि माँ को पन्द्रह-बीस दिनों के लिए वह देख ले, ताकि उनकी पत्नी उनके पास आ सके।
सब कुछ तय हो चुका, टिकट वगैरह बुक हो गये थे। किन्तु होनी को कोई टाल नहीं सकता। माँ की तबीयत अचानक बहुत बिगड़ गई, स्ट्रोक पड़ गया। माँ-बेटी में से कोई भी उनके पास नहीं आ सका, सभी माँ की तीमारदारी में जुट गये।
उनके अन्त के तीन-चार माह कोपनहेगन में बहुत अधिक व्यस्तता भरे रहे। एक तो वे विजय के लिये बहुत भाग-दौड़ कर रहे थे, फिर उनका अपना मित्र मंडल भी काफी बड़ा हो गया था। हमारे घर आना उनका लगभग छूट-सा गया था।
वह उनका हमारे घर में अन्तिम डिनर था। वे हमेशा के लिये भारत लौट रहे थे। वे अक्सर कहा करते थे कि इन्सान सबसे अधिक साधन-सम्पन्न जीव होते हैं। फिर भी, किसी चीज की जरूरत पड़ती है तो एक इन्सान को दूसरे इन्सान के पास ही जाना पड़ता है। अपनी बात उन्होंने सिद्ध कर दी थी। विजय को कोपनहेगन की वास्तुकला संस्था में मास्टर कोर्स में प्रवेश मिल गया था। उन्होंने उसका रहने का इन्तजाम भी करवा दिया था, क्रिस्टन के घर में। क्रिस्टन का पति से तलाक हो गया था। उसके दोनों वयस्क लड़के घर छोड़ कर अपना अलग घरौंदा बसाने चले गये थे। उसका घर लगभग खाली था। वह विजय को अपने घर रखने को राजी हो गई। बदले में कोई किराया भी नहीं लेगी। मुझे सुनकर अचरज हुआ। दुनिया अभी भी अच्छे लोगों से भरी है !
“अंकल… आपको विजय कहाँ मिला?” टेबल पर खाना लगाते हुये मैंने सहसा उन पर प्रश्न दागा।
उनकी आँखें शून्य में खो गई। “वह मुझे एक ढाबे में मिला था…” खोये स्वर में वे बोले। मैं टेबल पर खाना लगाना छोड़कर तुरन्त सोफे पर उनके सामने बैठ गई। “अंकल, आप इंडिया लौट कर जा रहे हैं। हमसे दुबारा पता नहीं मिल भी पाते हैं या नहीं। मेरे मन में हमेशा यह जानने की उत्कंठा रही कि विजय से आपका कैसा रिश्ता है।”
वे मुझे थोड़ी देर तक देखते रहे, निर्निमेष। फिर बोलना शुरू किया, “सत्रह साल पुरानी बात है… वह आठ साल का रहा होगा और मैं चालीस का। मलाड में हाईवे पर बने एक ढाबे में बैरा बना हुआ था। मैं एक दिन वहाँ से गुजर रहा था कि एकाएक हाईवे पर मेरी कार खराब हो गई। कार मैकेनिक मेरी कार ठीक करने लगे और मैं पास के ही ढाबे में चाय पीने चला गया। विजय वहाँ ग्राहकों को चाय पिला रहा था। जूठे कप-प्लेट समेट कर धो भी रहा था। मेरे लिये भी चाय वह ही लेकर आया।”
“मुझे चाय का प्याला थमा कर वह बड़ी मासूमियत से फुसफुसाया – टिप! मुझे हँसी आ गई। मैंने उससे पूछा कि क्या वह स्कूल नहीं जाता। वह बोला, जाता था पर पिताजी के मरने पर पढ़ाई बन्द हो गई। मैंने उससे पूछा कि क्या वह आगे पढ़ना चाहेगा। उसने चहकते हुये हामी भरी। उसकी आँखों में पढ़ने की एक ललक थी। एक शिक्षक होने के नाते मैंने वह ललक उसकी आँखों में तुरन्त पढ़ ली। उस गन्दे ढाबे से निकाल कर मैंने उसे एक अच्छे स्कूल में भर्ती करवा दिया। वह एक होनहार लड़का था। वह पढ़ता गया और मैं उसे फीस, ट्यूशन व किताबों वगैरह के लिये रुपये-पैसे पैसे देते गया।”
“विजय मुबंई में कहाँ रहता है?” मैंने पूछा।
“गोरेगाँव में अपनी विधवा माँ के साथ। हम लोग चैंबूर में रहते हैं।”
“वह मराठी है?” मैंने पूछा।
“हाँ,” उन्होंने गर्दन हिलाई।
“एक बात और…” निशान्त थोड़ा झिझकते हुये बोला, “वह अछूत जाति का भी है।”
मैंने आश्चर्य से डॉ. कृष्णन् की ओर देखा। वे शांत भाव से बोले, “यह जाति वगैरह की दीवारें केवल हमारे देश में हैं। यहाँ नहीं। यहाँ के समाज की कई बातें बहुत अच्छी हैं। ये लोग इतने अधिक फीगर कॉन्सियस हैं। दिन के किसी भी पहर बाहर निकलो तो पार्क और सड़कों पर लोग जॉगिग करते हुये नजर आयेंगे। ये लोग झूठ नहीं बोलते, निंदा नहीं करते। तटस्थ व उदासीन भले ही हो पर मानवता का फर्ज निभाना जानते हैं। क्रिस्टन को ही देख लो…। मैंने उससे बहुत कहा कि विजय को अपने घर रखने का वह मुझसे किराया ले। पर उसे मालूम है कि विजय कौन है और उसका मुझसे क्या नाता है। वह बोली कि मानवता का कुछ फर्ज मैं भी निभा लूँ तो अपनी ही नजरों में उठ जाऊँगी।”
मैं डॉ. कृष्णन् को हमेशा एक कट्टर हिन्दू ब्राह्मण समझती थी। उन्हें एक हिन्दू मतान्ध समझती थी। मगर अब सोचने को मजबूर हो गई कि हम कितनी जल्दी किसी के लिये मन में गलत धारणा बना लेते हैं। मुझ जैसे मामूली लोगों को डॉ. कृष्णन् जैसी हस्तियों को पहचानने में समय लगता है।
सहसा डॉ. कृष्णन् अपनी जिन्दगी के उन निहायत व्यक्तिगत पलों की भी बातें बताने के लिये उत्प्रेरित हो गये। अतीत में खोते हुये से बोले, “मेरी और गीता की जब शादी हुर्ई थी तो हमने सुहागरात वाले दिन मिलकर एक वचन लिया था कि हम एक अपना बच्चा पैदा करेंगे। एक किसी गरीब, अनाथ बच्चे की परवरिश करेंगे। हमारी बेटी मधुरा बड़ी होती गई। हम अपनी व्यस्तता में उलझे रहे। फिर जब ढाबे में विजय दिखा तो मुझे अपना वचन ध्यान आ गया…।”
वे पीठ घुमा कर पोजिशन बदलते हुये बोले, “सच…मधुरा को पढ़ाने में मुझे उतना मजा नहीं आया जितना विजय को पढ़ाने में आया।”
उनके प्रति मैं अपार श्रद्धा से भर गई। स्नेह और सम्मान से उन्हें भोजन के लिए कहती हुई मैं डाइनिंग टेबल की ओर बढ़ी, “आइये अंकल, खाना लीजिये। ठंडा हो रहा है।”
डॉ. कृष्णन् सोफे से उठकर डाइनिंग टेबल पर आकर बैठ गये। जब उन्होंने अपनी कमीज के अन्दर हाथ डालकर अपना जनेऊ पकड़ा और आँखे मूंद कर मंत्र बुदबुदाये तो मुझे जरा भी नहीं खला। जिस कमरे में बहुत सी तस्वीरें लटक रही हों, वहाँ बहुत से विचार लटक रहे होते हैं। डॉ. कृष्णन् एक ऐसा ही व्यक्तित्व था।
***
समय किसी के लिये थमता नहीं है। डॉ. कृष्णन् अपनी नौकरी, पत्नी व माँ के पास मुंबई वापस चले गये। उनका होनहार लड़का विजय यहाँ कोपनहेगन आ गया – अपने मास्टर कोर्स के लिये। अब उसके साथ हमारा उठना-बैठना है। हमारे दोनों बच्चे विजय को बेहद पसन्द करते हैं। ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब हमारी बातचीत में डॉ. कृष्णन् का जिक्र न होता हो…।
विजय उन्हें कृष्णन अप्पा कहता है। हम भी उन्हें पुकारने लगे – कृष्णन अप्पा।

अर्चना पैन्यूली 

डेनमार्क

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