आरोहण
उस दिन पता नहीं मैं किस कार्य से कार्यालय की ओर गई थी । ऐसे अमूमन मैं कक्षाओं में ही उलझी रहती हूँ और कार्यालय की ओर जाना संभवतः तभी हो पता है – जब तक मुझे कोई आवश्यक कार्य न आन पड़े । बहुत याद करने पर भी उस दिन कार्यालय की ओर अभिमुख होने का उद्देश्य स्मृतियों में नहीं दर्ज हो पाया।
परन्तु दृश्य नेत्रों के समक्ष जीवित से हैं।मेरी सहकर्मी किसी पंजी में उलझी पड़ी थीं, आंखों पर चश्मा लगाए ,उनके चेहरे पर कुछ गंभीर भाव रेखाएं थीं। उनकी मेज के सामने की ही कुर्सी पर एक अभिभावक बैठे हुए थे — नंगे पाँव ,सामान्य सी कमीज और अधोवस्त्र के रूप में शरीर पर लिपटा हुआ तौलिया।उनका वस्त्र विन्यास मेरे लिए कोई अचरज की बात नहीं थी। पिछले कई वर्षों से शहरी आडंबरों से दूर, जीवन के सरलतम रूप के कई आयाम इस ग्रामीण पृष्ठभूमि में देख रही हूं। अगर किसी चीज की ओर विशिष्ट रूप से ध्यानाकर्षण हुआ तो वह था उनका केश विन्यास—बिल्कुल रॉकस्टार की तरह।हां ,एक भारतीय नाम याद आया–हमारे सुप्रसिद्ध गायक जो ठहरे ,कैलाश खेर –महादेव की तरह जैसे गंगा को समेटे हुए जटाजूट ।
आजकल सरकार द्वारा प्रायोजित प्रत्येक विद्यालय में सप्ताहांत होने वाली जांच परीक्षा — रेल–रेगुलर एसेसमेंट फॉर इंप्रूव्ड लर्निंग–विद्यालय की तय प्राथमिकताओं में एक है और इसलिए इस परीक्षा में परीक्षार्थियों की शत – प्रतिशत उपस्थिति बनाए रखने की जिम्मेदारी का भी बहुत दबाव है। मैं भी वही एक कुर्सी पर विराजमान हो गई और उनके बीच हो रही बातचीत मुझे इसी विषय के इर्द-गिर्द होती समझ में आ गई। उनकी पुत्री की लगातार अनुपस्थिति वर्ग शिक्षिका के लिए विषम परिस्थिति पैदा कर रही थी और वह शायद इस विषय पर अपनी चिंता मेरे आने से पूर्व ही अपने समक्ष बैठे अभिभावक को जतला चुकी थीं।
अब तक चित्र स्पष्ट था कि ये कुईली के पिता हैं;परंतु जैसे ही मेरे कानों से उनके मद्धिम ,संवेदी और बहुत हद तक उदास लहजे में डूबे शब्द टकराएँ ,मेरी सोच को दूसरी ओर मुड़ना पड़ा–“अभी उसका मन पूरा बदला नहीं है ,उसका मन थोड़ा बदल जाएगा तो हम फिर उसको स्कूल लाने के लिए खुद लेकर आएगा।” उनके शब्दों का आरोह – अवरोह जैसे किसी घने जंगल के सन्नाटे को समेटे हुए प्रतिध्वनित होता हुआ आ रहा था। उनकी आवाज का प्रतिध्वनित सन्नाटा मेरे मुख मंडल पर पीड़ा की रेखाएं खींचता चला गया, आखिर संतान तो मैं भी पाल रही हूं।
बहुत ज्यादा पता नहीं था मुझे, परंतु यूं ही उड़ते – उड़ाते कर्णपटल से कुछ शब्द टकराए तो थे– कुईली और फागुन — कुईली कक्षा दसवीं की छात्रा और फागुन एक वर्ष का सिनियर छात्र,जोअब मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर विद्यालय से जा चुका था ।
जनजातीय समाज में चूंकि प्रायः अल्पायु में ही विवाह होते हैं ,यहां तक कि जिन बच्चों के माता-पिता हमसे मिलने आते हैं ,उन्हें देखकर हम शिक्षकगणों को खुद ही अचरज होता है कि उनके बच्चे इतने बड़े हैं और यह खुद कितनी छोटी उम्र के दिख रहे हैं । खुद कुइली के पिता की उम्र ज्यादा नजर नहीं आ रही थी ।पैंतीस के वय के आसपास रहे होंगे–16 साल की पुत्री का पिता लगभग 35 वर्ष का।याद आ गई वह घटना मुझे,जब सरकार लड़का और लड़की के विवाह की उम्र एक बराबर करने के लिए संसद में बिल लाने वाली थी। जैसे ही मैंने कक्षा 10 में यह चर्चा की कि आपके भी विवाह की उम्र अब लड़कों के बराबर 21 वर्ष होने जा रही है,बड़ा अप्रत्याशित सा जवाब सामूहिक रूप से सामने आया था–“तो क्या अब हम लोग बुढ़िया होकर शादी करेंगे?”अचंभे से भर उठी थी मैं –ऐसे जवाब की तो मुझे दूर-दूर तक उम्मीद नहीं थी। गहराई से समझ में आया कि परिवेश हमारी सोच,हमारे विचार ,हमारी जीवन शैली ,भविष्य की ओर देखने की दृष्टि — सबको कितना प्रभावित करता है । जिन्होंने बोध प्राप्त करते ही लड़कियों को आठवीं कक्षा में भी वधू जीवन ग्रहण करते देखा है, उन्हें भला सरकार की यह नीति इतनी आसानी से ग्राह्य कैसे हो सकती है ?
परिवेशीय परम्परा जानती थी मैं , इसलिए बड़ी सरलता से कुईली के पिता से पूछ बैठी–“क्या आप उसका विवाह फागुन के साथ नहीं करना चाहते?”स्पष्ट सपाट सा उत्तर मेरे सामने था–“अभी हम सादी के लिए सोच ही नहीं रहा ,अभी उसका उमर पढ़ने का है ,उसका जिंदगी बर्बाद हो जाएगा ।”उनका जवाब मुझे अचरज से भर गया क्योंकि उस परिवेश में इस जागरूकता से हमारा सामना शायद ही कभी होता है । समझ में नहीं आया कि उनकी जागरूकता को नमन करूं या मन में उठ रहे संशयपूर्ण अन्य सवालों को उसके ऊपर प्राथमिकता दूँ। बाल विवाह को रोकने के लिए तो हम शिक्षकों को ही कमर कसना पड़ता था।बच्चियों को तरह-तरह से समझाना पड़ता था कि अगर लड़के वाले देखने आए तो साफ-साफ कह देना कि अभी हमें शादी करनी ही नहीं है। मां-बाप नहीं समझें तो हम लोगों को बताना।
ऐसे सामाजिक तानेबाने में कुइली के व्यवहार को कैसे अव्यावहारिक कहा जा सकता है। कुइली भी पठन में विशेष अभिरुचि रखने वाली छात्रा कभी नहीं रही ,परंतु व्यक्तित्व की अन्य विशेषताएं उसके पास अवश्य थी।अगर कुईली मैट्रिक किसी तरह उत्तीर्ण कर भी जाती तो मुझे पता था आगे कुछ ऐसा खास होने वाला नहीं ,जिसे हम शहरी लोग करियर का नाम देते हैं ।मसला सच में आगे पढ़ने का था या उसके पिता के अपने कुछ अन्य सपने थे– सच ईश्वर पर ही छोड़ दिया ।
खैर ,जिस कार्य से कार्यालय गई थीं, अब वह कार्य याद भी नहीं रहा —उसके पिता की विवश , करुणामई छवि हृदय को कहीं बेंध रही थी। दृगपटल पर इन दोनों बच्चों की भी छवि उभर आई —आती भी कैसे न—दोनों को पढ़ाया है मैंने। गौर वर्ण की कुइली ,औसत मध्यम शरीर और ऊंचाई की ;तो दूसरी और फागुन पूरी जनजातीय विशिष्ठताओं से युक्त शरीर सौष्ठव लिए हुए –घुंघराले बाल,अच्छा कद ,शरीर में चपलता ।कुछ कहने पर मुख पर उसके मुस्कान भी स्वतः दर्ज हो जाती थी ।
रिमझिम बारिश होने लगी और यह बारिश जैसे कक्षा के छात्रों को फुटबॉल मैदान की ओर पुकारते हुए ही आती है । शहरों में आप क्रिकेट का उन्माद देखेंगे परंतु यहां तो सिर्फ और सिर्फ फुटबॉल है और कुछ भी नहीं। घंटी भी अब खेल की थी तो उन्हें रोकना भी संभव न था —आज्ञा पाते ही वे दौड़ पड़े फुटबॉल के साथ गीली घास पर, फुहारों से भींगते,दो दलों में बंटे, फुटबॉल के आगे-पीछे होते। कक्षा में बस बच गईं —- छात्राएं और उनके साथ मैं। सच कहूं तो बहाने से मैंने उन्हें रोक लिया, दोनों ओर के दरवाजे को सटा दिया—आज उस कहानी को जानना चाहती थी जिसके कुछ अक्षर मेरे कानों तक तो आए थे पर मैंने कभी उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया। ऐसे भी मनोभावों की दुनिया में मैं बहुत सतर्कता के साथ पैर रखना चाहती हूं और खास कर तब जबकि सवाल इस तरह के नेह बंधनों का हो और उस पर भी विशेष जब , यह मेरे आस-पास के बच्चों की दुनिया से जुड़ा हो।
“हां , मैमजी , कुईली अपना माँ से बहुत झगड़ा कर रही थी। वह बोलती है वह यहां रहेगी ही नहीं। वह तो चार बार भाग -भाग कर फागुन का घर चली गई।”ये बातें मुझे अचंभित कर रही थीं,पूछ बैठी मैं–“और उसके माता-पिता फिर वापस उसको घर में रख लेते हैं ।” “हां मैम जी ।”उसके पिता की फिर से वही विवश, करुणापूर्ण छवि मेरे आंखों के सामने उभर आई ।”फागुन का मां-बाप एकदम तैयार है कुईली को अपना घर में रखने के लिए —उसका पिताजी तो बहुत रो रहा था कि मेरा बेटा फांसी लगा लेगा। परंतु कुइली के पिताजी बोलते हैं कि ऐसे कैसे फांसी लगा लेगा।”
मैं अवचेतन अवस्था में अपने समाज की परिधि में भी घूम रही थी,जहां क्या यह संभव था कि कोई लड़की अपने घर की दहलीज इस तरह बार-बार फाँद कर जाए और वापस उसका उस घर में फिर से उतनी ही आजादी के साथ रहना संभव हो पाए।
” मैम जी , कुईली जब अपना मामा घर आई थी न,तब फागुन उससे रोज मिलने आता था । दोनों डैम किनारे जाकर मिलते थे। फागुन कितना रोता था, कुईली उसको समझाती थी कि रोऊँ मत ,सब ठीक हो जाएगा ।” मैंने अचानक यूं ही पूछ लिया – “तुम लोगों को क्या लगता है , सब ठीक है यह?” अधिकांश अधर निःशब्द रहें,कुछ नजरें नीचे की ओर झुक गईं परंतु दो -चार कंठ – स्वर बहुत स्पष्टता के साथ बोल उठें – ” नहीं मैम जी ,अभी पढ़ने का उम्र है ,पढ़ना ही चाहिए।” ये कंठ स्वर उनके थे जिनका प्रदर्शन कक्षा में प्रायः अच्छा रहता था । एक आस्वस्ति दिखाई पड़ने लगी— इन घनेरे जंगलों के घटाटोप तरुछाया से छनकर सूर्य रश्मियां धरती को चूमकर इंद्रधनुषी छटा बिखेरने का मार्ग तैयार कर रही हैं ।
पर मन कहाँ एक परत में जी पाता है ? बयार बहा , कुछ पन्ने फड़फड़ाये , जीवन के कई दशकों के । चित्रों में उभरे रंग चिंतन के चित्रों में पसरते गए — प्रवाहों के ऐसे वेग के कई बार ऐसे स्वभाविक स्फुटन होते हैं कि इसे नियंता का खेल कहा जाए या किशोरावस्था को पार करते शरीर के हार्मोन्स का वैज्ञानिक क्रियाकलाप — उत्तर अनिर्णित रहा । इन असंख्य चेहरों के बीच केवल किसी एक आनन पर ही लोचनों के पलक क्यूँ अवलंबन धरना चाहते हैं?यह परिपक्व मन जानता है कि इस ज्वार भाटे के बाद जो भग्नावशेष शेष रह जाएगा ,क्या फिर उस पर नई नींव रखना उतना सहज होगा ।
सामने देख रही हूं एक लता , पारिजात की ,बिल्कुल मेरी कनिष्ठा उंगली सी लम्बाई लिए हुए ,नन्हीं ,बाल वाटिका में बच्चों ने लगाई है ।यह लता जैसे ही विकास की प्रक्रियाओं से गुजरेगी ,अवलंबन ही लेगी — आरोहण—लद जाएगी–नारंगी डंडी और सफेद -गुलाबी फूलों से। एक नम प्रार्थना, बस, कुइली के जीवन में भी ऐसे ही खुशबूदार , चित्ताकर्षक,गुच्छेदार कुसुमों की घनी छाँव हो – आरोहण के पश्चात्।
रीता रानी
जमशेदपुर ,झारखंड
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