तिरस्कार
टैक्सी जा कर बड़े से गेट के सामने रूक गई। दरवाजा खोल कर आशा बाहर निकली उस के पीछे दोनों छोटे बच्चें। आशा ने टैक्सी का किराया चुकाया, बैग कंधे पर डाला और दोनों बच्चों का हाथ पकड़ कर गेट के सामने आ खड़ी हुई। दरबान ने देखा तो सलाम किया फिर सिर झुका कर खड़ा हो गया।
“गेट खोलो दरबान, बाहर कड़ी धूप है।” आशा ने कहा दरबान ने बच्चों की ओर देखा तीन बर्ष का लड़का और चार बर्ष की बेटी, गोरे चिट्टे मुख धूप में लाल पड़ गये है।
“जल्दी करो दरवान “आशा ने दोहराया
“आप के लिये गेट खोलने का ऑर्डर नहीं है।” दरबान ने सिर झुकाकर दबी आवाज में कहा।
‘क्या ?’ आशा ने चौंक कर पूछा, “हमें नहीं पहचानते ?”
“जानता हूँ बीबी साहिबा, आप इस घर की बहू है, अच्छी तरह जानता हूँ। पर मुझे मना किया गया है, मैं गेट कैसे खोलूँ?” स्वर में विवशता थी।
आशा के मुख पर क्रोध की रेखा उभर आई कुछ क्षण सोचा फिर कहा ‘जाओ, ‘इंटरकॉम’ पर बात करो।’
आशा देखने लगी बड़े से गेट के पीछे प्रशस्त मार्ग था जो आलीशान भाँति भाँति के पुष्पों से सुसज्जित बंगले के मुख्य द्वार की सीढ़ियों तक ले जाता था, विराट बँगला सुव्यवस्थित बगीचा, क्या शान थी। यहाँ पर वह पाँच साल पहले बहू बन कर आई थी, स्वागत सत्कार धूमधाम से किया गया था और आज द्वार पर खड़ी है। तिरस्कृत सी, केवल इसलियें कि वह गत ६ महीनों से अपने पिता के घर पर रह रही थी। दरबान बापिस आ गया था। उस ने द्वार खोला, बाहर आ कर एक हाथ में बैग पकड़ लिया और बेटे को गोद में उठा लिया। वह आगे आगे चलने लगा, आशा भी चिंकी का हाथ पकड़ कर उस के पीछे चलने लगी।
दरवान सामने मुख्य द्वार की ओर न जा कर घर के पिछले मार्ग की और चलने लगा।
“इधर कहाँ जा रहे हो दरबान, हमारा कमरा तो इसी ओर है। ‘’आशा ने सामने की ओर संकेत किया।’
‘’जी बीबी जी, इस ओर बड़ी मालकिन का कुछ काम चल रहा है, आप लोग तब तक उधर आराम कर लीजिये।’’
दरबान ने पीछे के कमरे में उन्हें पहुँचा दिया, आशा को आश्चर्य हुआ क्योंकि यह वो भाग था जहाँ कोई आता जाता नहीं था, सुनसान रहता था। दरबान चला गया। दोनों बच्चे बेहाल थे। बिस्तर पर लेट गये। आशा सोफे पर बैठ गई। कहीं कोई हलचल मालूम नहीं पड़ती थी।
कितनी रौनक हुआ करती थी कभी। आशा गरीब घर की लड़की थी फिर भी अपने इकलौते बेटे की खुशी के लिये बड़ी मालकिन पार्वती देवी ने उसे बहू का सम्मान दिया था, हालाँकि वे आशा को कभी भी पसंद नहीं करती थी, उसी के कारण उन का बेटा सूरज घरबार, काम काज सब कुछ छोड़ कर घर से अलग घूमता फिरता था। सूरज ने आशा को बहुत प्यार दिया, बच्चों को भी बहुत प्यार किया परंतु कभी भी अपने उत्तरदायित्व को नहीं समझा, न ही निभाया। कामकाज को लेकर हुई, मामूली कहा सुनी के कारण सूरज घर वापिस लौट आया और आशा को पिछले ६ महीनों से अपने पिता के साथ रहना पड़ रहा था, क्या हुआ पता नहीं, सूरज ने एक पत्र तक भी नहीं भेजा। उसका और बच्चों का हाल तक नहीं पूछा, कह गया था, ‘काम लग जाने पर बुलाऊँगा।’ काफी देर हो चुकी थी, आशा बेचैनी से टहलने लगी, उसे अन्य किसी से समाचार मिला था कि सूरज बीमार है. अस्पताल में है। चिंतित हो कर अपनी ज़िद छोड़ कर आशा को आना पड़ा था, बहुत प्यार करती थी वह सूरज से।
तभी दरबाजा खुला और पार्वती देवी ने प्रवेश किया रोबदार गंभीर चेहरा दामी साड़ी, कान और हाथ में हीरों के आभूषण सुनहरे फ्रेम का चश्मा ब्यक्तित्व और भी प्रभावशाली लग रहा था।
“तुम यहाँ ?”
“माँ जी, माँ जी सूरज कहा है? कौन से अस्पताल में है ? मुझे भी उन से मिलना है।” आशा उन के चरण छूने के लिये झुकी ।
“बताइये न माँ जी।”
“जब तक मै न कहूँ यही प्रतीक्षा करो।”
अप्रभावित रह कर उन्होने बच्चों को ओर देखा, कुल्हलाये हुए मासूम भुखड़े।
बे तीव्र गति से बाहर निकल गई।
आशा का दिल बहुत घवरा रहा था, कहाँ है सूरज? कैसे मिलूँ ? बह तड़प उठी, किस अस्पताल में जा कर खोजूँ ? बेचैनी से इधर-उधर घूमने लगी।
“ममी, पानी।” – बेटे ने कहा। बच्चे सुबह से भूखे प्यासे थे। आशा कैसे भूल गई। अपने बैग मे खोल कर देखा, था एक बिस्कुट का पैकेट । खोल कर. बिस्कुट बच्चों को पकड़ा दिये और जग से पानी उड़ेल कर गिलास पकड़ा दिया। पार्वती देवी के कह देने के बाद कमरे के बाहर पैर निकालने का भी साहस आशा में न था। पता नहीं ? पार्वती देवी की बात काटने का साहस किसी में न था। दरबाजे को ताकती बैठी रही। दोपहर ढल चुकी थी।
पार्वती देवी कमरे में आई, मुख कुछ अधिक गंभीर था। आशा ने व्यग्रता से पूछा, “माँ जी, मुझे सूरज के पास जाने दीजिये। “
“सूरज, सूरज क्या लगा रखी है” वह गरजी, “बीमार और बेहाल दशा में छोड़ कर अपने पिता के घर गई थी।”
‘माँ जी सूरज ने ही भेजा था, मै स्वयं नहीं गई थी।’
‘’चुप करो, अब क्या करोगी सूरज से मिल कर ?” वे क्रोध में बड़बड़ा रही थी, ‘’सूरज, नहीं मिल सकती तुम सूरज से।’
‘’माँ: जी प्लीज प्लीज… ?’
उस की बात काट कर ही वे चीखी, “सूरज, मर चुका है सूरज ! मर चुका है।”
“ऐसा मत कहिये माँ जा” आशा चीखने लगी।
‘हाँ, हाँ मर चुका है, अभी अभी, अपने इन्ही हाथों से उसे आग के हवाले कर के आई हूँ “
”कहाँ, कहाँ है वो, ‘आशा के पैरो तले से धरती खिसक गई थी मानो चिल्ला कर रोने लगी थी।’
‘’अब कहाँ ? जब तुम आई थी तब तुम्हारे कमरे से उस का शव रखा हुआ था, शव ले गये, सब खतम हो गया।’’
‘माँ जी, माँ जी मुझे क्यों नहीं बताया, मुझे क्यों नहीं बताया।’एक बार देखने तो दिया होता, अंतिम बार। “क्या क्या बोलती जा रही थी स्वयं आशा को भी नहीं पता था, चेतनाशून्यसी। आशा बेतहाशा रो रही थी, चीख रही थी। उसे रोते देख कर बच्चे भी रोने लगे।
‘’बंद कर ये तमाशा’’उन्होने डपट कर कहा।
‘’अब तुम्हारे साथ कोई रिश्ता नहीं।’’
आगे बढ़ कर उस का मंगलसूत्र खींच कर हाथ में लेकर एक और फेंक दिया। आशा और बच्चे चीख उठे। उसी समय उन के एक सहकर्मी ने ला कर एक लिफाफा उन को दिया।
पार्वती देवी ने आगे बढ़कर वह लिफाफा आशा के हाथ में पकड़ा दिया।
“तुम्हारी वापसी के टिकट है, पकड़ो और चुपचाप वापिस चली जाओ। और फिर कभी अपना मुख मत दिखाना।”
आशा के कुछ कहने से पहले ही पार्वती देवी सर्राटे से कमरे के बाहर निकल गई।
सहकर्मी ने धीरे से कहा, “आइये मैं आप को स्टेशन पर छोड़ देता हूँ।”
आशा जमीन पर पड़ी सुबक सुबक कर रो रही थी, उस का संसार उजड़ चुका था, पागल सी तड़प रही थी, अपनी माँ की यह अवस्था देख कर दोनों बच्चे भी फुक्का फाड़ कर रोने लगे थे।
सहकर्मी चुपचाप हाथ बाँधे खड़ा था, किंन्तु उस की आँखों के कोरो से भी आँसुओ की बूंदें छलक रही थी। यह हृदय-विदारक दृश्य बह भी सहन नहीं कर पा रहा था।
काफी समय के बाद सहकर्मी ने हाथ पकड़ कर आशा को उठाया, “उठिये, ‘बहू जी, उठिये ! आप की गाड़ी का समय हो गया है।’
आशा को चारों ओर शून्य नजर आ रहा था। बच्चे माँ के पास सिमट आये थे और उस के पैरों से चिपके खड़े थे। आशा को वस्तुस्थिति का कुछ कुछ भान सा प्रतीत हो रहा था। कोने में पड़े मंगलसूस्त्र पर नजर पड़ी तो सिसकी निकल पड़ी। उसने हाथों की चूड़ियाँ भी उतारकर वही डाल दी। बच्चों का हाथ पकड़ कर हताश कदमों से बाहर की ओर चली, सहकर्मी ने उस का बैग और पानी की बोतल उठा ली। फाटक के पास आ कर उसने मुड़ कर वापिस देखा, उस का आशियाना उजड़ चुका था, आज सब कुछ सदा के लिये छूट रहा था। जिस का हाथ पकड़ कर मान और उल्लास के साथ इस घर की देहरी लॉघ कर गृह प्रवेश किया था, आज वही मिट्टी में मिल गया था।
धन वैभव के मद में चूर पार्वती देवी ने न उस के अस्तित्व को मान दिया था, न उस की भावनाओं को। यहाँ तक कि अपने वंश के रक्त को भी ठोकर मार दी थी। वहीं पर मौजूद रहते हुए भी पति की मृत देह का अंतिम बार दर्शन तक न करने दिया, कोई इतना क्रूर और हृदयहीन कैसे हो सकता है। स्वयं स्त्री होते हुए भी भावशून्यता।
आँसुओं के सैलाब में डूबती उतराती वह मुड़कर आगे बढ़ चली!
स्त्री की शक्ति को कभी भी कम नहीं ऑकना चाहिये। आवश्यकता पड़ जाये तो वह ऐसा कुछ भी कर गुजरती है जिस के विषय में सामान्य स्थिति में उस के मन में कभी विचार भी नहीं आता होगा। आशा एक साधारण परिवार की सुशील लड़की थी। बहुत सुकोमल और नम्र स्वभाव था उसका, खुशमिजाज और मिलनसार थी। किसी कठोर निर्णय या कठिन काम करना उसके वश में न था। किंतु उसी समय उसने निर्णय कर लिया कि इस तिरस्कार को अपनी शक्ति, प्रेरणा और प्रोत्साहन बनायेगी।
आशा ने मन ही मन निश्चय कर लिया, वह हार नहीं मानेगी। उसे साहसी बनना होगा, वह संसार को अपने अस्तित्व और अपनी उपस्थिति के सम्मुख नतशिर होने पर विवश कर देगी। क्या हुआ जो आज बेघरबार बेसहारा है। खुला आसमान उस का स्वागत करने को प्रस्तुत था।
उसने अपने आँसू पोछ लिये और मज़बूती से बच्चों के हाथ पकड लिये l इस समय आशा के मुख पर कठोर निश्चय की आभा थी और पैरों में आगे बढ़ने का उत्साह… ।
मंजुला महंती
भुवनेश्वर, भारत