जाले
“अरे! धीरे…धीरे।”
“हाँ, धीरे ही चल रही हूँ,” चमाचम चमकते टाइल्स की फर्श पर फिसल-फिसल जा रहे थे स्तुति के पैर। मोहित ने उसको कंधों से थाम लिया।
“एकदम घबराना नहीं है मिनी।…सिस्टर! डॉ. अमला कितने बजे तक….?”
“बस पंद्रह मिनट बाद।”
संक्षिप्त उत्तर! रिसेप्शनिस्ट बिजी। बारी-बारी से बजते कॉल को रिसीव करती रिसेप्शनिस्ट को अनुमान नहीं, मोहित कितना बिजी व्यक्ति है। उसका पल डॉ. के पल से लाख ज्यादा कीमती है। एक-एक क्षण मूल्यवान ! उसने कंधे से थमी स्तुति को एक बेंच पर बिठा दिया। रॉट आइरन की वह बेंच भी चममच चमकती हुई। चमकता कालापन। बड़े बिजनेस मैन मोहित की बीवी किसी साधारण क्लिनिक में तो जा नहीं सकती। मोहित लपककर फिर रिसेप्शनिस्ट के पास जा पहुँचा।
“और कितनी देर?”
“थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा।”
वह पूर्ववत बिजी। आँख उठाए बिना कहा,
“डॉ. घर से निकल पड़ीं हैं। पहले आप नम्बर ले लें। मरीज को पानी पिलाते रहें। घर से पानी पिलाकर लाए हैं ना? ब्लैडर एकदम फुल होना चाहिए।”
“यस!…पर प्लीज! डॉक्टर के आते ही। मैं बहुत देर वेट नहीं कर सकता।”
“वेट तो करना पड़ेगा। पहले से चार मरीज बैठे हैं।”
उसने एक नजर देखा। सुर बदल गया, “सर!…सर! मैं एक पेशेंट के बाद आपको भेज देती हूँ। फर्स्ट पेशेंट इज सीरियस।”
स्तुति देखने लगी। गर्भभार से बोझिल देह। औरतें चल नहीं पा रही हैं। लेकिन उत्साह से चेहरा गुलाब हुआ जा रहा है। बाहर अमलतास की बेल लहरा रही है। विशाल पाए पर चढ़ी इठलाती बेल! धूप का एक कतरा उससे अठखेलियाँ कर रहा है। रोशनी के टुकड़े-टुकड़े एहसास से वह उद्भाषित।
“मेडिकल साइंस कितना डेवलप कर गया है। किसी तरह का बोझ लिये बिना निर्णय करने की समझदारी! फैमिली प्लानिंग भी साथ में। नो टेंशन, नो प्रॉब्लम !”
मोहित उसके पास आकर कह रहा था। वह देख ही नहीं पाई, कब आया। स्तुति बेचैन,
“अरे आप?और कितनी देर है? पेट में पानी एकदम…।”
“अभी और पानी पीना है। लो यह बॉटल। न…ना मत कहो, तुरंत सोनोग्राफी चाहिए है ना?”
तब तक बाहर की सरगर्मी बताने लगी, डॉक्टर अमला आ गई। सब उठकर खड़े हो गए। स्तुति को लग रहा था, तुरंत अंदर जाए, नहीं तो टॉयलेट जाने की जरूरत। पर यही इंस्ट्रक्शन है, अत्यधिक जोर से टॉयलेट लगने के बाद ही ठीक से अल्ट्रासाउंड हो पाएगा। नहीं तो स्पष्ट दिखलाई पड़ेगा कठिन।”
मोहित बाहर निकल आया। क्लीनिक के बाहर बोर्ड पर लिखा हुआ है,
लिंग परीक्षण करवाना कानून जुर्म है। यहाँ लिंग परीक्षण नहीं किया जाता।
उसे हँसी आ गई। उसकी हँसी में हिकारत।
“हुँह! कानूनन अपराध…!”
आये दिन बीसों पेशेंट अल्ट्रासाउंड कराने आते हैं। कोई फेफड़े का, कोई पेट का। कोई छाती के दर्द से दुहरा हो रहा होता है, किसी को पेट में अल्सर की शिकायत, कोई गॉल बल्डर में पत्थरी के कारण, किसी के किडनी में स्टोन।
किसी को सीधे या उल्टे बच्चे की, किसी को बेटा या बेटी की पहचान चाहिए। डॉ. अमला के लिए सामान्य बात !
नित्य दसों केसेस भ्रूण जाँच के. डॉ मोहित ने बोर्ड पर फिर एक निगाह डाली और सिगरेट का पैकेट निकाल लिया। गौर से वैधानिक चेतावनी पढ़ी, ‘सिगरेट स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।’
मुस्कुरा दिया। गहरी मुस्कान !
कुछ ही देर में अंदर से उसका नाम पुकारा गया। डॉ. अमला डॉ. बीना का प्रेस्क्रिप्शन देखने लगी। फिर अल्ट्रासाउंड मशीन पर आँख गड़ाए हुए क्या-क्या फीड करती रही।
“आप सीधे लेट जाएँ।”
स्तुति ने झट आज्ञा का पालन किया। पेट पर जेल लगा। डॉ. अमला का दाहिना हाथ उसके पेट पर चलने लगा ।
“आपने ठीक से पानी नहीं पिया?”
“खूब पानी लिया है।”
“और पीतीं, तो और स्पष्ट दिखलाई पड़ता।”
स्तुति उलटकर स्क्रीन पर देखने की कोशिश करने लगी।
“न…. नहीं। हिलिए मत।”
सारे पर्दे खींचे हुए। सामने की ख़ामोश आसमानी दीवार पर बच्चे के चित्रवाला बड़ा-सा पोस्टर मायूसी को धत्ता बता रहा था। स्तुति को याद आया, “हरा रंग हरियाली, उल्लास का प्रतीक ! आत्म-विश्वास का भी। इसीलिए क्लिनिक, हॉस्पिटल में हरे रंग के पर्दे लगे होते हैं।”
कभी पापा ने बताया था। उसने अपना ध्यान कमरे के हरे पर्दों पर लगा लिया। उसके मन के आँगन में भी हरियाली छाने लगी।
“उठ जाइए।”
वह एक गुड़िया। चाभी से चलनेवाली गुड़िया! जितना चाभी भरो, उतना ही काम। उससे ज्यादा नहीं। जब चाभी भरो, चालू। वह उठ गई।
“डॉ. क्या है?”
“शाम के सात बजे रिपार्ट ले लें।”
“क्या है डॉक्टर? लड़का या…?” डरते-सहमते हुए बस अधूरा वाक्य !
“अभी बताना मुश्किल है। शाम को रिपोर्ट में देखना!”
और एक चुप्पी ! अमानुषिक चुप्पी !! मतलब दिमाग मत खराब करिए। या मेरा पीछा छोड़िए। या और भी रोगी लाइन में हैं। या एक हजार में आप इतना टाइम किल कर रही हैं! या अब जाइए प्लीज !…प्लीज नहीं, जाओ। बस !
कौन कहता है, “डॉ. और मरीज में फूल और खुश्बू की तरह रिश्ता होता है। दोनों को एक-दूसरे को समझना चाहिए। तब रोगी को संतोष मिलता है। कौन कहता है? संभवतः पापा कहते थे।”
स्तुति अपनी फाइल सँभालती बाहर आ गई। बाहर की प्रतीक्षा, उत्सुकता चरम पर! मोहित लपकता पास आया।
“डॉक्टर ने कुछ कहा?”
उसने सिर्फ सर हिलाया।
“ना, नहीं।”
“अरे! कुछ तो बताना चाहिए।”
“कहा, शाम को। रिपोर्ट में सब लिखा रहेगा। आपकी डॉ. बताएँगी।”
दप् से उम्मीदों के दीप बुझे। उसने अंदर जाकर वही सूट, आभिजात्य चमक का रोब दिखलाना चाहा। दाल के गलने के आसार नहीं। उसके नीले कोर्ट, सफेद शर्ट-पैंट ने अपमान का घूँट भरा, नीली छींटदार टाई ने भी। चारा न था। शाम तक वेट करना ही पड़ेगा। वह स्तुति को बाँहों से पकड़कर आगे बढ़ आया।
थोड़ी देर में ही बैगनआर फर्राटा भरने लगा।
शाम को डॉ. बीना का नर्सिंग होम पहुँचे दोंनो। डॉ. बीना का क्लिनिक डॉ. अमला के क्लिनिक से ज्यादा बड़ा ! ज्यादा लक्जरियस! ज्यादा खूबसूरत! ज्यादा पैसे देनेवाला दुधारु गाय। डॉ. बीना की जिद, “अल्ट्रासाउंड केवल डॉ. अमला के क्लिनिक में कराना है।”
“खाओ-खाओ सब। खूब खाओ कमीशन!”
स्तुति की चिड़चिड़ाहट है मोहित पर। कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना!
“आजादी के बाद बस खाने की प्रवृत्ति बढ़ी देश में। जिसको देखो, पैसे बना रहा है।”
वह अक्सर कहती।
“हर दिशा पैसा बनाने की फैक्टरी में तब्दील हो गया है।”
एक बार कहा था तो मोहित की मीठी प्रतिक्रिया थी,
“पैसे के बिना आज कहीं पूछ भी नही होती।”
“लेकिन पैसा संबंधों पर हावी हो रहा है।”
लौटते वक्त ही तीसरे दिन का अपॉइंटमेंट ले लिया मोहित ने।
“सोच-विचार का टाइम नहीं है। आई हैव ऑलरेडी लॉस्ट मेनी टाइम्स! और देर करने से कंप्लीकेशन्स बढ़ जाएँगे।”
“अपनी ही बच्ची की हत्यारिन… नहीं… नहीं। हम जितने सभ्य-शिक्षित होते गए हैं, उतने ही असभ्य और नए औजारों से लैश भी हो गए हैं।”
स्तुति ने इंकार करने की कोशिश की।
“स्तुति! डोंट बी सिली! गनीमत है, अब पहले ही पता चल जाता है।”
“अभिशाप है। हम जितना आगे जा रहे हैं, उतने ही पीछे।”
स्तुति ने पेट पर हथेलियाँ रखीं। उसकी हथेलियों में किसी की हलचल।
“हर सदी में वही…पहले नमक खिलाकर या गला दबाकर जीवित नवजात कन्या को…खुद पैरेंट्स अपराधी…ओह!…और अब यह सोनोग्राफी!”
मोहित ने कीमती जूतोंवाले आधुनिक पाँव पटके।
“सोनोग्राफी तो इस युग का बिग गिफ्ट है।”
उसके मुँह से अधूरा वाक्य,
“बिग साजिश का हिस्सा…।”
“ओह! मिडिल क्लास मेंटलिटी गई नहीं अब तक।”
सुन-सुनकर पक गई है, मिडिल क्लास… मिडिल क्लास… ये क्लास क्या होती है?
“एक दिन लोग बेटियों के लिए तरसेंगे।”
ऐसा सिर्फ स्तुति सोचती है। मिडिल क्लास की ओल्ड मेंटलिटी! निर्धन घर की स्तुति, जिसकी कभी सुनी नहीं जाती।
मोहित ने साम-दंड-भेद से अंततः मना लिया स्तुति को।
न जाने कितनी स्तुतियाँ मानती रही हैं। कुछेक तो स्वेच्छा से भ्रूण परीक्षण कराती हैं। हर तबके की। फिर एक हत्या पेट में ही हो जाती है।
तीसरे दिन दोंनो पुनः डॉ बीना की लक-दक सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे।
ठंडी, बर्फ-सी सफेद चादर। ऑपरेशन टेबल पर लाश-सी स्तुति। ‘क्या नीचे बिछी श्वेत चादर कफन नहीं?’
श्वेत चादर में खून के धब्बे !
‘कफन नीचे क्यों बिछा है? इसे तो मेरे ऊपर होना चाहिए।’
उसे अक्सर लगता है, हर तरफ हैं दबे-घुटे संबंध। डॉक्टर-मरीज के भी। लालच ने सारे शपथों पर उजली चादर डाल दी है। सेवा का क्षेत्र भी आज अपनी शपथ पर साफ-बुर्राक कफन डालकर सो चुका है।
याद है उसको भतीजी कुनिका का जन्म।
डॉ. चंद्रा के खपरैल घर में कुनिका हुई थी। घर में ही थे दो-चार कमरे। आधे-अधूरे, टूटे-फूटे छप्परपोश बरामदे में ही कई रोगियों का बेड। जेनरल वार्ड। छोटे घरेलू कमरे, प्राइवेट वार्ड। एक में अपर्याप्त साधनों के साथ ऑपरेशन टेबल।
और धड़ाधड़ सिजेरियन ऑपरेशन ! कैसी सेवा? कहाँ गया शपथ? कुनिका के जन्म के पहले सब नॉर्मल था। भाभी की चाल-ढाल। उनकी गप्पें। उनकी हँसी…सब नॉर्मल। वह साथ थी। रात को अचानक खबर आई,
“बहू को बेटी हुई।”
“नॉर्मल हुआ न? मैंने कहा था, यह डॉक्टर अच्छी है।” स्तुति का फोन पापा ने रिसीव किया था।
“कहाँ बेटे! अचानक बच्चा पेट में सुस्त हो गया था। बच्चे का हार्ट बीट एबनॉर्मल था। सिजेरियन करना पड़ा।”
“पर पापा, भाभी तो एकदम ठीक थी।”
“बच्चे की जान को खतरा था।”
“धत् ! किसी और से पूछ तो लेते।’
“टाइम कहाँ था। तुम मोहित जी को बता देना। किसी को लेकर आ जाओ।”
“उफ् ! ये डॉक्टर्स…!”
स्तुति की आँखों में अफसोस।
आज वहाँ शानदार, विशाल बिल्डिंग खड़ी है।
खीज उठी स्तुति। उसके चेहरे पर विरक्ति, चाहत का मिला-जुला भाव नाच उठा।
‘जो करना है, करो जल्दी। मैंने तो सरेंडर कर ही दिया। कब नहीं रखी मोहित की जिद। पर जिद की भी सीमा होती है।’
पर कुछ भी हो, स्तुति उसे दिलोजान से चाहती है।
‘बहुत भावक हूँ न मैं? आज के माहौल में एकदम मिसफिट? मिडिल क्लास मेंटिलिटीवाली?’
मोहित ने इस चार सालाना वैवाहिक जीवन में पहली बार इतनी शिद्दत से कुछ माँगा था। उसे देना था। उसने देने का वादा किया था।
फॉक्स लाइट की तीखी चुभन। नर्सों, वार्ड ब्वॉय की दखअंदाजी।
‘चल, थोड़ी देर और साथ रह लें।’ पेट पर दाहिना हाथ रखकर सहलाने लगी।
ओ. टी. का दरवाजा खुला और ऐनेस्थिसियावाले ने उसको एनेस्थिसिया का डोज देना शुरू कर दिया।
उसके अंदर नशा छाने लगा, नसों में सुस्ती।
“ऐई! हटो…हटो…पेशेंट को तंग मत करो।”
“किसे बेवकूफ बना रही हैं डॉक्टर?”
‘मोहित! मैंने तुम्हारी बात मान ली।पर मुझे स्नेहा ही चाहिए थी।’
बेहोशी दबोचने के लिए आती हुई…अँधेरे की अतल गहराइयाँ, रोशनी की लकीरें। फिर कुछ भी अनुभव करने में असमर्थ बेहोश स्तुति।
बाहर से आकर सामने मोहित खड़ा हो गया। गाड़ी की आवाज स्तुति ने सुनी ही नहीं। पता नहीं क्यों, आजकल मोहित से उसे कैसा तो भय लगने लगा है। वह उसे अपना नहीं लगता ।
“क्या है स्तुति? देखें।”
स्तुति का हाथ सपाट पेट पर।
आजकल स्तुति को उसकी आवाज का मक्खन बहुत चुभता है।
“अरे! यह क्या?”
सामने स्तुति का मन बिखरा पड़ा है। झबले, गुड़िया, फ्रॉक, बुने हुए मोजे, सिलाइयों पर चढ़ी अधबुनी ऊनी फ्रॉक।
“माजी को माजी न बनाया तो…।”
मोहित के मन में इज़ाज़त फिल्म का डॉयलॉग कौंध रहा था।
“चलो स्तुति, कहीं आउटिंग के लिए।”
उसने न कहा, न हाँ!
थोड़ी देर बाद वे पसंदीदा जगह पर थे। बंगले से काफी दूर यमुना नदी का किनारा दोनों को बहुत पसंद। घर से एक घंटे की दूरी और बस पेड़ों-लताओं से घिरा नदी-तट सामने। वह अपनेआप में खोई, नदी की ओर बढ़ती गई। मोहित ने टोकना उचित नहीं समझा।
“आखिर कौन सा अनोखा काम कर दिया मैंने। इतना सेंटी होने से काम चलेगा?”
कहना बहुत कुछ चाहता है। मौके और समय की तलाश है।
और समय होता, स्तुति उसके पैरों के निशान पर पाँव रखकर चल रही होती। कंधों को दोनों हाथों से थाम, बेवजह खिलखिलाती बेहद।
मिनी के हाथ में बच्चे के लिए खरीदी और बुनी गईं चीजें थी। यमुना में बहाने के लिए। आगे बढ़ती स्तुति का पैर किसी चीज से टकराया। हाथ से पॉली बैग छिटककर मटमैली यमुना में जा गिरा।
बदहवास स्तुति ने झट उसे उठा लिया। कपड़े में लिपटी एक मासूम बच्ची! मोहित भी पास जा पहुँचा। उसकी पैंट के दोनों पाँयचे भीग गए।
“अर…अरे! क्या है? फेंको इसे। पता नहीं, किसका पाप है!”
“नहीं! मत कहो इसे पाप।”
पूरी शक्ति से चीखी।
“फेंक दो इसे।”
“नहीं!”
उसके हाथों में खिलौना, हल्की-हल्की साँसें लेती हुई। जीती -जागती खिलौना। छोटे-छोटे हाथ, छोटे-छोटे पैर! छोटा-सा मुँह, छोटे-छोटे गुलाबी होंठ। नीला पड़ता चेहरा। उसकी कल्पनावाले अंग।
उसके मुँह से अस्फुष्ट ध्वनि,
“स्नेहा! मेरी स्नेहा!” स्तुति ने सीने से चिपटा लिया। एक शब्द मोहित के पल्ले नहीं पड़ा।
माँ का दिल होता, तब जानता कि स्नेहा अब भी करवट लेती है, लात मारती है, पलट-पलट जाती, अब भी हँसती-तुतलाती है, पइयाँ-पइयाँ चलती है माँ के भीतर।
स्नेहा को कलेजे से चिपकाए वह यमुना से बाहर आ गई।
अनिता रश्मि
रांची, भारत
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