दूसरी फूलो

दूसरी फूलो

आज अचानक से फूलो का चेहरा मेरे सामने कौंध गया और फ्लैश बैक की तरह उसका जीवन परत-दर-परत खुलने लगा। उसका वास्तविक नाम फूलवंती था पर, उसके जीवन में सुगंध का कहीं नामों निशान तक नहीं था। बाल्यावस्था में ही उसने मां को खो दिया था । पिता शादी कर दूसरी मां ले आये थे । सौतेली होते हुए भी थोड़ा-सा प्यार वह जरूर फूलो को देती थी पर, अपना न होने का दर्द जरूर उसे खलता था। एक बहन भी थी परन्तु, दुर्भाग्य ने उसे असमय ही निगल लिया था । उसका जीवन नीरस हो चुका था ।जैसे-तैसे उसका पालन होता गया। कभी नानी के यहां तो कभी पिता के यहां । इस परवरिश का प्रभाव भी उसके व्यक्तित्व पर स्पष्ट दिखाई देता था।खैर, वक्त बीतता चला गया वो सयानी हो गई। उसकी शादी एक समृद्ध परिवार में हो गई।लड़का गहरा सांवला, नाटे कद का तथा इंटर पास था। जिद्दी इतना कि आगे पढ़ने की कोई उत्सुकता नहीं। दूसरे व्यक्ति में खामियां खोजता और स्वयं को खामियों से युक्त रहते हुए भी सर्वगुणी समझता। फूलो की दर्द भरी दास्तान यहीं से शुरू होती है। हालांकि, उसका ससुराल समृद्ध था।ससुर खादी ग्रामोद्योग भंडार के मैनेजर थे, जेठ उच्च विद्यालय के शिक्षक, पति खुद अच्छे खासे जमीन का किसान। भरा-पूरा संयुक्त परिवार था। किसी चीज की कमी नहीं थी। अगर कमी थी तो पति द्वारा मिले प्यार की। उसका अनुचित व्यवहार उसे बहुत दु:खी करता। उसके मायके वाले आश्वस्त थे कि अच्छा परिवार मिला है। पर वे उसके पति के व्यक्तित्व से अपरिचित थे।

वक्त धीरे-धीरे निकलता गया। दस वर्ष बीत गये पर फूलो की कोख नहीं फूली।वह चिंतित रहने लगी। पति की प्रताड़ना उसकी चिन्ता को और बढ़ा देती थी। सास-ससुर एवं जेठ-जेठानी का सहयोगात्मक रवैया उसे सुकून देता पर पति का ताना उसके व्यवहार को नकारात्मकता प्रदान करता। लालन-पालन ठीक से न होने के कारण उसके व्यक्तित्व में कई अवांछनीय चीजें शामिल थीं। कटुवाणी की वो धनी थी। शायद प्यार मिला नहीं इसलिए वो प्यार देना भी नहीं जानती थी। ईर्ष्या की भावना उसमें प्रबल थी। घर का सारा कार्य-भार संभालती उसके बावजूद उसे सहानुभूति नहीं मिलती थी। एक लेखक का कथन है कि स्नेह पाना है तो स्नेह देना भी होगा। पर ज्यादातर यही देखा जाता है कि व्यक्ति के अन्दर स्नेह देने से ज्यादा स्नेह पाने की ललक होती है। उसके अन्दर भी यह भाव झलकता था। स्नेह उसे मिलता पर उसकी अभिव्यिक्ति की शैली उसमें सबसे बड़ी बाधा थी।आदर और प्यार क्या होता है उसके व्यक्तित्व में कहीं नजर नहीं आता था।

संतान व्यक्ति की सबसे बड़ी इच्छा होती है। नि:संतानता किसी भी स्त्री के लिए असहनीय दर्द है। लोगों के ताने और संतान के इंतजार से वो थक गई थी। अंत में उसके जेठ ने सलाह दी कि पटना के सबसे अच्छे प्रसूति डॉक्टर से दोनों इलाज करा लो। फूलो का इलाज चलने लगा और उसका प्रतिफल ये हुआ कि कुछ ही दिनों में वह माँ बनने वाली थी। उसके परिवार में खुशी का ठिकाना न रहा जब उसकी पहली बेटी हुई। इसके बाद तो कुछ वर्षों के अंतराल में दो बेटियां और पैदा हुईं। लगातार तीन बेटियों के बाद उसे बेटे के लिए काफी इंतजार करना पड़ा क्योंकि अब उसका पति पुत्र के लिए ताना देने लगा। कभी-कभी तो ऐसा होता था कि क्रोधित होकर पत्नी को पीट देता था। जब तीसरी बेटी पैदा होनेवाली थी तब उसने उसके गर्भ पर लात मार दी थी। पर औरत सिर्फ औरत होती है–लाचार, बेबस, सब कुछ सहती रही।

तीसरी बेटी के सात वर्ष बाद उसका पहला पुत्र पैदा हुआ उसके बाद दो पुत्र और। इस तरह फूलो तीन बेटियों और तीन बेटों की माँ बन गई। अब उसे लगा कि उसका जीवन सुखमय होगा पर सुख उसके नसीब में था कहां। दिनभर घर-गृहस्थी का कार्य, बच्चों का लालन-पालन, भोजन कार्य एवं रात में पति की सेवा वह पिसकर रह गयी थी।उसके देह में जान नहीं बची थीं। इस बड़े घर के आँगन में उसकी भावनाओं को समझने वाला कोई नहीं था।

वक्त के साथ उसके बच्चे बड़े हो गये पर माँ से सेवा की अपेक्षा रखते थे। सेवा या मदद करने की भावना उनमें नहीं थी। कभी-कभी तो ऐसी जिद्द करते कि वह पति और बच्चों के बीच दब जाती। जेठानी के बच्चे सब कुछ देखते। समय-समय पर मदद भी करते पर उनको झिड़क देती। बच्चे मायूस हो जाते और दूरी बनाकर रखते। पड़ोसी होने के नाते मैं सबकुछ मूक रूप से देखती रहती थी। उसके जीवन की सारी घटनाएं मेरे अंदर उमड़ती-घुमड़ती रहतीं।

धीरे-धीरे मैं बड़ी हो गई और उच्च शिक्षा के लिए बड़े शहर में चली गई। वहां शहर के सबसे प्रसिद्ध महाविद्यालय में अध्ययन करने लगी। अध्ययन के साथ मानसिक क्षमता का विकास होने लगा। फूलों का जीवन मेरे अंदर छाया की तरह घूमता रहता। ऐसा लगने लगा कि वो अनपढ़ है, अज्ञानी है, वैचारिक क्षमता नहीं है इसलिए उसके साथ अत्याचार हो रहा है। पर बात ऐसी नहीं थी। जिस शहर में मैं रह रही थी उसके आस-पास की बहुएँ और लड़कियां उच्च डिग्रीधारी थीं, वाक् पटु थीं, सभ्य, सहनशील थीं पर उनके साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जाता था। कभी-कभी मन में आता कि शिक्षित होना अच्छा है या अशिक्षित होना। अशिक्षित महिला अज्ञानता के कारण दु:ख झेल रही है,अत्याचार सह रही है पर शिक्षित महिला को भी उसी कोटि में रखा गया। क्या महिला का दूसरा पर्याय अत्याचार सहना है? यदि ऐसा है तो लोग माँ दुर्गा को क्यों पूजते हैं? जो शक्ति की प्रतीक हैं।

कभी-कभी मैं छुटि्टयों में गांव जाती तो फूलों की खबर जरूर लेती थी और वहां की स्थिति देख असहज हो जाती थी। अब वह अपनी दो बेटियों की शादी कर चुकी थी। तीसरी बेटी अभी छोटी थी, बेटे सभी कुपात्र। फूलो का शरीर केवल कंकाल बचा था। पता चला वह कैंसर नामक गंभीर बीमारी से ग्रसित है। उसके परिवार वालों ने इलाज कराया पर तब तक देर हो चुकी थी।वह सिर्फ दो महीनों की मेहमान थी। मुझे उसके बच्चों पर बहुत तरस आया। मैं मिलने गयी। उसने बताया हमारे बच्चों को कौन संभालेगा और रोने लगी। जीवन में मिले घाव ने उसके अंदर विरक्ति भर दी थी।वह मुक्ति पाकर उबरना चाहती थी। बच्चे आपस में झगड़ते पर सेवा नही करते, बेटियां माँ की अस्वस्थता के कारण गृह कार्य के लिए झगड़ती रहती थीं। उसका इस संसार से मन भर गया था। असमय ही वह इस संसार से विदा हो चली। मुझे बेहद दु:ख हुआ पर कुछ न कर सकी। छुट्टियां खत्म होने पर मैं पुन: शहर आ गई। अपने दोस्तों के साथ अध्ययन में रत हो गई। मैं अर्चना, विभा, सविता मृदुला और कविता एक साथ पढ़ते थे। हम सब पीजी कर चुके थे। किसी की शादी हो गई थी, किसी की शादी की तैयारी चल रही थी, कोई नेट की तैयारी कर रही थी। अर्चना की शादी पहले हो गई थी, अत: वह माँ भी बन गई थी।सविता पी. जी. करके प्राइवेट विद्यालय में अध्यापन करने लगी। वह बहुत ही मृदुभाषी व स्वतंत्र विचार की लड़की थी। आदर्श एवं यथार्थ का अच्छा समन्वय था उसमें। वह संवेदनशील भी थी। अपने परिवार में इन्हीं गुणों के कारण सबकी प्यारी थी। सामान्य कद-काठी एवं नयन-नक्श होते हुए भी वह सबका दिल जीत लेती। जिस विद्यालय में वह अध्यापन रत थी वहां के लोग उसे काफी स्ने‍ह और सम्मान देते और बच्चों का तो पूछना नहीं वे खुशी से गृहकार्य करते और पाठ याद करते थे।

फिर एक दिन सबकुछ बदल गया। उसकी शादी तय हो गई। लड़का प्राइवेट जॉब कर रहा था। शरीर से पुष्ट एवं व्यक्तित्व से सुंदर था। सविता अपने को धन्य मान रही थी। बड़े धूम-धाम से शादी हुई और सविता अपने पति के साथ महानगर चली गई। पति के व्यवहार से वह काफी खुश थी। उसे लगा कि उसका सपना साकार हो गया। हालांकि उसके पति की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी पर दोनों संतुष्ट थे।

शादी के एक साल बाद उनका प्यारा बच्चा उनके जीवन में आ चुका था। अब आय कम और व्यय अधिक की स्थिति थी। उसके पति में चिड़चिड़ापन जन्म लेने लगा। बात-बात में गुस्सा करता, झल्लाता तथा कभी-कभी तो हाथ भी उठा देता। सविता सहम जाती तथा अंदर ही अंदर टूटने लगी। उसका व्यक्तित्व दासता की बेड़ियों में जकड़ने लगा। उन्मुक्त विचार की सविता सबकुछ झेलते हुए कुंठित रहने लगी।

अपनी शिक्षा के माध्यम से वह सहयोग करने की राय देती पर जवाब में अहं भरा प्रतिकार मिलता। इस स्थिति को देखकर फिर मुझे फूलों की याद आ गई। उसको देखकर लगता था कि उसका व्यक्तित्व ही उसका बाधक है पर सम्य और सहनशील सविता को देखकर महसूस होने लगा कि व्यक्ति का व्यक्तित्व नहीं समाज की व्यवस्था बाधक है। नारी को दबाकर रखने की प्रथा शिक्षा से संबंधित नहीं वह तो पुरूष मानसिकता की सोच है।

सविता अन्दर-ही-अन्दर खोखली होती जा रही थी। घर का संचालन, बच्चे का पालन और पति का प्रताड़ना ये सब सहते हुए वह नितांत अकेली हो गयी थी। मायके का साथ छुट चुका था, समाज से रिश्ता कट चुका था, बचा हुआ था कोख और सुहाग का रिश्ता जिसे वह बखूबी निभा रही थी।

पर, मैं देख रही थी उसके अंदर की फूलो को। मेरे सामने यह दूसरी फूलो अंधकारमय भविष्य के बीच कुछ टटोलने की कोशिश कर रही थी और मैं ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि हे ! प्रभु ! इसका भविष्य उज्जवल कर दें।

डॉ विनीता कुमारी

पटना,बिहार

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