कैक्टस

कैक्टस

मन को किसी करवट चैन नहीं मिल रहा।बहुत चाव था,बेटे को डॉक्टर बनाने का।क्या कमी की मैंने।अच्छी से अच्छी कोचिंग दिलवाई।

कोचिंग सेंटर आने-जाने के लिये,साहेबज़ादे अड़ गये,बाइक चाहिये,वो भी दिलवाई।

ये दूसरा साल था मेडिकल के एंट्रेंस एक्जाम में बैठने का उसका।इस वर्ष भी क्लीयर न कर पाया।उसकी इन असफलताओं का भले ही उस पर कोई असर न पड़ा हो पर मेरा मन कहीं से दरक गया।आखिर कहाँ,किस जगह मुझसे गलती हो गई।बहुत अधिक लाड़-प्यार या शायद मेरा उसके प्रति अति-महत्वकांक्षी हो जाना।

दिदिया का फोन आया ।दिदिया मेरी बड़ी बहिन।माँ तो मुझे दो वर्ष का, दिदिया की गोद में छोड़ अनंत यात्रा पर चली गई थी।मेरे लिये तो माँ,बहिन जो भी मान लें, दिदिया ही थी।

दिदिया उस समय पहिली कक्षा में पढ़ती होंगी।वो मुझे गोदी में लेकर अपने साथ स्कूल ले जाती। मुझे पास में बिठा लेती।कागज़ की पुड़िया में बँधे मुरमुरे और गुड़ भेली मुझे थमा देती,मैं आराम से खाता वो पढ़ाई करती।हाँ, कभी कभी मैं चोरी से उसकी खड़िया लेकर चाटता,पकड़े जाने पर हल्की सी धौल मेरी पीठ पर लगा देती,फिर अपनी फ्रॉक से मेरा मुँह पोंछती।

गाँव के मेले-ठेले में कई तरह के झूले लगते।एक बार स्कूल से लौटते हुए लकड़ी के झूले के सामने मैं रुक गया।ज़िद कर बैठा झूला झूलने की।दो पैसे में झूले के चार चक्कर,(नीचे से ऊपर फिर नीचे) झूलेवाला लगवाता। बहुत मज़ा आता जब झूला ऊपर से नीचे की ओर आता।दिदिया ने अपना बस्ता देखा।दो क्या एक भी पैसा नहीं था उसमे।मेरा रोना,मचलना बदस्तूर जारी था।दिदिया की आँखों में निरीहता थी ।वो झूले वाले से बार बार कह रहीं थीं “ओ झूले वाले भईय्या,मेरे भाई को आज अपने झूले में बिठा लो,मैं कल तुम्हें पैसे दे दूँगी।”झूले वाला बोला”तुम इसके जूते मेरे पास रख दो।कल आकर पैसे दे देना और जूते ले जाना।”उसकी पूरी निगाह मेरे नये जूते पर थी।और मुझ पर तो झूला झूलने का भूत सवार था।मैं फटाफट अपने जूते उतारने लगा।दिदिया ने मुझे रोक दिया और अपनी चप्पलें उतार कर उसकी ओर बढ़ा दीं।शायद झूले वाले को सौदा बुरा नहीं लगा,उसने मुझे झूले पर बिठा लिया।दिदिया,गरम धूल,मिट्टी में नंगे पैर पैदल,मुझे लेकर घर लौटी।दूसरे दिन झूला वहाँ से उठ चुका था।मैं रास्ते भर सोचता रहा,जब पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बनूँगा तब दिदिया के लिये सुन्दर सी,लाल रंग की ,उँची एड़ी की सेंडिल खरीदूँगा,जैसे हमारे स्कूल की बड़ी बहिन जी पहनती हैं।

दसवीँ के बाद दिदिया के हाथ पीले कर दिये गये।वो पढ़ने में बहुत ज़हीन थी।पर बाबू की माली हालत ऐसी नहीं थी कि दो बच्चों की पढ़ाई का खर्च वहन कर सकें।फिर दिदिया की शादी भी करनी थी।

ससुराल चली गई दिदिया।

उसकी ससुराल सयुंक्त और सम्पन्न थी।इतनी बड़ी मिठाई की दुकान उस कस्बे में किसी की न थी।दिदिया के जेठ,देवर ससुर और पति दुकान संभालते और वे सभी हिस्सेदार भी थे,दुकान के।दिदिया जब भी मायके आती,मेरे लिये नये कपड़े और मिठाई लेकर आती।जाते समय मेरे हाथों में रुपये रखतीं,मैं उनके पैर छूता तो आशीर्वाद देतीं कहतीं–”खूब पढ़ना,बड़ा आदमी बनना।बाबू का ध्यान रखना।उनकी सेवा करना।”

मेरी इन्जीनियरिंग की पढ़ाई पूरी होते ही मेरा विवाह हो गया और साल भर बाद मैं एक बेटे का पिता बन गया।

दिदिया ने ही उसका नाम रखा-रोशन।रोशन का जन्म और मेरी सरकारी महकमे में नियुक्ति साथ-साथ ही हुई।रोशन तीन साल के हुए होंगे,दिदिया की ससुराल से खबर आई,मैं मामा बन गया हूँ ।गुड़िया हुई है।खुशियाँ जैसे झूम के बरस रहीं हों।दिदिया की शादी के लम्बे अन्तराल बाद उनकी गोदी भरी थी ईश्वर ने।

समय अपनी गति से चल रहा था।सब कुछ यथावत था…शान्त और स्थिर ।

अचानक परिस्तिथियाँ उलट गई।परिवार के एक मज़बूत स्तंभ के ढहते ही दीवारें आपस में टकराने लगी।दिदिया के ससुर का देहांत क्या हुआ भाईयों में त्याग और प्रेम की भावनायें इस कदर बिखरीं कि उनकी माँ भी उन्हें समेट न पाईं ।

जब भी बँटवारा होता है,अपनत्व तो विगलित होता ही है,समृद्धि भी श्रीहीन हो जाती है।कहते हैं,दुख कभी अकेला नहीं आता, बहुत सी परेशानी साथ लाता है,दिदिया को बेटी की तरह प्यार देने वाली उनकी ममतामयी सास नहीं रही।

वो दिन याद है मुझे ,गुड़िया के जन्म पर,अन्न-प्राशन के समय उनकी सास ने सोने की चम्मच से उसे खीर चटाई थी।दिदिया अक्सर कहतीं”अम्मा के प्राण तो गुड़िया में बसते हैं।”

जीजाजी की तबीयत भी ठीक नहीं थी।तपेदिक ने उनके स्वास्थ को जकड़ लिया था।अब वे अकेली दुकान संभालने के साथ छोटी कक्षा के बच्चों को पढ़ाने लगी थीं। पति की बीमारी और गुड़िया की पढ़ाई का खर्च।जीवन रण में योद्धा की भाँति लड़ना उन्होनें सीख लिया।

मेरी अच्छी खासी गृहस्थी थी।मैं, पत्नी और एक बेटा। आर्थिक रूप से संपन्न ।इतनी परेशानियों में भी उन्होनें मुझसे कोई सहायता नहीं माँगी,मुझसे क्या शायद किसी के भी आगे हाथ न फैलाया होगा उन्होनें।बहुत स्वाभिमानी रहीं वो।

आज फोन पर उन्होनें कहा”मुन्ना,मैं बहुत मुश्किल में हूँ,गुड़िया को सरकारी मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल गया है।पर फीस में कुछ रुपयों की कमी पड़ रही है,अगर तू हैल्प कर सके——-?”

वो बात पूरी भी न कर पायीं कि मैं बोल पड़ा”दिदिया,क्या बतायें ,कुमुद (पत्नी)की तबीयत ठीक नहीं।उसका इलाज़ चल रहा है।इधर जो नया फ्लैट लिया, उसकी किश्तें भी जा रहीं हैं।हाथ बहुत तंग है।वरना—।”सरासर झूठ बोल गया मैं ।

झूठ तो बोल गया।पर मन बेचैन हो गया।क्यों ऐसा कहा मैंने ?मन के पाप को पकड़ लिया मैंने। मेरे मन में ईर्ष्या का कैक्टस उग आया था ,हमारे सुपुत्र सारी सुविधाओं के बावज़ूद परीक्षा पास न कर पाये और दिदिया की बेटी ने असामान्य परिस्तिथियों में भी सफलता प्राप्त कर ली।

हाँलाकि इस असफलता और सफलता के बीच बहुत से बौद्धिक,मनोवैज्ञानिक कारण थे।पर मेरा मन तो एक ही जगह अटका था।गुड़िया पहली बार में ही परीक्षा में सफल हो गई और हमारे शहज़ादे—–।

दिदिया ने अगर गुड़िया के विवाह हेतु मदद माँगी होती तो मैं खुशी-खुशी उनकी मदद करता।पर—-

उनकी इस मदद की माँग ने जैसे मेरे मन के मर्म पर कैक्टस के काँटे चुभो दिये।

बहुत आहत हुआ मैं।

ये क्या?—-विचारों के झंझावात के बीच ममतामयी चेहरा मेरे सामने आ गया।उनकी आवाज कानों में गूंज गई ,—ए झूले वाले भईय्या,मेरे भाई को———।”उस माँ स्वरूपा बहिन के न जाने ऐसे कितने ऋण हैं मुझ पर।

मैने मोबाइल उठा लिया ,दिदिया के बैंक अकाउंट में पैसे ट्रांसफर करने के लिये।

सुनीता मिश्रा

भोपाल, भारत

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