निर्मला लौटेगी ज़रूर !

निर्मला लौटेगी ज़रूर !

हमारे शहर के इस हिस्से में यह तीन तल्ला,आलीशान पीली कोठी, वास्तुकला की अनुपम मिसाल है. जिसका,काले रंग का, ऊँचा सा भारी भरकम, कटाव-दार मुख्य दार है. लोहे की सर्पाकार सीढ़ियाँ, आबनूस की लकड़ी व रंगीन-सफेद काँच से बनी खिड़कियाँ-दरवाजे,

‘चायनीस-ग्रास’ से सजा कालीन-नुमा उद्यान,विलायती गुलाबों की क्यारियाँ, मुख्य द्वार पर प्रहरी व दो-दो शानदार गाड़ियाँ पीली कोठी वालों की आभिजात्य रूचि व सम्पन्नता का ढिंढोरा सा पीटती जान पड़ती हैं. खानदानी जमींदार व पेशे से ठेकेदार हैं, अमर बाबू !

शहर में उनका नाम है, सम्मान है. उनका पूरा नाम लार्ड अमर कांत सिंह है. लॉर्ड का खिताब उन्हें सरकार की तरफ से नहीं मिला है, वरन उनकी सम्पन्नता और अय्याशी के कारण उनके मातहतों और मित्रों ने स्वतः दिया है. कमलकांत उनका इकलौता लाडला चिराग है. उसकी परवरिश में उन्होंने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है. कमलकांत माँ की आँखों का तारा, बाप का दुलारा, अपार धन सम्पदा का इकलौता वारिस है. ठेकेदार का बेटा जब अव्वल नंबरों से पास होकर इंजीनियर बन गया तब माँ-बाप की आन-बान-शान में गुणात्मक इजाफा हो गया. लेकिन जब कमलकांत जवानी के जोश में आधुनिकता का चोला पहन, माँ-बाप की मर्जी के विरूद्ध, विजातीय लड़की निर्मला से विवाह कर उसे घर लाया, तब उसका स्वागत अपने ही घर में पूजा की थाली, राई-नोन का वारना, या गीत संगीत से नहीं, वरन, तानों, उलाहनों लांछनों के तीर तलवारों से हुआ. कमल की माँ खूब रोई और बकती जातीं थीं, — ‘‘घर का चिराग घर रौशन करता है, पर इसने तो काले धुएँ से (निर्मला साँवली थी. साथ ही नीची जाति की भी.) घर काला ही कर दिया.हे भगवान !!

वे दीर्घ निःश्वास छोड़ती, बुरा सा मुँह बनाती फिर बुदबुदाने लगती, – ‘‘मैं हार मानने वाली नहीं हूँ, मैंने भी इस नीची जाति वाली को मैके का मुँह न दिखा दिया तो भूमिहारिन न कहलवाउँगी.’

कभी-कभी उनकी आँखों से आँसू निकलने लगते, –‘‘हाय !! विमला की बेटी ! कैसी चाँद सी गुड़िया थी. दस लाख का दहेज देने की बात कर रहे थे. पर ……यह आजकल की पढ़ाई………चन्द दिनों साथ क्या पढ़ लिए, घर की मर्यादा ताक पर रख दी.’’

 फिर जैसे अपनी कमजोरी पर काबू पा लेती, शांत हो जाती और कठोर मन से सोचती, ‘‘अब आ गया है मेरा बेटा, देखती हूँ कितने दिन अपने जाल में फँसा कर रखती है, मैंने जना है उसे, मेरा कहा मानना ही होगा उसे.’’

निर्मला को घर से बहिष्कृत करने का जुनून कमल की माँ के सिर पर कुछ इस प्रकार सवार हो गया था, जैसे देश से अंग्रेजों को बाहर निकालने का भूत देशवासियों पर सवार हो गया था. शुरू-शुरू में निर्मला पर अप्रत्यक्ष रूप से छुप-छुप कर अत्याचार किए जाते थे. उदाहरण के तौर पर उसके साँवले रंग को लेकर,नीची जाति का ताना देकर, कभी ऊँची पढ़ाई से उत्पन्न अवगुणों की लिस्ट सुनाई जाती, तो कभी दान-दहेज न लाने के कारण भिखारी खानदान की बेटी होने का लेबल दिया जाता.

निर्मला सब सहन करती चली गई. कमल का व्यवहार भी पहले जैसा नहीं रह गया था. निर्मला यदि दबी आवाज में भी कोई शिकायत करती तो वह बात विस्फोट का रूप ले लेती. कमल की माँ की हिम्मत बढ़ती चली गई, फिर एक दिन बिना किसी विशेष बात के, अचानक निर्मला पर उनका हाथ उठ गया. प्रतिक्रिया में निर्मला कुछ देर रो-धो कर शांत हो गई, कमल को इस घटना की भनक तक न लगने दी.

दिन बीतने लगे, बस यूँ ही से…फिर निर्मला ने एक के बाद एक दो लड़कियों, मनीषा और अंकिता को जन्म दिया. दोनों लड़कियाँ हूबहू माँ की प्रतिच्छाया थी. वही नाक नक्श, वही रंग रूप. अब तो कमल भी वजह बेवजह निर्मला से उखड़ा-उखड़ा रहने लगा था. खानदान का इकलौता चिराग, पुत्र पैदा करके वंश आगे बढ़ाने में असमर्थ तथा अयोग्य सिद्ध किया जा रहा था. कमल को अपनी माँ की हर बात सही लगने लगी थी. उसे अपनी पसन्द व अपने निर्णय पर अफसोस होने लगा था, बचाव स्वरूप वह अधिकतर घर से बाहर रहने लगा.

कमल की माँ को खुली छूट मिल गई, निर्मला पर शारीरिक व मानसिक अत्याचार करने की ..निर्मला भी शारीरिक रूप से अस्वस्थ रहने लगी थी. बात-बात पर रोना और बच्चों को मारना-पीटना उसका स्वभाव बनता जा रहा था.

शादी के बाद से कभी भी निर्मला को अपने मायके जाने या उन लोगों से बात करने की इजाजत नहीं मिली। ऊंची जाति और बेहद रईस समधियों से निर्मला के माता पिता ने किनारा कर लिया था. शादी के बाद इतने ताने उलाहने सुने कि बेटी को उसके भाग्य के भरोसे छोड़ दिया था.कभी कोई खोज-खबर न ली..

मनीषा और अंकिता दोनों लड़कियों को कहाँ भेज दिया गया, निर्मला को कभी पता न चल सका. बहुत मिन्नतें करने पर कमल ने इतना बताया कि क्योंकि निर्मला बीमार रहती है इसलिए माँ ने लड़कियों की भलाई के लिए किसी रिश्तेदार के घर भेज दिया है..

निर्मला तड़प कर रह गई…

परिवार की प्रतिष्ठा और समाज में ऊँचे नाम की बेड़ियाँ, कमल की माँ को कोई पाश्विक कदम उठाने से रोक रहीं थी. बड़ी सूझ-बूझ तथा टी. वी. व फिल्मों से चुराए गए फार्मूले की तरह, उन्हें लगा कि यदि निर्मला पागल घोषित कर दी जाए तो उनका काम बन जाएगा. कमल का तलाक हो जाएगा और फिर वे उसका दूसरा विवाह अपनी पसंद से कर पाएंगी। .

अर्थ की महिमा और ताकत पर उन्हें पूरा भरोसा था.शहर के प्रतिष्ठित मनोचिकित्सक डाॅक्टर त्रिपाठी से इलाज करवाने के लिए बहाने गढ़े गए. फिर कुछ प्यार से, कुछ अधिकार से समझा बुझाकर निर्मला को राजी कर लिया गया परंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था…

डॉक्टर त्रिपाठी, साठ वर्षीय, छः फुट लम्बे, मधुर भाषी, रौबीले, सूट-बूट से सुसज्जित अति आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी निकले. उनसे प्रथम परिचय में ही कमलकांत अपने को बहुत छोटा महसूस करने लगा था. माँ द्वारा सिखाई, पढ़ाई, समझाई सारी बातें वह भूल गया. नोटों की मोटी गड्डी पर्स से नहीं निकाल पाया, केवल निर्मला की बीमारी की ही चर्चा कर सका. डाॅक्टर त्रिपाठी कुछ देर सोचते रहे, फिर निर्मला के दयनीय चेहरे को पढ़ने की कोशिश में जैसे उन्हें उसका आर्त-क्रन्दन सुनाई दे गया. उन्होंने उसका केस लेने की हामी भर दी. कई दिनों तक बातों के सिलसिले, प्रश्नों की बौछार के साथ ‘केस-हिस्ट्री’ तैयार होती रही. इन दिनों कमलकांत ही अधिक बोला करता था. अब बारी थी रोगी के वास्तविक इलाज की..

अगली बैठक में डाॅक्टर त्रिपाठी निर्मला को एक शांत वातानुकूलित कमरे में ले गए, वहाँ उन्होंने उसे एक आरामकुर्सी पर अधलेटी अवस्था में लेटने को कहा. मद्धम रौशनी साइड लैम्प से छन-छन कर आती रही. निर्मला ने महसूस किया, जैसे दूर क्षितिज से कोई स्वर लहरी उसके कानों से टकरा कर उसकी आत्मा को तरंगित कर रही है. उसने ध्यान लगाकर सुना तो वह पंडित शिव कुमार शर्मा का संतूर वादन था.

ओह !! डाॅक्टर त्रिपाठी ने उससे उसका प्रिय संगीत क्या है, पूछा तो था…… आज सुबह वह कितनी अशांत थी, बहकी-बहकी बातें कर रही थी, हर काम उल्टा हो रहा था, शायद रक्तचाप बढ़ गया था. परंतु अब सब ठीक है, अच्छा लग रहा है. प्रश्नों का सिलसिला कुछ यों शुरू हुआ, — ‘‘आपका नाम’’….. ‘निर्मला’…….. ‘‘पति का नाम’’……… ‘कमलकांत’……….‘‘बच्चे’’…….‘दो लड़कियाँ हैं मनीषा, व अंकिता’……….. ‘‘कहाँ हैं वे’’ डाॅक्टर त्रिपाठी के इस प्रश्न पर निर्मला अचकचा कर चुप हो गई. उत्तर देने में उसने काफी समय लगाया फिर बोली, – ‘‘पता नहीं, मुझसे नहीं मिलने देते.’’………….‘‘क्यों’’…………‘‘ये लोग कहते हैं कि मैं बीमार हूँ, बच्चों को अच्छी परवरिश नहीं दे सकती. कमल की माँ मुझे गँवार जाहिल और कभी-कभी बदचलन भी कहती हैं. डाॅक्टर साहब मैं पढ़ी लिखी हूँ. नीची जाति की होने से क्या होता है.’’

निर्मला की बन्द आँखों से दो बून्द आँसू चू गये थे. फिर कई दिनों तक लगातार निर्मला डाॅक्टर त्रिपाठी के क्लीनिक आती रही और उसकी केस-हिस्ट्री तैयार होती रही.

एक दिन हर दिन की तरह संगीत बज रहा था. कुछ देर की चुप्पी के बाद डाॅक्टर त्रिपाठी बोले, –‘‘निर्मला तुम बहुत सुन्दर हो.’’ इस अप्रत्याशित बयान पर निर्मला चौंक उठी…………आँखे खोल डाॅक्टर साहब की तरफ देखने लगी, हतप्रत, तटस्थ……आज तक यह बात उससे किसी ने भी नहीं कहीं थी. अक्सर लोगों ने उसके नाक-नक्श की खाल खींची थी या उसके साँवले रंग को लेकर कटाक्ष किया था…..निर्मला ने अस्वीकृति में सिर हिला दिया फिर आँखें मूँद ली. ‘‘तुम ऐसा नहीं कह सकती’’

डाॅक्टर त्रिपाठी बोले, — ‘‘पिछले अनेक दिनों से मैं तुमसे बातें कर रहा हूँ, मुझे लगता है, तुम्हारा मन बहुत ही सुन्दर है, निश्छल……निष्पाप…….है !’’

रक्तचाप मापने की मशीन निर्मला की कलाई पर बंधी थी, और हर मिनिट पर कोई संख्या जिसमें झिलमिला जाती थी. इस क्षण जो संख्या उस मशीन में दिखी उससे डाॅक्टर त्रिपाठी संतुष्ट नजर आए.

अगले दिन की मुलाकात का समय तय करते समय डाॅक्टर त्रिपाठी निर्मला से यह कहना नहीं भूले कि, ‘‘निर्मला जो मैंने तुमसे कहा है वह याद रखना.’’

तीन दिन निर्मला क्लिनिक नहीं आई, जिस दिन वह आई, बेहद अशांत, उद्विग्न, व परेशान थी. आते ही उसने तेज सिर दर्द की शिकायत की. उसकी आँखें लाल थीं. डाॅक्टर त्रिपाठी उसे उसी चेंबर में ले गए, सोने को कहा, जिससे वह शांत हो सके, फिर काफी देर बाद पूछा, ‘‘निर्मला तुम इंजीनियर हो न ?’’

एक लम्बा निःश्वास छोड़ कर निर्मला बोली, ‘‘जी नहीं… इंजीनियरिंग के तीसरे साल तक कमल के साथ पढ़ती थी, फिर शादी हो गई. कमल नहीं चाहते थे कि मैं पढ़ाई पूरी करूँ, उनका कहना था कि अब मुझे घर सम्भालना चाहिए. मैंने वही किया जो कमल चाहते हैं लेकिन….’’

न जाने किन ख्यालों में खो गई वह. एक झटके से बोली, जैसे कोई तंद्रा टूटी हो, ‘‘डाॅक्टर साहब मैं खाना बहुत अच्छा बनाती हूँ.परंतु कमल की माँ मेरी बनाई हर चीज में नुक्स निकालती हैं.वो कमल की शादी अपनी दूर की रिश्ते की बहन की बेटी से करना चाहती थी,शायद इसीलिए……’’ निर्मला चुप हो गई जैसे बहुत थक गई हो.

डाॅक्टर त्रिपाठी गुलाबी फाइल पलटने लगे,यह सूचना उनके लिए नई थी.ध्यान से पढ़ने पर उन्होंने पाया कि कमल ने जितनी भी वारदातों का जिक्र किया था, जब निर्मला आपे से बाहर हुई थी,चीजें पटकने, तोड़ने, या फेंकने की हरकतें की थीं, सभी डाइनिंग टेबल के आस-पास हुई थीं. डाॅ. त्रिपाठी को समझते देर न लगी कि जब खाने की मेज पर सारा परिवार एक साथ बैठा होता होगा, घर की बहू खाना परोस रही होती होगी, सास सबको सुना-सुना कर,बढ़ाचढ़ा कर बहु के अवगुणों का बखान करती होगी, अपनी पसन्द की लड़की न ला सकने पर अफसोस करती होंगी और बेवजह उस अशरीरी कन्या के गुणों का पुलिन्दा खोला जाता होगा जिसे बहू बनाकर न ला सकने का उन्हें मलाल था. जब निर्मला से रोज-रोज का यह प्रलाप न सहा जाता होगा, तब उसे दौरा पड़ जाता होगा चीजों को फेंकने, पटकने या तोड़ने का और इन लोगों को बहाना मिल जाता होगा निर्मला को पागल करार कर देने का..

तभी निर्मला की कलाई पर बंधा यंत्र चूँ-चूँ करने लगा था. उसका ब्लड-प्रेशर अचानक बढ़ गया था. डाॅ. त्रिपाठी अपनी कुर्सी से उठे निर्मला के सिरहाने गए और उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगे, निर्मला की बंद आँखों के कोर से दो बूँद आँसू धीरे-धीरे फिसलने लगे, वह बोली, ‘‘डाॅ. साहब मैं पागल नहीं हूँ, मुझे बचा लीजिए..डाॅ. साहब मुझे बचा लीजिए..निर्मला ने जब तक स्वयमेव शांत होकर आँखें नहीं खोली डाॅक्टर त्रिपाठी ने न कोई प्रश्न किया न किसी तरह की आवाज ही. फिर अगले दिन का अपाॅइंटमेंट देकर डाॅक्टर त्रिपाठी चैम्बर से निकल गए.

डाॅक्टर त्रिपाठी के साथ हुई हर सिटिंग्स के बाद निर्मला का आत्मविश्वास बढ़ने लगा था. वह अपने प्रति होने वाले अत्याचारों के खिलाफ मुँह खोलने लगी थी, कभी घर वालों के सामने तो कभी पड़ोसियों के सामने. एक दिन चेंबर में कमल की उपस्थिति में निर्मला ने डाॅक्टर साहब से कहा, –‘‘आप पूछते हैं कि मैं क्या चाहती हूँ ? मेरे चाहने से क्या होता है, बचपन में मैं संगीत सीखना चाहती थी,सितार बजाना चाहती थी, तब मुझे समझाया गया कि गाने-बजाने वाली लड़कियाँ कोठेवालियाँ होती हैं. फिर कुछ बड़ी हुई तो राजनीति पढ़ना चाहती थी, सरदार पटेल, राममोहन राॅय, गाँधी जी मुझे प्रेरित करते थे. मैं देश के लिए कुछ करना चाहती थी, लेकिन फिर वही दलीलें — नेता बनना लड़कों का काम है, तू तो बस रोटी बनाना सीख ले — बाबू जी समझाते….बड़ी जद्दोजहद के बाद इंजीनियर बन अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थी,पर वह सपना भी पूरा न हो सका. कमल के किए सारे वादे झूठे निकले. ..’’

 निर्मला का प्रलाप चलता ही रहता,यदि कमल की रौबीली आवाज व्यवधान न बनती. अगली सिटिंग का टाइम लेकर वे चले गए..

एक दिन, दो दिन, हफ्ता, महीना, फिर साल बीतने लगा, न निर्मला आई, न कमलकांत……डाॅक्टर त्रिपाठी इस जोड़ी को भूलने से लगे थे,कि एक दिन उन्हें एक अपरिचित सा खत मिला, जो निर्मला का था.उसने लिखा था –

परम पूज्य डाॅक्टर साहब

सादर चरण स्पर्श

मैं, निर्मला, टिहरी बालिका विद्यालय की प्रिंसिपल, सबसे पहले आपके आशीर्वाद के साथ, आपसे एक वायदा लेना चाहती हूँ कि आप इस पत्र का जिक्र कमल या उस शहर के किसी भी परिचित से नहीं करेंगे. आपको अपनी इस बेटी के प्राणों की सौगंध !!

डाॅक्टर साहब जीवन में पहली बार मुझे आपकी शक्ल में भगवान के दर्शन हुए थे. पल भर या घंटे दो घंटे का सुख जो आपके चेम्बर में, आपकी उपस्थिति में होता था, वह अकथनीय है, आपकी बातों ने मेरा, अपने ऊपर से खोया हुआ विश्वास जगा दिया था. मैं बोलने लगी थी…आपके पास बार-बार आना चाहती थी लेकिन उस दिन घर लौटने के बाद जो घटना घटी, और जिस घटना ने मुझमें आद्योपांत परिवर्तन कर दिया, उसे बताने के लिये ही पत्र लिख रही हूँ…… मुझे विश्वास है कि कमल आपसे मिलने नहीं गये होंगे, किस मुँह से जाते, क्या कहते, कि मैं घर छोड़ कर कहीं भाग गई हूँ. उनका मकसद भी पूरा नहीं हुआ….वे चाहते थे कि आप मुझे पागल सिद्ध कर दें, जिससे उन्हें तलाक मिल जाए. उस दिन वे आपके पास एक भारी रकम लेकर आए थे. आपको शायद इसका अनुमान भी नहीं है.

डाॅक्टर साहब आपकी वजह से मैं इस काबिल हुई हूँ,कि आज अपने पैरों पर खड़ी हूँ.मैंने अपनी भावनात्मक कमजोरियों पर विजय पा लिया है. जब मैंने वह साहसिक कदम उठाया था, तब यह सोचकर काँप उठी थी कि मैं हमेशा के लिये अपने बच्चों को खो दूँगी, परंतु वहाँ रहकर भी तो मैं बच्चों के सुख से वंचित ही थी. क्लिनिक से लौटने के बाद कमल ने फिर मुझ पर हाथ उठाया था, लेकिन उस दिन मैं चुप न रह सकी. मैंने उनका हाथ बीच में ही पकड़ लिया और जोर से हँसी थी. मैंने कहा था, कायर, डरपोक! अकेले में हाथ उठाता है, हिम्मत है तो डाॅक्टर साहब के सामने हाथ उठाया होता, और इसके पहले कि वह बेकाबू होता, मेरी सास मुझ पर झपट पड़ी थी, और चिल्लायी थी, बदजात! अपने पति से जबान लड़ाती है, आज मैं तेरी खाल खींच लूँगी…फिर उन्होंने मेरे बाल खींचकर दो झापड़ रसीद किये थे. उस दिन सर झुकाकर मार खाने की जगह, मैंने उन्हें धकेलकर अपने आप को छुड़ाया, एक क्षण सोचा फिर सीढ़ियाँ उतरती चली गई. अब उस घर में रहना मेरे लिए असंख्य जहरीले सर्पो के बीच रहने के समान होता.

कहते हैं कि बच्चों के भविष्य की चिंता, उनका प्यार-दुलार माँ के पैरों की बेड़ी होता है. लेकिन मेरे बच्चों को ये लोग पहले ही मुझसे छीन चुके थे. मेरे पास खोने के लिये कुछ भी नहीं बचा था. जब कुछ खोने का डर नहीं होता, तब कठिन से कठिन निर्णय लेना भी आसान हो जाता है.

मैं ने घर छोड़ा था, तब यह सोचा भी नहीं था, कि मेरा इस तरह कायाकल्प हो जाएगा. डॉक्टर साहब, मैंने अपनी केंचुली उतार फेंकी है, पुरानी, काली, बौराई, क्षत-विक्षत केंचुली…

वहाँ पर मुझे पागल, गँवार, बदजात, कलूटी नामों से बुलाया जाता था, लेकिन यहाँ उत्तर प्रदेश के छोटे से गाँव ‘टेहरी’ में, मैं यहाँ के बालिका विद्यालय की प्रिंसिपल के नाम से जानी जाती हूँ. .डाॅक्टर साहब ‘महिला समाख्या’ नाम की एक संस्था ने मेरी मदद की. लेकिन डाॅक्टर साहब आज मैं जो भी हूँ. सिर्फ आपके प्रयासों का फल हूँ..मेरा स्वाभिमान आपने जागृत किया था, मेरे अस्तित्व से मेरी पहचान कराई थी, मुझे रास्ता दिखाया था. मैं आजीवन आपकी आभारी रहूँगी. महिला समाख्या की मदद से मैंने कमल व उसकी माँ पर प्रताड़ना का केस कर दिया है. देर भले ही हो सकती है, परंतु मुझे पूरा विश्वास है कि मुझे न्याय जरूर मिलेगा, और मेरे बच्चे भी…

वह दिन जब भी आएगा मैं आपके चरणों में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने जरूर आउँगी ज़रूर…..

क्षमा याचना सहित आपकी बेटी

 निर्मला

सुधा गोयल ‘नवीन’

जमशेदपुर, भारत

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