दस्तखत

दस्तखत

 

शाम के चार बज रहे थे। इस वक्त मेरे घर का बरामदा बच्चों से गुलजार रहता है। मैं बरामदें में आई तो देखी बच्चे उधम मचा रहे थे। दरी उन्होंने बिछा ली थी। मैं कुर्सी पर बैठ गयी और उन्हें शांत रहने के लिए कहा। रेखा की शरारतें जारी थीं। रेखा सबसे ज्यादा शरारतें कर रही थी। झगड़े मे उसने एक लड़की की चोटी को पकड़ कर खींच दी। वह लड़की रोने लगी। मैंने जोर से पुकारा – ‘‘रेखा! क्या कर रही हो?’’ रेखा सकपका कर नीचे बैठ गयी। मैंने फिर जोर देकर उससे पूछा- ‘‘मैं जो तुम्हें गृह-कार्य दी थी, वह करके लायी हो?’’ रेखा सर झुकाए चुपचाप खड़ी हो गई। मैंने फिर पूछा – ‘‘चुप क्यों हो बोलो?’’ रेखा रूआँसी हो गई। सामने नीचे दरी पर बैठे बच्चे शांत हो गये और पढ़ने में मग्न हो गए। पर उनका ध्यान इधर ही था।

रेखा धीरे से बोली- ‘‘मेरी कॉपी को मेरी मइया चूल्हें में जला दी।’’

‘‘क्या?’’ चौंकतें हुए मैंने कहा। सभी बच्चे हमारी तरफ देखने लगे।

मैंने फिर उससे प्रश्न किया – ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? तुम्हारी माँ तुम्हारी कॉपी को चूल्हे में क्यों जलाएगी?’’

रेखा ने सहमते हुए कहा- ‘‘ हम बाहर छोटे भाई को खेला रहे थे। मैया का चूल्हा नहीं जल पा रहा था। सामने ही कॉपी पड़ी हुई थी। वह कॉपी के एक-एक पन्ने को निकालकर लकड़ी धनकाने लगी।’’ कहकर वह चुप हो गई।

गुस्से में मैं बोली- ‘‘मैंने कल ही तुम्हें नयी कॉपी लाकर दी थी। वह भी चूल्हे में गया। अरे! अपनी कॉपी तो सँभाल कर रखती। एक तो कुछ भी पढ़ाओ, वह तुम तुरंत भूल जाती हो। कुछ भी याद नहीं रहता।’’

रेखा की आँखों में आँसू थे। वह रोती हुई कक्षा छोड़कर चली गई। मैं उसे जाते हुए देखती रही। रोकने की कोशिश भी नहीं की। वहाँ बैठे सभी बच्चे पढ़ाई छोड़कर इस वार्तालाप को सुन रहे थे। रेखा के जाने के बाद सभी आपस में खुसर-फुसर करने लगे।

मैं उनलोगों से बोली – ‘‘तुमलोग अपनी पढ़ाई करो।’’

वे सभी फिर से पढ़ाई में लग गए। मैं अपनी घर-गृहस्थी से समय निकालकर शाम तीन से पाँच बजे तक स्लम के गरीब बच्चों को पढ़ाती थी। पति अपने कारोबार में व्यस्त रहते थे। बेटा-बेटी अपनी पढ़ाई के लिए बाहर चले गये थे। मेरी तो न नौकरी की उम्र थी और न ही घर की देखभाल से फुरसत। अकेलेपन से निजात पाने के लिए मैंने यही रास्ता चुना। मैंने बगल के स्लम के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। मुझे बच्चों को पढ़ाना अच्छा लगता था। इन बच्चों में अधिकतर सरकारी स्कूलों में पढ़ते थे। पढ़ाने के दौरान मैं विभिन्न अनुभवों से गुजरती। मेरी दुनिया अलग थी और इन बच्चों की दुनिया अलग। इनकी परिस्थितियों से मुझे प्रतिदिन दो-चार होना पड़ता था। मैं अपने विचारों में मग्न थी कि देखी एक महिला बरामदे की सीढ़ी के पास खड़ी है। उम्र यही कोई तीस-पैंतीस के बीच की होगी। रंग साँवला था और मध्यम वर्ग की लग रही थीं। मैंने अपनी कुर्सी से उठते हुए पूछा – ‘‘क्या बात है? ’’

वह मंद मंद मुस्कुराती हुई बोली – ‘‘दीदी जी, प्रणाम! बड़ी हिम्मत करके आयी हूँ। मैं सुनी कि यहाँ पढ़ाया जाता है। मुझे भी पढ़ने की बहुत इच्छा है। बचपन से मुझे पढ़ाया नहीं गया। पति बात-बात पर ताना देते हैं। खासकर जब मैं दस्तखत की जगह अंगूठा लगाती हूँ तब! ’’ कहकर वह आशा भरी नज़रों से मेरी तरफ देखने लगी। मैं उस महिला को आश्चर्य से देखने लगी। मेरे मुँह से स्वतः ही निकल पड़ा – ‘‘हाँ-हाँ, क्यों नही! मुझे आपको पढ़ाने में खुशी होगी। आप कहाँ रहती हैं?’’

‘‘मैं यहीं पर थाना के बगल में रहती हूँ। मेरे पति उसी थाने में दारोगा हैं।’’ वह महिला अपना परिचय देती हुई बोली।

मैंने कहा – ‘‘मैं आपको जरूर पढ़ाऊँगी। कल से आप क्लास में आ जाइयेगा। स्लेट चॉक और किताब, मैं आपको दे दूँगी। आप एक कलम और कॉपी लेती आइयेगा’’ उसने खुश होकर हामी में सर हिला दिया।

आगे मैंने पूछा – ‘‘आपका क्या नाम है?’’ उस महिला ने कुछ सोचते हुए जवाब दिया- ‘‘मुझे तो सभी रमेश की माँ या दरोगाइन कहते है, पर मेरा नाम आसो देवी है। पति ने यह नाम रखा है। माँ-बाप तो ‘मुनिया’ कहकर बुलाते थे।’’

मैं बोली, ‘‘ठीक है, कल से आप समय पर आ जाइयेगा।’’

वह चली गई। मैं उसे जाते हुए देखती रही। मैं सोचने लगी, नाम का इतना चक्कर! हे ईश्वर! आप सबका भला करें।

आसो देवी अगले दिन से पढ़ाई के लिए नियमित आने लगीं। वह बहुत मनोयोग से पढ़तीं। मैं जब रजिस्टर में सभी बच्चों की उपस्थिति बनाती, तो बच्चों के नाम के साथ आसो देवी का भी नाम पुकारती। वह बहुत देरी से अपना नाम समझ पाती। जिम्मेदारियों के बोझ तले या संबंधों के जाल में शायद वह अपना नाम भी भूलने लगी थीं। अच्छा हुआ कि उसका अस्तित्व बोध जाग उठा और वह यहाँ आई। कक्षा में उम्र का कोई बंधन नहीं था। छोटे बच्चों से लेकर बड़े बच्चे एवं दो-चार महिलाएँ भी थी। कुछ बच्चे तेजी से सीखते तो कुछ बहुत समय लगाते। एक संध्या थी जो आपनी माँ के साथ घरों में काम करने जाया करती थी। कुशाग्र बुद्धि थी उसकी। वह हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी व गणित भी तेजी से सीख रही थी।

इन्हें देखकर मुझे भी संतोष होता था कि मैं किसी के काम तो आ रही हूँ। इस नेक काम से मेरा भी अस्तित्व बोध जाग उठा था।

एक दिन मैं बच्चों को पढ़ा रही थी कि मेरी नजर एक कोने में बैठी रेखा पर पड़ी। वह गुमसुम एक कॉपी और पेंसिल लेकर बैठी हुई थी। वह मुझसे नजरें चुरा रही थी। मैंने उसे इशारे से बुलाया। वह मेरे पास आकर चुपचाप खड़ी हो गई। मैं उससे बोली- ‘‘अपनी माँ को नहीं बुलाई?’’

उसने जवाब दिया – ‘‘वह नहीं आएगी। बोलती है, अभी मुझे फुरसत नहीं है। तुम पढ़ो या मत पढ़ो। घर का काम पहले करना है, तब फिर पढ़ने जाना है।’’ कहकर शांत खड़ी रही। मैं चुपचाप उसके चेहरे को पढ़ने लगी। सच ही कह रही होगी। जब माँ ही नहीं चाह रही है तब……..।

मैं उसे प्रेरित करती हुई बोली – ‘‘क्या तुम भी अपनी माँ की तरह जीवन बसर करना चाहती हो? गरीबी व लाचारी के दलदल में फंसी हुई………?’’

वह दृढ़ता से बोली – ‘‘नहीं’’।

मैंने कहा-‘‘तब तुम्हें स्वयं संघर्ष करना पड़ेगा। ईमानदारी से पढ़ोगी तो बहुत आगे तक जाओगी। मैं तुम्हें पूरा सहयोग करूँगी।’’

रेखा ने हामी में सर हिलाया और अपनी जगह पर जाकर बैठ गई। आसो देवी उठकर मेरी तरफ आई और अपनी कॉपी दिखाती हुई बोली -‘‘देखिए तो दीदी जी, ठीक है?’’

मैंने कॉपी उनके हाथ से ले ली और देखकर बोली- ‘‘शबाश! बहुत बढ़िया! बहुत जल्दी आप सीख रही हैं। इसी तरह मन लगाकर पढ़ियेगा तब जल्दी ही आप अपना नाम भी लिखने लगेंगी।’’ यह सुनकर आसो देवी बहुत खुश हुईं। वह अपनी जगह पर जाकर फिर से लिखने लगीं।

इसी तरह यह अनौपचारिक शिक्षा-केन्द्र चलाते हुए दिन-महीने बीतने लगें। बच्चों की संख्या भी बढ़ने लगी। मेरे घर का बरामदा अब छोटा पड़ने लगा था। इसके लिए मैं कुछ उपाय सोच ही रही थी कि अचानक से एक अनपेक्षित स्थिति उत्पन्न हो गई।

एक दिन दोपहर में पति का फोन आया कि बेटी काम्या की तबीयत काफी खराब है। उसे देखने पुणे जाना है। मैंने परसों का टिकट कटा दिया है। तुम्हें कुछ दिन वहाँ रूकना पड़ेगा।’’ मैं घबड़ा गई।

मैंने तुरंत काम्या को फोन लगाया। उसने बहुत देर बाद फोन उठाया।वह उनिंदी आवाज में बोली – ‘‘हाँ, माँ’’

मैंने पूछा – ‘‘कैसी हो बेटा? क्या हुआ तुम्हें?’’

वह बोली – ‘‘माँ, घबराओ नहीं! मैं ठीक हूँ। थोड़ी तबीयत बिगड़ गई थी। इलाज चल रहा है। जल्द ही ठीक हो जाऊँगी। पर मेरे साथ कुछ दिन रहना माँ!’’

मैं बोली,‘‘जरूर बेटा! तुम जब तक ठीक नहीं होगी मैं वहीं रहूँगी।’’

फोन रखकर मैं जाने की तैयारी में जुट गई। मन ही मन सोचने लगी, क्लास का क्या होगा? कुछ दिनों के लिए तो उसे बंद करना ही पड़ेगा या किसी और को पढ़ाने के लिए बोलूंगी। जब शाम में बच्चें आ गए तो मैंने उन्हें सारी बातें बताकर कक्षा को कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दी। बच्चें बोले – ‘‘ठीक है, दीदी जी! आप आएँगी, तब फिर हमलोग आ जाएंगे।’’

मैं पति के साथ पुणे चली आई। काम्या को तपेदिक हो गया था। ध्यान न देने की वजह से उसकी बीमारी काफी बढ़ गई थी। उसकी देख-रेख में मुझे छह महीने लग गए। जब वह स्वस्थ हो गई तो मैं अपने शहर लौट आई। आकर घर को व्यवस्थित करने में लग गई।

एक शाम मैं बरामदें में बैठकर चाय पी रही थी। तभी सामने गेट खुलने की आवाज आयी। मैंने देखा आसो देवी हाथ में मिठाई का डब्बा लिये चली आ रही हैं। मेरे मुँह से स्वतः ही निकल पड़ा – ‘‘अरे वाह! क्या बात है? मिठाई का डब्बा?’’

उसने मुझसे ही सवाल किया – ‘‘पहले ये बताइये, आपकी बेटी कैसी है?’’

मैंने जवाब दिया – ‘‘अब बिल्कुल ठीक है। तभी तो मैं आ पायी हूँ।’’

आसो देवी ने कहा – ‘‘ मुझे आपकी कामवाली ने बताया कि दीदी आ गई हैं।’’ ’

मैंने फिर पूछा – ‘‘यह मिठाई किस खुशी में?’’

वह बोली – ‘‘दीदी, मैं दस्तखत करना सीख गई। मेरे पति बहुत खुश हैं। अब वह मुझे अंगूठाछाप नहीं कहते हैं। मैं पढ़ना और लिखना दोनों सीख गई हूँ। इसका सारा श्रेय मैं आपको देती हूँ। आप नहीं होतीं तो मैं नहीं सीख पाती। मेरे लिए आप भगवान बनकर आयीं।’’ कहते हुए आसो देवी की आँखें डबडबा गईं। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर बोली- ‘‘आपके जाने के बाद कक्षा मैं अपने घर पर ही लगाने लगी थी। संध्या सबको पढ़ाती थी। धीरे-धीरे सभी बच्चे भागते गए। ‘‘मैंने पूछा – ‘‘रेखा आती थी?’’

उसने जवाब दिया- ‘‘वह आती तो थी, पर अब उसकी शादी हो गई। जबरन रेखा की शादी कर दी गई। वह बहुत रो रही थी।’’

मैं विस्मय से आसो देवी को देखती रह गई। मेरे मुँह से स्वतः निकल पड़ा – ‘‘सच में शादी हो गई? अभी उसकी उम्र ही क्या थी ‘‘और वह मान कैसे गई?’’ मैं बुदबुदा रही थी। आसो देवी मेरी तरफ मिठाई बढ़ाती हुई बोली – ‘‘लीजिए दीदी, पहले आप मिठाई खाइये। किस-किस को आप रोक पाइयेगा? हमारे समाज में विवाह के मामले में बहुत कम लड़कियाँ अपना मुँह खोलती हैं।’’ कहते हुए आसो देवी ने जबरन मेरे मुँह में मिठाई डाल दीं।

 

सरिता कुमारी 

पटना, भारत

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