वो धुकधुक
“रात के दस बज गए, आज फैक्ट्री में कुछ ज्यादा ही देर हो गई!”
घना सन्नाटा उसे दबोचकर जैसे उस पर हावी होना चाहता था मगर घबराती गरिमा स्ट्रीट लाइट की रोशनी की आड़ में अपनी चुन्नी से सिर ढक चेहरा छुपाती हुई बस स्टॉप की ओर जल्दी-जल्दी तेज कदमों से कभी आगे तो कभी पीछे देख बढ़ती जा रही थी।
स्टॉप पहुंचते साथ उसके फोन की घंटी बजने लगी पर बदकिस्मती से लो बैट्री के कारण पर्स से भीतर निकालने से पहले फोन बंद पड़ गया और यात्री से नदारत बिल्कुल खाली बस उसकी ओर आते देख उसका दिल बैठा जा रहा था।
हाथ में बंद मोबाइल पकड़े उसने गहरी सास ली, हिम्मत और आत्मविश्वास के साथ उस बस की नंबर प्लेट की फोटो खींचने का नाटक करते हुए उसे अच्छे से याद कर लिया, कान पर फोन और स्पीकर पर हाथ लगाते हुए जिससे सामने वाले को लगे कि चलती बस की आवाजे उसकी बात पर बाधा ना लाए इसलिए ऐसा किया गया है ना कि मोबाइल की लाइट ना जलती देख उसके फोन ऑफ होने की शंका को छुपाना था।
फोन कान में दबाये बस के भीतर घुसने से पहले एक पैर रोड से उठा बस की सीढ़ियों में रख जुते ठीक करने के बहाने वो झुकी और बस के भीतर जलती लाइट की रोशनी से सीट के नीचे चारों तरफ नजर घुमाने लगी, किसी के पैर ना पाकर उसे थोड़ा आश्वासन मिला, “कोई छुपा नहीं है।” और वो सजगता के साथ खड़ी हो सामन्य से थोड़ा ऊँचा बात करते आपातकालीन निकास की खिड़की कहा है उसे देख पलटकर शुरुआती सीट में जा बैठी, जहा से ड्राइवर के हावभाव साफ़-साफ़ देखे जा सके और वो आगे क्या बात करने वाली है वो उसे भलीभाँति सुना सके।
” हैलो भैया, हाँ! नहीं नहीं आपको आने की जरूरत नहीं है,मुझे बस मिल गई है!”
“बस का नंबर? हाँ उसकी फोटो ले ली है आपको भेजती हूं।”
“ड्राइवर का नाम? एक मिनट पूछती हूं। ”
“भैया आपका नाम क्या है? वो मेरे भैया कांस्टेबल है ना तो पूछ परख करते रहते हैं।”
“सुमेध यादव”
“भैया इनका नाम सुमेध यादव है। ठीक है ठीक है, मैं आपको निर्मला पारा स्टॉप पर मिलती हूं।” ये कहकर गरिमा फोन काटने का नाटक कर अपने पर्स में रखी रामपुरी, मिर्ची स्प्रे को टटोल कर मोबाइल रख देती हैं।
ऊपर से सामन्य दिखती हर पल अपनी रक्षा करने ईश्वर को याद करती गरिमा का ये मात्र आधे घंटे का सफर रोज के मुकाबले आज मोबाइल बंद हो जाने के कारण ज्यादा धुकधुकी लिए गुज़र रहा है, क्योंकि खुद को सुरक्षित रखने वाला उसका ऐप एकबार बिना इन्टरनेट, फोन लॉक होने पर और लोकेशन चालू किए बिना काम कर सकता हैं पर बंद मोबाइल पर नहीं।
बस में सवार रात के दस बजे एक अकेली जवान औरत जिसका पति उसको और अपनी दुधमुंही बच्ची को इंसान के भेष में गिद्ध बने भेड़ियों के बीच शिकार बनने दो वर्ष पहले नौ दो ग्यारह हो गया था।
“यहां मरने के लिए भी जीना पड़ता, जा खुद दो पैसे कमा तब समझ आएगा कि औरत की जिंदगी में एक मर्द की कीमत क्या होती हैं, भले वो मेरी तरह नकारा पियक्कड़ ही क्यो ना हो, चल दफा हो” जब वो वापिस लौट आई थी तब जन्म देने वाले पिता ने अपनाने से ठुकरा दिया था, काश जब वो आठ वर्ष की थी तब अपनी आँखों के सामने पिता द्वारा माँ को घासलेट छिड़क झुलसाते वो उस रात उन्हें बचा पाने सामर्थ जुटा पाती तो उसकी परवाह करने वाला आज कोई मौजूद होता।
पिता की बात कही एक-एक कड़वी बात सही निकलती गई, एक किराये के कमरे के लिए उसे दर-दर की ठोकर खानी पड़ी।
“अकेली औरत ऊपर से बच्चा! क्या कमाएगी जो किराया भर सके, हम घर नहीं दे सकते,जा कहीं और ढूढ़।”
“अभी तो जवान हो, चाहो तो ऐसा काम कर सकती हो जिसमें मुंह मांगा दाम मिल सकता है।”
“अरे पति नहीं है तुम्हारा? तो क्या हुआ हर रात हम सेवा दे जाएंगे।”
” नौकरी तो देदे पर ये बच्चा साथ नहीं ला सकती।”
” कई बार देर रात तक काम चलता है कैसे कर पाओगी?”
गरिमा ने किसी को कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई और अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करने लगी, समय ने भी साथ दिया और वे सब एक सीमा के बाद बककर चुप होते चले गए।
अखिरकार उसकी मंजिल करीब आने लगी, दूर से उसे उसके उतरने वाले स्टॉप पर कुछ लोग दिखे, और बस के पास पहुंचते उन्हें देख उसके चेहरे पर मुस्कान जाग उठी।
“निर्मला पारा बस स्टॉप!!” उसके कानों में ड्राइवर की तेज अवाज पड़ी और वो आज भी अपनी सजगता,सूझबूझ और आत्मविश्वास से सकुशल घर पहुंचने में कामयाब हुई।
“लता दीदी आप इन सबको इतनी देर रात क्यो लाई है।”
“ऐसे फोन कभी बंद नहीं रहता तेरा इसलिए घबरा गई थी, तेरी आखिरी लोकेशन देख आभास हुआ कि तू बस में होगी, जो कुछ देर और ना आती तो रिपोर्ट करने जाते, अब घर चल गुड़िया तुझे देखे बिना नहीं सोने वाली।”
जीवन में जरूरी नहीं जिन रिश्तो को समाज की सहमती और जन्म के नाते नाम दिया जाता हैं वही सच्चे और अपने होते हैं। उसकी निम्न हालत में कुछ बेनाम रिश्ते स्वेच्छा से उसके कदम-कदम पर हौसला बढ़ाते रहे, जिन्हें वो कोई नाम तो नहीं दे पाई पर वो उसके सब कुछ हैं।
बचपन से गरिमा देवी को पूजने वाले देश में औरतों पर होते जुल्म और असुरक्षित महसूस करने की वो धुकधुक अनुभव करती आई थी, जिसने समझदारी आते ये बात गाँठ बांध ली कि यहां राह चलते अनेको सरफिरे मर्द शिकारी के भेस में घात जमाए बैठे हुए मिलेंगे, जिन्हें शिकार करने बस एक मौके की तलाश है।उनकी मानसिकता बदलना सम्भव नहीं पर उन्हें मौका ना देकर अनहोनी को टाला जरूर जा सकता है।
रुचि पंत
मेलबर्न ऑस्ट्रेलिया