कंकालें पतवारों की

 

 

कंकालें पतवारों की

 

हांफ रही थी वह….. पसीने से लथपथ…… सांसे तेज चल रही थी……… और कितनी गहरी खुदाई…..? इतनी रात इस मरघट में वह क्या ढूंढ रही थी ? .….. अचानक चीख पड़ी..…….यह क्या….?  यहीं तो मैंने उन पतवारों को दफनाया था । इतनी जल्दी कंकाल में कैसे बदल गये ? झटके से उठ पड़ी।पसीने से नहा चुकी थी वह।कैसा स्वप्न……..?  ………कंकालें पतवारों की…….।

 

आज सुबह से ही रिक्ता थकान महसूस कर रही थी।भूत , भविष्य और वर्तमान की कुछ तारे झंकृत हुई थी या फिर रात्रि के दु:स्वप्न का कोई कतरा – अभी भी उसके मस्तिष्क के किसी रेशे में अटका पड़ा था । आज रिक्ता बगल वाले पार्क में टहलने नहीं जा पाई थी । परिमल अकेले ही चला गया था । भारी मन से रिक्ता रसोईघर के तरफ बढ़ी , किंतु पांव रुक गए ।

 

“ सुबह की चाय परिमल के बिना कैसे पी पाऊंगी । थोड़ी देर  इंतजार कर लेती हूं ।”  सोचते हुए रिक्ता बरामदे में आई । बाहर खुले में उसे थोड़ी राहत मिली । कुर्सी पर बैठकर उसने थोड़ी देर के लिए अपनी आंखें बंद कर ली । यह क्या….…. हजारों तरंगों ने उसके मस्तिष्क को घेरना शुरू कर दिया था ……अक्षर , शब्द , हंसी , यादें , बातें ……  धुंधली सी स्याह परछाइयां….. सभी धीरे-धीरे अब एक लोहे की जंजीर में बदल रहे थे।इन जंजीरों ने उसके शरीर को जकड़ना शुरू किया । शरीर की कसमसाहट बढ़ी । जकड़न मजबूत होती जा रही थी । रिक्ता  छटपटाने लगी । दर्द से कराहने लगी और अचानक उसकी चीखें निकल गई ।

 

रिक्ता……. रिक्ता…… क्या हो गया है तुम्हें ? परिमल ने उसे झकझोरते हुए कहा । रिक्ता की तंद्रा टूटी । थोड़ी देर शून्य सी वह परिमल को निहारती रही , मानो पहचानने की कोशिश कर रही हो । परिमल अवाक था । जकड़न अब ढीली पड़ने लगी थी । “ तुम कब आए ?” रिक्ता ने  चौंकते हुए पूछा ।  रिक्ता अब सामान्य थी ।

 

“बस अभी आ ही रहा हूं  ,  तुम्हारी चीखें सुनी तो घबरा गया । अब कैसी हो ? “मैं चाय बना कर लाती हूं ।” रिक्ता ने उठते हुए कहा ।

 

“ नहीं …तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं लग रही है , आज मैं चाय बनाता हूं ।” वही चिर-परिचित मुस्कान …….. बहुत कम ही ऐसे अवसर आते थे जब रिक्ता के बोझिल से होंठ थोड़े से विस्तृत होने की कोशिश करते ।

 

“तुम्हारी बनाई चाय से तो मेरी तबीयत और बिगड़ जाएगी ।” मुस्कुराते हुए रिक्ता ने कहा । फिर तो परिमल के ठहाकों की गुंजन ने रिक्ता की शिथिल पड़ी सांसो में कुछ सांसे भर कर कुछ पल जीने को मजबूर कर दिया ।

 

भिंडी …….करेला……. बैगन..… नेनुआ…..।  “ओह ! बारह बज गए ।” बिना घड़ी देखे हीं रिक्ता ने कहा।दस साल हो गए थे।वही आवाज , वही काया ….. कुछ नहीं बदला था लक्ष्मी का।लक्ष्मी अब तक दरवाजे पर आ चुकी थी ।सब्जी की टोकरी नीचे रखते हुए उसने कहा……“भाभीजी सारा बैंगन बिक गया । आपके लिए थोड़ा सा बचा कर लाई हूं ।”

 

लक्ष्मी को रिक्ता से पूछने की जरूरत नहीं पड़ती थी कि वह क्या सब्जी लेगी । वह जानती थी कि भाभीजी को कौन सी सब्जी पसंद है और कितना चाहिए । बिना पूछे वह सारी सब्जियां तौलकर दे देती थी। सब्जियां लेकर जब रिक्ता पूछती…… “कितने पैसे   हुए ?”  तो उसका वही पुराना अंदाज होता था ..…“अरे जितना मन हो दीजिए ना भाभीजी , हम कोई भागे जा रहे हैं ।”

 

लक्ष्मी नाम शायद उसके माता-पिता ने बड़ा ही सोच कर रखा होगा उसका । जीवन भर तो उसने गरीबी का ही मुंह देखा था , मगर हृदय से वह बहुत ही धनवान थी ।

 

दस साल हो चुके थे किंतु आज भी रिक्ता को लगता है कि जैसे कल की हीं बात हो । एक तरफ श्रेयांश का हमेशा के लिए घर छोड़कर चले जाना और दूसरी तरफ लक्ष्मी से उसका मुलाकात होना।क्या लक्ष्मी उसके जीवन से अपना तालमेल बिठाने आई थी या महज सब्जी बेचने …..?

 

आज भी याद है रिक्ता को । उस दिन श्रेयांश के बिना सुबह का सूरज उसे काला स्याह जैसा लगा था । शून्य सा  वातावरण……खामोश हवाएं……. वक्त बिखर सा गया था ……बिल्कुल मौन …..घुटा-घुटा सा । सुबह स्तब्ध हो पक्षियों की चहचहाहटें सुनने का प्रयास कर रहा था । किंतु सुबह की खामोशी ने पक्षियों की चहचहाहटों  के शोर को दबा दिया था । प्रचंड वेदना की धाराओं ने अश्रुओं की नदी में सैलाब लाना अभी शुरू ही किया था , तभी …एक क्षीण सी आवाज ने नदी को शांत करने का प्रयास किया था ।  “भाभीजी ताजे कद्दू हैं , लेना है ?

 

आवाज तेज होती जा रही थी और अंत में आकर उसके बड़े से गेट के सामने रुकी । रिक्ता बालकनी में खड़े हो उसे शून्य सा निहार रही थी । “कद्दू……. श्रेयांश को बहुत पसंद थे ।” रिक्ता के मुख से अनायास ही निकल गए । उसका शरीर अपने वश में नहीं रहा , वह नीचे उतरी और गेट तक पहुंच गई ।  “जितने हैं सारे दे दो ।”

 

लक्ष्मी कौतूहल से उसका मुंह ताक रही थी । “घर में बहुत लोग हैं क्या भाभीजी ?  पूरी टोकरी ले लीजिएगा ? ” तब तक परिमल दौड़ता हुआ आया था और उसने बात संभाली । “कद्दू अभी मैं लेकर आया हूं , इन्होंने नहीं देखा होगा , कद्दू नहीं चाहिए ।” यह सुनकर सब्जी वाली अपनी सुनी आंखों से उसे टुकुर-टुकुर देखने लगी । परिमल थोड़ा विचलित हुआ , फिर सामान्य होकर उसने पूछा …….“आपको मैंने आज तक इस कॉलोनी में नहीं देखा है । कहां से आई हैं आप ? हम लोग तो बाजार से सब्जी लाते हैं , इस तरफ तो कोई भी सब्जी वाला नहीं आता है । ”

 

“भैयाजी मैं पास वाले गांव से इस शहर में आती हूं । सुबह के चार बजे तक शहर में आ जाती हूं और बारह बजे तक सब्जी बेचकर लौट जाती हूं । आज मैं सिर्फ कद्दू लेकर आई थी । आठ बज गए हैं , लेकिन अभी तक एक भी कद्दू नहीं बिका । सामने वाले सड़क से गुजर रही थी तो सोचा कि एक बार इस कॉलोनी में भी घूम आती हूं । दूर से मैंने भाभी जी को बालकनी में देखा , इसलिए आ गई ।”

 

थोड़ी देर चुप रह कर वह फिर बोली …..“बोहनी का समय है भैयाजी , एक भी कद्दू ले लो । सिर का बोझ भी थोड़ा कम     होगा । ”  “मैंने कहा ना हमें कद्दू नहीं लेना है ।” परिमल ने रूखेपन से जवाब दिया । मायूस हो सब्जी वाली टोकरी उठाने लगी , तभी पीछे से आवाज आई….….“ परिमल उससे कम से कम एक भी कद्दू ले लो ”  , परिमल चौंका । रिक्ता का मन रखते हुए उस दिन उसने कद्दू ले ली ।  रिक्ता के जीवन में लक्ष्मी का अनावश्यक प्रवेश हो गया ।

 

धीरे-धीरे भीड़ जुटने लगी थी । कॉलोनी की और भी औरतें सब्जी वाली के पास आने लगी थी । सुबह के समय में औरतें बहुत ही व्यस्त होती हैं , इस कारण कॉलोनी की औरतों ने उसे बारह बजे आने को कहा और लक्ष्मी मान  गई । लक्ष्मी आती थी , रिक्ता के हीं दरवाजे के पास , और भीड़ वहीं लगती थी । समय ने शायद रिक्ता को जीने के लिए उसकी सांसों में कुछ सांसे और जोड़ दिए थे । या यूं कहें कि सब्जी वाली उसके जीने का एक बहाना बन गई थी ।

 

वक्त भी स्तब्ध हो जाता है , जब रिक्ता के दरवाजे पर ठहाकों की आवाज गूंजती । बारह बजे तक घर के सारे काम से निश्चिंत होकर औरतों का रिक्ता के दरवाजे पर जमा होना , खूब गपशप करना उनकी दिनचर्या बन गई थी । कभी-कभी तो जिन औरतों को सब्जी ना भी लेना हो तब भी वह वहां आ जाती थीं , सिर्फ मिलने-जुलने और गपशप के लिए । धीरे-धीरे सब्जी वाली से वह कब लक्ष्मी बन गई , पता ही नहीं चला ।

 

बातों-बातों में लक्ष्मी के बारे में यही पता चला कि उसके घर में सिर्फ उसका पति है । बेटा- बहू बाहर रहते हैं और सबसे विशेष बात यह थी कि लक्ष्मी और उसके पति मिलकर अपने घर के ही अहाते में सब्जी उगाते है और घरेलू खाद का उपयोग करते हैं । बिना केमिकल वाली बिल्कुल ताजी सब्जी के लिए ही सभी औरतों ने बाजार से सब्जी मंगाना बंद कर दिया था।खूब बातें होती , सब्जी की तरह-तरह की रेसिपी एक दूसरे को बताई जाती , साथ ही घर-परिवार की बातें भी बताई जाती ।

 

रिक्ता भी धीरे-धीरे खुलने लगी थी । अब तो जीवन के सुख-दुख , संघर्ष , हर तरह की कहानी वहां होने लगी थी।बहुत सारी समस्याओं का समाधान लक्ष्मी भी करती थी ।अब तो लक्ष्मी के इर्द-गिर्द एक मनोवैज्ञानिक केंद्र बन गया था । मानो जहां घर-परिवार की हर समस्याओं का हल हो ।

 

परिमल को रिटायर हुए तीन साल हो चुके थे । रिक्ता ने अतीत की यादों पर वर्तमान का धूल इस तरह जमा दिया था कि उसे कुछ भी दिखाई ही ना पड़े । बिना रुके जीवन लगातार चलता रहे । इसके लिए रिक्ता और परिमल दोनों ने ही कठोर प्रयास किए थे । किंतु अतीत तो अतीत है…. अपने स्वभाव से लाचार , वर्तमान में घुसपैठ करके उसे कुरेदना और परेशान करना..… ।  श्रेयांश की वो हर वस्तुएं जो उनके जीवन जीने में बाधक हो रही थी , उन्होंने उसे एक बड़े से संदूक में बंद कर , स्टोर में रख दिया था । दोनों ही कोशिश करते कि स्टोर में उनका प्रवेश कम से कम हो । कामवाली बाई के  साफ-सफाई के बाद स्टोर में ताला बंद कर दिया जाता था ।

 

उस दिन परिमल के दोस्त के पचासवें शादी की सालगिरह की पार्टी से लौटते हुए परिमल के मुख से अनायास ही निकल गया….. “रिक्ता मेरे सारे दोस्तों में सबसे देर से मेरा हीं विवाह हुआ था । मैं सभी के विवाह में शामिल हुआ था । किंतु जब मेरा विवाह तुमसे हुआ तो विवाह में जितनी सुंदर तुम लगी थी , उतनी सुंदर मुझे किसी की पत्नी नहीं लगी थी ।”

 

परिमल कार ड्राइविंग कर रहा था । उसकी आंखें सामने सड़क पर थी , परंतु रिक्ता उसे देख रही थी । परिमल यही बात जब पहले कहता था तब रिक्ता की खिलखिलाहटे परिमल के जीवन में कई दिनों तक अंकित हो जाती थी । आज मुस्कुराहटें भी नहीं थी । किंतु उस ‘पल’ ने टोह लिया था…….भीतर का कोई सांकल टूटा था ..……शायद इसी का कोई प्रभाव था या कुछ और…..?

 

दूसरे दिन रिक्ता ने अपनी पुरानी अलमारी खोली थी और अनायास ही उसके हाथ विवाह के उस जोड़े पर चले गए थे ।  एक क्षीण सी मुस्कुराहट और…… वह जोड़ा अब रिक्ता के हाथों में था । अतीत व्यंग्य से मुस्कुराया और रिया की तस्वीर नीचे गिर पड़ी …….।

 

वर्तमान , अतीत से हार कर निढाल सा पड़ा था और अतीत ने सीना ताने रिक्ता को ललकारा था । विवाह के बाद सात सालों तक मातृत्व से वंचित रहने की पीड़ा का दंश झेलना , दवाइयों और इंजेक्शनों से शरीर छलनी करने के बाद श्रेयांश का जन्म होना , रिक्ता और परिमल की ठहरी सी नदी को एक प्रचंड प्रवाह देने जैसा था ।                                       नियति की कठोरता से अनभिज्ञ रिक्ता और परिमल श्रेयांश रूपी तोहफे को पाकर जीवन का क्षण-क्षण इस कदर जी रहे थे , मानो अपने प्रत्येक सांसों की डोर को उन्होंने श्रेयांश के नाम कर दी हो । श्रेयांश का धीरे-धीरे बड़ा होना और नियति का भी धीरे-धीरे यह बताना कि उसका जन्म माता-पिता का विरोध करने के लिए ही हुआ है । बचपन से ही वह अपनी मनमानी करने लगा था । माता-पिता के किसी भी बात को न मानने की मानो उसने कसम खा ली हो । खानपान , कपड़े , व्यवहार , पढ़ाई-लिखाई किसी भी चीज में वह उनकी नहीं सुनता था । प्रारंभ में प्यार-दुलार में वह जो भी करता , वे उसकी बातों को मान लेते थे । किंतु धीरे-धीरे ये आदतें उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बनती जा रही थी । रिक्ता कभी-कभी उसके प्रति सचेत होती , किंतु परिमल उसे हमेशा आश्वासन देता ……“हमारी परवरिश में कोई कमी नहीं है और तुम्हारे जैसी मां हो तो,कोई कमी हो ही नहीं सकती । समय के साथ सब कुछ ठीक हो जाएगा ।       ” दिमाग से तेज और पढ़ाई-लिखाई में अव्वल होना श्रेयांश की विरोधात्मक मानसिकता को ढक देता था ।

 

उस दिन रिक्ता का रुदन पहली बार घर में गूंजा था , जब श्रेयांश ने अपना निर्णय सुनाया कि वह अपनी मेडिकल की पढ़ाई छोड़ रहा है । बेटा को डॉक्टर के रूप में देखने का सपना आज ध्वस्त हो चुका था । उस दिन भी परिमल ने वही पुराना आश्वासन दिया…… “उसकी जिंदगी है , उसे अपने ढंग से जीने दो । हमें अपने विचारों को उस पर थोपनी नहीं चाहिए ।”

 

दोनों श्रेयांश की खुशियों के साथ समझौता कर उसके अनुसार ही जीवन जीने लगे थे । किंतु वक्त को इस समझौते में आनंद नहीं आया । नियति ने तो कुछ और ही तय किया था ।

 

इस बार रुदन की गूंज नहीं थी , दहाड़ने की आवाज थी ……. “श्रेयांश यह बहुत बड़ा पाप है,रिया की गलती क्या है ? ” “ मैं नहीं जानता , किंतु वैभवी मेरी जिंदगी है ।” हमेशा की तरह उस दिन परिमल ने उसे नहीं समझाया था । उसने पहली बार श्रेयांश का खुलकर विरोध किया था ।

 

श्रेयांश का मेडिकल की दो साल की पढ़ाई छोड़ कर , बहुत कम समय में एमबीए करने के बाद , कंपनी का मैनेजिंग डायरेक्टर बनना , उसी कंपनी में कार्यरत रिया से विवाह के लिए रिक्ता और परिमल का इच्छा जताना और श्रेयांश का सहर्ष स्वीकार कर लेना , समय के साथ कोई प्रतिस्पर्धा थी या रिक्ता और परिमल को किसी अंधेरे गलियारे में ले जाने की चुनौती ……? भाग्य और समय दोनों ही आवाक खड़े थे ।

 

श्रेयांश ने विवाह के दो साल बाद रिया को तलाक देकर वैभवी से विवाह कर के , माता-पिता को फिर से समझौते के साथ जीने को मजबूर कर दिया था । किंतु वैभवी के फ्रेम में अपने को फिट नहीं कर पाए थे – रिक्ता और परिमल । वैभवी के संस्कारों की बलि चढ़ते देख उस दिन रिक्ता बिफर पड़ी थी………. “श्रेयांश तुम्हारी कंपनी में व्यस्तता और वैभवी का रात भर घर से बाहर रहना , शराब की पार्टियां अटेंड करना , अनगिनत मर्दों से दोस्ती करना , जिनके साथ मन हुआ रात बिता लेना और सुबह नशे की हालत में घर पहुंचकर बारह बजे दिन में सो कर उठना……..कैसे बर्दाश्त कर लेते हो ? श्रेयांश क्या तुम्हारी आत्मा मर गई है ? तुम्हें यही संस्कार मैंने दिया है ? ”

 

बस करो मां ! अपनी मध्यमवर्गीय सोच को किसी पर थोपने की जरूरत नहीं है । वैभवी उच्च परिवार में पली-बढ़ी है , मॉडल है वह । हर दिन पार्टी , फैशन , शोज , कैमरे लाइट्स , हजारों लोगों से कांटेक्ट ही उसकी दुनिया है । मॉडलिंग की दुनिया में बहुत ऊंचाई पर जाने का उसका सपना है । उसके सपने को मैं कैसे मार सकता हूं । ऐसे में अगर वह थोड़ा बहुत ड्रिंक कर लेती है तो हर्ज ही क्या है । तुम चाहोगी कि सामान्य बहुओं की तरह वह तुम्हारे साथ रसोई में काम करें , आस-पड़ोस की फालतू बातों में उलझी रहें और शाम को पति का इंतजार करे ।  उसने ऐसी दुनिया नहीं देखी है ।  तुम्हारी सोच इतनी छोटी क्यों है ?”

 

रिक्ता की आंखें फैल गई । वह श्रेयांश का मुख देखती रह गई , किंतु उसने अपने को संयत किया । “बेटा दुनिया में कोई भी काम बुरा नहीं होता है । मर्द या औरत के लिए बुरा होता है – चरित्रहीनता और संस्कारों का गिरना । मॉडलिंग की दुनिया में सभी चरित्रहीन नहीं होते । जीवन में जो मौज-मस्ती को प्रधानता ना देकर , कर्म को प्रधानता देते हैं – वही ऊंचाइयों को छूते हैं । चाहे वह किसी भी वर्ग के हों ।  पेशा बुरा नहीं होता है , व्यक्ति का चरित्र उस पेशे को बुरा बनाता है ।मेरी सोच छोटी नहीं है , लेकिन तुम्हारे संस्कार जरुर छोटे हो गए हैं । पति-पत्नी एक दूसरे के मार्गदर्शक होते हैं , अगर वह ऐसी है भी तो उसे सही रास्ते पर लाना तुम्हारी जिम्मेदारी है और नहीं ला पा रहे हो तो यह तुम्हारी असफलता है । आस पड़ोस में लोग कानाफूसी करते हैं , अजीब सी निगाहों से मुझे देखते हैं ।”

 

“क्यों रहती हो ऐसे समाज में ?” श्रेयांश ने गुस्से में गरजते हुए कहा था ।“हमीं से समाज है बेटा और यह समाज ही हमारा आईना होता है ।”

 

इतने में वैभवी अपने कमरे से आई और उसने रोते हुए कहा…. “ श्रेयांश तुम्हारे इस छोटे से समाज में मेरा दम घुट रहा है । मेरा आकाश बहुत बड़ा है और जिसे इन्होंने चरित्रहीनता का नाम दिया है वह मेरे आकाश में फिट नहीं बैठता है । हमारी सोसाइटी , हमारी दुनिया , हमारे लोग तुम लोगों से मेल नहीं खाते हैं । मैं यहां एक पल नहीं रह पाऊंगी ।” थोड़ी देर चुप रह कर वैभवी ने कठोरता से कहा…… श्रेयांश मैं तुम्हारे ऊपर बोझ नहीं बनूंगी । मैं जा रही हूं निर्णय तुम्हारे ऊपर छोड़ती हूं , तुम्हें माता-पिता के साथ रहना है या मेरे पास ? ”

 

दो दिन हो चुके थे श्रेयांश और वैभवी को घर छोड़े हुए । भ्रम का केंचुल पहने रिक्ता ने उम्मीद नहीं छोड़ी थी । अपने दिए गए संस्कारों पर उसे अब भी विश्वास था । किंतु बहुत जल्दी यह केंचुल उतर गया । उस दिन श्रेयांश का अचानक से आना …..दोपहर के प्रचंड धूप की खिड़की से अनावश्यक प्रवेश करने के समान ही था ………..  “मां मैं वैभवी के बिना नहीं रह पाऊंगा । उसने यह देश छोड़कर जाने की बात कही है । उसकी शर्त है या तो मैं उसे छोड़ दूं या आप लोगों को……..!”

 

गौरवर्ण के श्रेयांश का चेहरा स्याह आसमान की तरह हो चुका था । उसकी सुनी आंखें और मायूसी ममता की ओर निहार रही थी । बचपन में जब भी श्रेयांश किसी चीज की जिद कर बैठता तो उसका मासूम सा चेहरा और सुनी आंखें ऐसे ही रिक्ता को निहारा करती थी …… फिर ममता का ग्लेशियर पता नहीं कब पिघल कर नदी का रूप ले लेता था और श्रेयांश की जिद पूरी हो जाती थी । आज भी ग्लेशियर पिघल रहा था , किंतु धीरे-धीरे …….नदी बननी अब शुरू हो चुकी थी …….

 

“तुम्हारा जीवन है श्रेयांश , जैसे चाहो जियो जहां भी रहो खुश रहो ।” नदी की धारा की तरह बिना रुके एक सांस में रिक्ता ने अपना फैसला सुना दिया ।

 

रिक्ता मानो बहुत दूर निकल चुकी थी । परिमल ने उसके कंधे को झकझोरा था । नीचे गिरी रिया की तस्वीर को उसने अलमारी में रखते हुए कहा……. “रिक्ता हमारी मौत नहीं हुई है । हम जीवन जी रहे हैं । अतीत में जाकर इसके प्रवाह को मत रोको । शादी के जोड़े को रिक्ता को ओढ़ाते हुए परिमल इस तरह से हंसा , मानो काले बादलों में बिजली चमकी हो ……….

 

“अभी भी उतनी ही सुंदर हो । हमारे तुम्हारे बीच में कोई नहीं आ सकता । किसी को आने भी नहीं दूंगा ।” रिक्ता ने सिर्फ होठों को फैलाया था , मुस्कुराने का स्वरूप भर था ।

 

दरवाजे पर फिर से भीड़ थी । रह-रहकर लक्ष्मी खांस रही थी । रिक्ता ने चिंतित हो कहा…….. “लक्ष्मी तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है , आज तुमने घर में आराम क्यों नहीं किया ?” भाभी जी , हमारा आदमी  बीमार है , हम भी बैठ जाएंगे तो रोटी कैसे खाएंगे ? ” “अरे तुम तो कहती हो तुम्हारे बेटा-बहू बाहर रहते हैं । कुछ दिन उनके पास चले जाओ या फिर उन्हें बुला लो ।”

 

..…….और फिर लक्ष्मी द्वारा कहे गए प्रत्येक शब्दों ने रिक्ता के गहरे घाव को इस प्रकार कुरेदा कि वह स्वयं को संभाल नहीं पाई ।  “क्या हुआ भाभीजी ?” लक्ष्मी घबरा सी गई । ”कुछ नहीं , बस थोड़ा चक्कर सा आ गया था ।”

 

रिक्ता ने स्वयं को संभाला । लक्ष्मी अब जाने के लिए टोकरी उठाने वाली ही थी कि रिक्ता ने उसे हाथ पकड़ कर बैठा दिया । भीड़ छंट चुकी थी । सभी औरतें जा चुकी थी । सिर्फ लक्ष्मी और रिक्ता थे । “लक्ष्मी एक बात पूछूं ? तुम इतनी खुश कैसे रह पाती हो बेटे के बिना ?” एक छोटा बच्चा जब पहली बार स्कूल जाता है और मासूमियत से टीचर से बहुत सारे सवाल करता है , कुछ इसी प्रकार की भाव-भंगिमा थी रिक्ता की ।  समय ने मुस्कुराना चाहा था पर मुस्कुरा नहीं पाया । अवाक रह गया….…..

 

“कैसे नहीं खुश रहूं । मेरा बेटा इतना बड़ा आदमी बन गया । कम से कम ‘सब्जीवाली’ का बेटा तो नहीं कहलाएगा ।” लक्ष्मी ने बड़े ही ऊंचे और गर्विले आवाज में कहा । “किंतु तुम कैसी जिंदगी जी रही हो ? सिर पर बोझ लिए घूमती रहती हो , तब जाकर दो समय का तुम्हें रोटी मिलता है । तुम्हारा बेटा कम से कम इस जीवन से तो तुम्हें निकाल सकता था ।” प्रचंड पीड़ा की छटपटाहट को अपनी पूरी शक्ति लगाकर रोकते हुए रिक्ता ने मलिन शब्दों में पूछा ।

 

“भाभी जी उसका समाज बहुत ऊंचा है , आप लोग जैसा । हमारे जाने से उसके जीवन में दाग लग जाएगा । फिर तो मेरी सारी तपस्या मिट्टी में मिल जाएगी । उसके आस-पास का समाज ….दोस्त , पत्नी सभी के नजर में वह छोटा हो जाएगा । वे क्या कहेंगे कि ‘सब्जीवाली’ का बेटा है । ऊपर से उसका व्यवहार जो भी हो भाभी जी , पर मैं जानती हूं कि वह आज भी मुझसे बहुत प्रेम करता है , मुझे भूला नहीं है ।” बेटे की गुनाहों को लक्ष्मी ने इस तरह से ढक लिया , मानो शरद के कुहासे ने रात्रि के सारे गुनाहों को ढक लिए हो ।

 

“प्रेम ……? तुम्हें कैसे पता कि तुम्हारा बेटा तुमसे अब भी प्रेम करता है ?” रिक्ता ने पहली बार लक्ष्मी से इतने रूखेपन से बात की थी । “भाभीजी उसके घर का जो नौकर है , उसका परिवार मेरी झोपड़ी के बगल में ही रहता है । वह कभी-कभी आता है । मेरा बेटा यह नहीं जानता है । उसने ही बताया था कि मेरा बेटा , बहू को हमेशा डांटता है और कहता है ……“ मेरी मां की तरह तुम खाना नहीं बनाती हो । मां के हाथ की सब्जी तो मैं भूल ही नहीं सकता ।”

 

स्तब्ध रह गई थी रिक्ता । लक्ष्मी की आंखों में उसने उस  सूनेपन को , उस रिक्तापन को तलाशने की कोशिश की थी , जो उसकी आंखें बरसों से ढो रही थी । किंतु यह क्या …..? उसकी समंदर सी गहरी आंखों में प्रेम और वात्सल्य की लहरें लगातार उठती-गिरती प्रतीत हो रही थी ।  “यह कैसी अनुभूति……? पुत्र के प्रति यह कैसा प्रेम……?  जिसे पतवार बनाकर वह लंबे अरसे से अपने जीवन की नैया को खेती चली आ रही है ।  मुझे ऐसा एक भी पतवार क्यों नहीं मिला………?”

 

लक्ष्मी की कहानी कोई मिसाल नहीं थी । आए दिन ऐसे किस्से सुनने को मिलते हैं । किंतु जीवन के प्रति उसके नजरिये ने रिक्ता के पूरे जीवन का मंथन कर दिया । पुत्र का मेघावी होना और उसकी पढ़ाई-लिखाई में प्रचंड रूचि को देखकर लक्ष्मी ने अपने जीवन की पूंजी……. थोड़ी सी जमीन , विवाह में मिले जेवर और पति का छोटा सा सब्जी का दुकान – पुत्र के नाम समर्पित कर , घर के अहाते में सब्जी उगा कर , सब्जी की टोकरी को – प्रेम , वात्सल्य , आनंद , त्याग और भविष्य की सुखद अपेक्षाओं की टोकरी समझकर , पति-पत्नी ने उसे बड़े ही उत्साह से सिर पर उठा लिया था । एक तरफ इस आनंद की टोकरी का भारी होना ।  दूसरी तरफ पुत्र का अफसर बनना , नई दुनिया , नए समाज में प्रवेश कर विवाह करना और कहीं यह दुनिया उसके अतीत के कारण मलिन ना हो जाए , इस कारण माता-पिता का प्रवेश अपनी दुनिया में निषिद्ध करना , नियति का कोई स्वांग था या फिर  दुख , तकलीफ , पीड़ा ,  वेदना , मार्मिक जैसे दुनियावी शब्दों को लक्ष्मी के नाम करने की कोई योजना थी ।

 

शरीर का थकान नहीं था , शायद जीवन जीने की विवशता ने उन्हें थका दिया था । प्रत्येक रात्रि रिक्ता और परिमल की गहरी नींद का यही कारण होता था । आज भी यही कारण था , किंतु सिर्फ परिमल के लिए । रात्रि के बारह बज चुके थे । पलंग पर चुपचाप शांत बैठी रिक्ता की आंखें पता नहीं क्या तलाश कर रही थी । कहीं वह पतवार तो नहीं ……….?

 

“जीवन के इस नाव में बैठ तो गई , पर बिना पतवार के । शायद प्रयास करती तो मुझे भी कोई पतवार मिल जाता । क्या मैंने अपने हाथों से सारे पतवारों का दफन कर दिया…..? देर तक द्वंद चलता रहा । धीरे-धीरे इस द्वन्द ने थकान का रूप ले लिया और निद्रा के सामने नतमस्तक हो गया । चेतन सुसुप्तावस्था में था , मगर अचेतन ने कचोटना शुरू किया और फिर वह दु:स्वप्न …….कंकालें पतवारों की………।

 

प्रीति सिन्हा

पटना, भारत

 

 

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