कुछ कही कुछ अनकही 

कुछ कही कुछ अनकही 

 

एक थी केतकी ,पहाड़ों की खुशनुमा वादियों में अपने रूप रंग की खुशबू बिखेरती,हिरनी सी कुलांचें भरती, इस बुग्याल से उस बुग्याल तक दौड़ती चली जाती थी बस अपने आप में खोई हुई,अपने आप में मगन।दीन दुनिया से कोई वास्ता न था बस अपनी ही धुन में किसी भी टीले पे बैठ कर घंटों गाती रहती थी।कोई सामने पड़ जाता तो छुई मुई के पौधे सी अपने आप में सिमट जाती थी।माँ कहती भी थी ” छोकरी, सबके बीच बैठ कर बात किया कर।” धीरे धीरे केतकी कली से फूल बन रही थी उधर घर में पांच भाई बहन और हो गए थे,अब केतकी की जिम्मेदारी भी बढ़ गई थी।पिता की गरीबी के चलते उसका स्कूल से भी नाम कट गया था।

कोई था जो उसको पेड़ों के पीछे से छुप छुप कर देखता था,उसकी शहद सी आवाज़ का दीवाना था।उसका नाम था बुराँश।गोरा चिट्टा लाल, लाल गाल सहज ही बुरांश के फूल की याद दिला देते थे।कई बार उसने केतकी से अपने दिल की बात कहने की कोशिश की पर उसको सामने पाकर वो ठगा सा रह जाता और मन की बातें अनकही रह जाती ।

केतकी का स्कूल से नाम कट जाने के कारण अब बुरांश केतकी की एक झलक पाने को अक्सर तरस जाता था। एक दिन केतकी जंगल से लकड़ी बीनने के लिए निकली तो रास्ते में बुरांश मिल गया बोला ”केतकी, एक गाना मेरे लिए भी गा ना ।” कुछ सोच कर केतकी बोली ” ठीक है गाऊंगी पर एक शर्त है तू यहीं धूप में टीले पर बैठे रहना जबतक मैं गाती रहूँ ।”

बुराँश जेठ की तपती धूप में टीले पर बैठ गया।केतकी लकड़ियां बीनती रही और गाना गाती रही।गाते गाते वो बहुत दूर निकल आई, भूल ही गई अपनी धुन में कि बुराँश को धूप में बैठा कर आई है । पहाड़ों से टकरा कर उसकी आवाज़ गूँज रही थी और बुरांश तक जा रही थी।गर्मी से अब बुरांश बेहाल हो गया था पर वो तो परवाना था न ,झुलस रहा था अपनी शमा की रौ में । लकड़ियाँ चुग कर केतकी घर आ गई।शाम होने को हुई तो बस्ती में शोर हुआ ,बुराँश कहाँ है,अभी तक घर नहीं आया।किसी ने कहा उसे जंगल की ओर जाते देखा था।किसी अनहोनी की घटना से सब परेशान हो गए।जब केतकी ने सुना तो बिना किसी से कुछ कहे दीवानावार टीले की ओर भागी। वहाँ बुराँश बेसुध पड़ा था।परेशान केतकी ने गांव वालों को बुलाया सब उसे घर ले गए ।

अब तक जो प्यार से अनजान थी उसके मन में भी बुराँश के प्यार की कोपलें फूटने लगी।पर जब तक ये कोपलें पल्लवित होतीं तब तक केतकी के हाथ पीले करके माँ बाप ने अपने सर का एक बोझ कम कर दिया।बस में बैठकर जब केतकी अपने पति के साथ शहर को चली तब भी उसे वो दो जोड़ी आंखे पेड़ के पीछे से उसे अलविदा कह रही थी।जिंदगी छलावा देकर जा रही थी।कितनी दूर तक बुरांश की देह बस के पीछे दौड़ती रही ,उसकी रूह तो बस के साथ चली गई। आखिर थक कर घर आ गया ,माँ की गोद में सिर रख कर लेट गया तो मां ने पूंछा ” पहाड़ खोदकर आया है क्या जो इतना थका हुआ है ?”

उसने दिल का दर्द मां से बयां करना चाहा पर फिर चुप रह गया और सबकुछ एक बार फिर अनकहा रह गया।

कहाँ पहाड़ की शांत वादियां और कहाँ शहर का कान फोड़ू शोर,दौड़ती भागती जिन्दगी।केतकी दिल से ना पहाड़ों को भूल पा रही थी और ना ही बुरांश को।दिल में एक टीस सी उठती थी कि जब उसका प्यार से परिचय हुआ और किसी से प्रीत हुई तो गठबंधन किसी और से हो गया।बुरांश की यादें उसे अपने पति से मन से नहीं जुड़ने दे रही थी।

ऊपर से उसका पति शिवा रूप रंग में ठीक केतकी के विपरीत था।एक किराने की दुकान में काम करता था।शिवा ठीक मेरे घर के सामने किराये के कमरे में रहता था।पहले भी शिवा से कभी कभी घर का कुछ सामान मंगा लेती थी।सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक वो बाहर रहता था।केतकी की स्थिति ऐसी थी जैसे खुले आसमान में उड़ता परिंदा एक पिंजरे में कैद हो गया हो।

मैं अपनी छत से देखती कि वो कभी कमरे से बाहर आकर बैठ जाती,फिर अंदर चली जाती।एक दिन रविवार को जब उसका पति घर पर था तो मैं उनके कमरे के पास गई मैंने शिवा से कहा ” शिवा, तुम्हारी बहू तो बहुत सुन्दर है।पर बेचारी दिन भर घर पर अकेली अंदर बाहर करती रहती है।इसे मेरे घर भेज दो कुछ काम कर लेगी तो चार पैसे कमा लेगी।” शिवा मेरी बात से सहमत हो गया पर तुरंत बोला- “मैडम केवल आपके घर काम करेगी और कहीं नहीं जायेगी, इधर उधर।” शायद केतकी की खूबसूरती से शिवा का मन आशंकित था ।

अगले दिन शिवा के जाने के बाद केतकी मेरे घर आ गई । अनगढ़ हीरा थी । बड़ी सीधी सरल ।हाँ काम कुछ नहीं आता था । धीरे धीरे सीखने लगी । चार पैसे कमाने लगी तो दूसरों की देखा देखी कुछ ढंग के कपड़े पहनने लगी , काजल लिपस्टिक भी लगाने लगी।अच्छा खाने पहनने से उसका रूप रंग और भी निखर गया पर यही उसके लिए मुसीबत का सबब हो गया।शिवा को उसपर शक होने लगा कि कहीं उसके पीछे वो किसी मर्द से मिलती जुलती तो नहीं है। बिना चिन्गारी के ही आग लगनी शुरू हो गई ।शायद यह शिवा की स्वयं की हीन भावना थी।

 

उस दिन नया साल मनाने के लिए केतकी मुझसे छुट्टी ले गई बोली ”मेमसाहब आज कुछ अच्छा खाने को बनाऊँगी घर सजाऊंगी,शिवा को सरप्राइज दूंगी।”

 

पता नहीं क्यों मुझे उससे एक लगाव सा हो गया था । उसका उत्साह देखकर मुझे ख़ुशी हुई । मैंने भी उसे एक नया सूट नए साल के उपहार के रूप में देकर कहा “यही पहनना।”

नया सूट पहन कर मुझे दिखाने भी आई लाल रंग उसपर ऐसा खिल रहा था कि वो स्वयं लाल गुलाब सी लग रही थी । पर उस दिन शिवा ने नया साल कुछ अलग तरीके से मना लिया। शराब में धुत जब घर पहुंचा तो केतकी को सजा संवरा देख कर उसको शक के कीड़े ने ऐसा काटा कि बिना कुछ पूछे केतकी को पीटना शुरू कर दिया।बदहवास केतकी भागती हुई मेरे पास आ गई।उसकी हालत देख कर मैंने कहा “चलो मैं शिवा की पुलिस में शिकायत करती हूँ ।”

केतकी गिड़गिड़ाने लगी ”नहीं मेमसाहब पुलिस उसको ले जाएगी तो मैं कहाँ जाऊँगी ।”

मैं सोचने लगी अभी कुछ दिन पहले ही तो इसने मुझे बुरांश के प्रति अपने प्रेम के बारे में बताया था और बोली थी ”अभी तक मैं बुराँश को भुला नहीं पा रही ।वो कितना सुन्दर था और यह कितना बदसूरत है।पर अब मैंने सोच लिया है कि नए साल से नई शुरुआत करूंगी ,बुराँश की हर याद को दिल से निकाल दूँगी।अब शिवा ही मेरी किस्मत है मेमसाहब । ख़ूबसूरती तो कुछ दिन की ही होती है न मेमसाहब ।” उसकी ऐसी निश्छल बातें सुनकर मेरी संवेदना उसके प्रति बढ़ जाती थी ।

मेरे सामने खड़ी केतकी के माथे ,ओठ ,हाथ सब जगह से खून बह रहा था ।थोड़ी देर पहले जो गुलाब लग रही थी अचानक खून का समंदर बन गई। उसको अंदर बुलाकर उसकी मरहम पट्टी करते हुए मैं सोच रही थी कि कैसी विडम्बना है जहां एक ओर केतकी आज अपना अतीत भुलाकर पूर्ण समर्पण के लिये आतुर थी वहीं शांत शिवा आज विध्वंसक बन गया।आज फिर एक रिश्ता शक की सलीब पर शहीद हो गया ,बहुत कुछ जो कहने को था ,फिर अनकहा रह गया । मुझे अपनी बहुत पहले लिखी एक कविता याद आ गई

जिंदगी !

तुझे सुरखाब के पर लगे हैं क्या ?

इतना इतराती है खुद पर ?

गज़ब है तेरी तूलिका ,भरती है जिससे रंग !!

 

कभी बेमौसम बरसात सी, संदली यादों से सराबोर करती !!

कभी शंपा सी चमक ,आंखो से बदली सी बरसती !!

 

कभी चाय की प्याली से उठती भाप सी,

उष्मा बन सांसों को गर्माहट से भर जाती !!

 

कभी सहरा के रेतीले गुबार सी उड़ाती,

उदासी के बियाबान में ले जाती !!

 

कभी दूर खड़ी हो मुरली की धुन सुनाती ,

मन को वृन्दावन बना जाती !!

 

आखिर क्यों मरीचिका सी भटकाती ?

कब तक बहुरूपिये सी छलावा देती दौड़ेगी ,दौड़ायेगी ?

थक गई हूँ, अब तो विश्राम दे अपनी तूलिका को !!!

 

मंजु श्रीवास्तव’मन’

वर्जीनिया,अमेरिका

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