और भी है राहें
आज सुबह नाश्ता करते हुए शालिनी माथुर सोच रही थी कि रेशमा अभी तक नहीं आई। पता नहीं क्या बात है?सुबह के नौ बज गए है।वो तो आठ बजे ही चली आती है।नहा कर मैंने नाश्ता भी कर लिया, पर रेशमा न जाने अभी तक क्यों नहीं आई ।दस बजे रेशमा के आते ही शालिनी का गुस्सा उस पर टूट पड़ा- “सारा घर बिखरा पड़ा है।मैं कब से तेरी राह देख रही हूँ ।आजकल तेरा काम करने में मन नहीं लगता है।क्यों ऐसे कर रही है?क्या बात है?”रेशमा ने कोई जवाब नहीं दिया ,और अपने काम में लग गई। काम खत्म करके जाने लगी तो शालिनी ने उसे आवाज लगाई और कहा कि- “ज़रा मेरे बालों में तेल लगा दे, कल रात से ही सिर भारी लग रहा है।” रेशमा उनके सामने आ कर खड़ी हो गई, और धीरे से कहा-“कल लगा दूँगी।मेमसाहब, आज मेरे बेटा को बुखार है।रात भर हम दोनों सोए नहीं है। शालिनी ने उस पर अपना हक जताते हुए कहा-“तूने मुझे पहले क्यों नहीं बताया”, और 500 के नोट निकाल कर देते हुए कहा- “जा ,किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा लेना।’’
रेशमा के जाने के बाद शालिनी सोचने लगी, क्या हो गया है ? रेशमा को, पहले तो कितनी बातें करती थी, खुश रहती थी।मेरे घर से जाने का नाम नहीं लेती थी।ड्राइंग रूम के सोफ़ा कवर, कुशन कवर, दीवान सेट सब तो वो अपनी पसंद के ही लगाती थी,किसकी मजाल है कि उसमें फेर -बदल कर दे।खुद शालिनी जी कहती कि-“मेरे कमरे में आसमानी रंग वाली चादर बिछा दे”। तो तपाक से रेशमा कहती- “नहीं ,मैं तो गुलाबी रंग की बिछाऊंगी, वो तो पिछले हफ्ते ही बिछाई थी।शालिनी इस बात पर मुस्कुरा देती थी। शालिनी कौन सी साड़ी पहन कर मंदिर जाएगी, कौन सी साड़ी पहन कर सहेलियों से मिलने जाएगी,और इतना ही नहीं,पार्टी में जाने के लिए सिल्क साड़ी भी वही निकाल कर देती थी,कितना सलीका सीख गई थी, रेशमा यहाँ काम करते हुए। किचन में भी उसी का राज चलता था।क्राॅकरी कहाँ रहेगी, बर्तन कहाँ रखे जाएंगे।डायनिंग टेबल को कैसे सजाना है, सब कुछ वो बड़े प्यार से करती थी। शालिनी के हाथ की सब्जी उसे बहुत पसंद थी, जिसे वो खुद भी खाती थी, और घर ले कर भी जाती थी।
शालिनी माथुर ने अपने घर के सारे काम का जिम्मा रेशमा को दे रखा था।पर किचन में मसालों के साथ खेलना उनको बड़ा अच्छा लगता था।मसालों के साथ तो उनकी दोस्ती-यारी थी।वे मसालों को बड़े प्यार से सहेज कर रखती थी।उनसे बातें करती थी।उनके हाथों की बनी सब्जियों से जब खुशबू आती, तो मन ही मन मुस्कुरा कर मसालों को धन्यवाद देती।सब्जी काटने का भी उनका एक अलग अंदाज था।कौन सी सब्जी को कितना बड़ा काटना है, और किसको कितना छोटा, इन सबका उनका अपना एक अलग नाप था। कौन सी दाल में कितना पानी, कितनी सिटी ये तो था ही और फिर सभी दालों में अलग-अलग छौंक भी इस्तेमाल करती थी।उनके पति का जब तक साथ रहा तब तक वो बड़े चाव से खाना पकाती थी।उनके पति ( सिद्धार्थ माथुर) उन्हें” शालिनी शेफ” कह कर बुलाते थे।कभी -कभी रेशमा उनसे कहती – “मेमसाहब मुझे भी सीखा दीजिए”। तो शालिनी माथुर बड़े प्यार से मजाक के अंदाज में कहती- “तेरे साहब तो स्वर्ग की टिकट काट कर मुझे अकेला छोड़ कर चले गए, और दोनों बेटों ने विदेश में ही घर बसा लिया। अब तू ही बता कि मेरी सब्जी की तारीफ कौन करेगा?”फिर दोनों हँसने लगते और हँसी -मजाक में बात खत्म हो जाती।
शालिनी जी को किताबें पढ़ने का भी बहुत शौक था।उनके कमरे में किताबों की एक आलमारी थी।जिसमें उनके पसंद की किताबें भरी पड़ी थी। दोपहर के दो बज रहे थे, उन्हें खाने की इच्छा नहीं हो रही थी, उन्होंने एक किताब निकाली और पलंग पर आराम करते हुए पढ़ने लगी। पढ़ते -पढ़ते ही उनकी आँख लग गई। जब उठी तो शाम के छः बज चुके थे।चाय पीने की इच्छा हो रही थी। उनका सिर ज्यादा ही भारी लग रहा था।किसी तरह से चाय बनाया, चाय दो कप थे।एक रेशमा के लिए, शालिनी हमेशा रेशमा को अपने साथ बैठा कर चाय पिलाती थी। उन्हें रेशमा की आदत सी हो गई थी, पर रेशमा की तो कोई खबर ही नहीं थी। वे रेशमा और उनके बच्चे के लिए सोच ही रही थी कि उनके छोटे बेटे का फोन आ गया।बातें करते -करते ही वो बोला- “मां ,अभी छुट्टी कहाँ मिलेगी।पिछले साल ही तो आया था”।शालिनी रुआंसी होते हुए बोली- “हाँ , वही तो कह रही हूँ कि एक साल हो गए है, तेरे को देखने का मन कर रहा है।” फोन पर दूसरे तरफ से आवाज आई- “माँ , तुम्हारी टिकट कर देता हूँ तुम आ जाओ। निधि भी दिल्ली जा रही है, एक हफ्ते के लिए, उसका अपनी माँ से मिलने का मन कर रहा है। वापसी में उसके साथ की टिकट कर देता हूँ।’’शालिनी मन ही मन सोचने लगी कि बहू का अपनी माँ से मिलने का मन कर रहा है और तेरा अपनी माँ से मिलने का मन नहीं हो रहा है। पर उन्होंने कुछ नहीं कहा, क्योंकि बहू को बुरा लग जाता।
“माँ -माँ क्या हुआ आवाज़ नहीं आ रही क्या?’’ …
‘’आ रही है बोल ना, …
‘’मैंने ने कहा ना आपकी टिकट के लिए,… ‘’ “नहीं बेटा, विदेश में मेरा मन नहीं लगता है। तेरे को जब छुट्टी मिलेगी तो तू आ जाना। चल, खुश रह, खूब तरक्की कर, स्वस्थ रह,, भगवान तेरी सब मनोकामना पूरी करे।’’ … ‘’ “बस -बस माँ अब बहुत आशीर्वाद हो गया, मेरे ऑफिस से फोन आ रहा है, बाद में बात करता हूँ।’’
शालिनी बाहर निकल कर बगीचे को देखने लगी, चारों तरफ हरे -भरे पेड़ -पौधे और फूलों को देख कर बहुत सुकून मिल रहा था। सिद्धार्थ सुबह और शाम को घंटों बगीचे में पेड़ -पौधों की सेवा किया करते थे। रिटायरमेंट के बाद बच्चों की तरह इनकी देख -रेख करते थे।सिद्धार्थ के जाने के बाद शालिनी भी माली के साथ सभी पेड़- पौधों का ख्याल रखती थी। उसने हाथ में पाइप उठाया, और पेड़ -पौधों में पानी डालने लगी।
आज शालिनी का मन नहीं लग रहा था।उसने कपड़े बदले और बगल में मिताली शर्मा के घर चली गई।वहां से आने के बाद मन थोड़ा हल्का हुआ तो टी॰ वी खोलकर देखने लगी।रात को नौ बजे हल्का खाना खाया और सो गई।
सुबह उठकर शालिनी बगीचे में आ कर पेड़ -पौधों के बीच घास पर कुर्सी डालकर बैठ गई। उन्हें जब कभी सिद्धार्थ की याद आती, तो इन पेड़ -पौधों के बीच आ कर बैठ जाती थी, क्योंकि इन पेड़ पौधों में सिद्धार्थ की जान बसती थी।
आठ बजते ही रेशमा गोद में अपने बच्चे को लेकर गेट से अंदर दाखिल हुई। उसे देखते ही शालिनी ने कहा-“कैसी है ? इसकी तबीयत, और तू इसे लेकर कहाँ घूम रही है।रेशमा ने कहा-“कल डॉक्टर ने दवाई दी, तब से खूब सो रहा है।इसे उठा कर ले आई हूँ।थोड़ी देर रुक कर, रेशमा ने फिर कहा- “मेमसाहब,आँगन में जो छोटा सा कमरा है।उसमें इसको सुला दूँ।फिर मैं सारा काम कर लूँगी।रेशमा जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही जाकर अपने बच्चे को सुला कर काम में लग गई।शालिनी ने महसूस किया कि रेशमा अब बड़े मन से काम कर रही थी।उसके काम में पहले जैसी फुर्ती दिख रही थी।
शालिनी किसी काम से आँगन में गई तो,देखा कि बच्चा बहुत गंदा है।चादर भी मैला सा है,और गहरी नींद में सो रहा है।शालिनी झट से अपने कमरे में आई।आलमारी खोल कर रेशमा की एक बड़ी सी गठरी निकाली।जिसमें विशु (विशाल) के और कुछ निशु (निशांत) के छोटे-छोटे कपड़े थे।छोटे तकिए, छोटे मुलायम ओढ़ने के कपड़े,और भी कितना कुछ था। उन्होंने उसमें से कुछ कपड़े निकाले, एक पुरानी चादर निकाली और रेशमा को देते हुए कहा- “इसे रख काम खत्म कर के बाबू को नहला कर पहना देना, और इस चादर में लपेट कर सुलाना।गंदे कपड़ों में रखेगी,तो फिर बीमार पड़ जाएगा।’’ रेशमा बाबू को नहलाने लगी तो, शालिनी ने उसे एक टब और डेटाॅल ला कर दिया। नहलाकर रेशमा ने जैसे ही बाबू को कपड़ा पहनाया,तो शालिनी खुशी से झूम उठी, उसे ऐसा लगा जैसे विशु फिर उसकी गोद में आ गया है।रेशमा दौड़ कर दुकान से एक बॉटल खरीद कर ले आई,और दूध पिला कर बाबू को सुला दिया।
शालिनी को अपना पोता “सोनू” की याद आ गई। उस वक्त विशु मुंबई में ही रहता था।अक्सर आया- जाया करता था। बहुत बड़े घर में शादी हुई थी, विशु की, पर बहू बहुत संस्कारों वाली थी।शालिनी की इच्छा पर डिलीवरी के लिए उनके पास ही रुक गई थी।पांच महीने की प्रेग्नेंसी के समय ही विशु स्विट्जरलैंड चला गया था। सोनू के जन्म के बाद सिद्धार्थ ने बहुत बड़ी पार्टी दी थी। विशु भी आ गया था।उसके ससुराल वाले ढेर सारा उपहार ले कर आए थे।सोनू के एक साल का हो जाने के बाद बहू और पोते को छोड़ने दोनों साथ गए थे।अब सिद्धार्थ के चले जाने के बाद उसका कहीं जाने का मन नहीं करता है।
रेशमा सारा काम खत्म करके आई।शालिनी के बालों में तेल लगाने लगी।शालिनी ने पूछा- “तेरी बड़ी बेटी आजकल नहीं दिखती है।’’ रेशमा उदास होकर कहने लगी- “वो सातवीं पास हो गई है।अब स्कूल दूर हो गया है। सुबह साइकिल से निकल जाती है,और शाम चार बजे तक घर आती है।
शालिनी को ना जाने क्या सूझा कि उसने कहा- “तू कल उसे लेती आना। यहां पास के स्कूल में उसका दाखिला करवा देते है।’’ रेशमा ने धीमी आवाज़ में कहा – ’’मैं उस स्कूल की फीस नहीं दे पाऊऺॅगी।कल उसे आपसे मिलवा दूंगी। वो भी आपको बहुत याद कर रही थी।’’
दूसरे दिन उसकी बेटी रूही जब उनसे मिलने आई, तो शालिनी बिना रुके ही उसे लेकर स्कूल चली गई। इस स्कूल में उसकी बहुत इज्जत थी। यहाँ वो शिक्षिका रह चुकी थी।दाखिला के बाद वो घर आई और रेशमा को भी साथ चलने को कहने लगी। बाबू भी तब तक उठ चुका था। सभी एक साथ मिलकर एक बड़ी दुकान में गए। जहां शालिनी ने बाबू के लिए बहुत सारे खिलौने और जरूरत के सामान लिए, फिर दूसरी दुकान में जाकर रूही का स्कूल युनिफाॅर्म, किताब, कॉपी, बैग ,पेन ,पेंसिल सभी कुछ खरीद कर घर आ गई। रेशमा को उन्होंने चाय बनाने को कहा, और रूही को अपने कमरे में ले गई। एक आलमारी खाली कर के उसमें रूही का सारा सामान रख दिया। रूही की तरफ देख कर फिर कहने लगी कि- “तू मेरे साथ मेरे घर में रहेगी, मेरी बेटी बनकर, आज से तू मेरी बेटी है। तेरी सारी जिम्मेदारियाँ अब मेरी है।’’
रेशमा सोचने लगी क्या हो गया है, मेमसाहब को? वो उसका ख्याल तो खूब रखती थी। पर हमेशा उन्होंने एक दूरी बना कर रखा था। आज तो उन्होंने हमें सीने से ही लगा लिया है।
शाम की चाय लेकर शालिनी बगीचे में चली गई।तभी उसने देखा, सिद्धार्थ दूर खड़ा मुस्कुरा रहा है, और कह रहा है- “शालिनी शेफ, तुमने जीना सीख लिया है। अब मुझे तुम्हारी कोई चिंता नहीं है। अब रोज़ सुबह-शाम तुमसे मिलने नहीं आना पड़ेगा, फिर हाथ हिलाकर बाॅय बोलते हुए चले गए।’’
शालिनी का मन आज बहुत हल्का लग रहा था। सर का भारीपन भी समाप्त हो चुका था। आज से वो एक नए सफर पर चल पड़ी थी।
कल्याणी झा कनक
रांची , भारत