रुदाली-गुलाबो

“रुदाली-गुलाबो”

रुदाली अपने समय की चर्चित फिल्म रही है। फिल्म देखने वालों को पता है कि राजस्थान में रुदाली उन महिलाओं को कहा जाता है जो रईस लोगों के मरने पर रोने का स्वांग करती हैं। जो जितना बड़ा स्वांग रच सके वह उतनी बड़ी रुदाली , और जिसके न रहने पर रोने का स्वांग रचा जा रहा है उसका उतना बड़ा नाम।
फिलहाल फिल्म की नायिका शनिचरी की जिंदगी दुःख से भरी है। पति की मृत्यु हो, बेटे बुधवा का उसे छोड़कर नाटक मंडली में शामिल हो जाना, ठाकुर से “जिस मन को लागे नैना, वो किसको दिखाऊं” वाला अनकहा सा प्रेम-प्रसंग हो या कि फिर इन सबके साथ-साथ चलती घोर गरीबी से उपजी पेट तक पूरा ना भर सकने वाली, प्यास बुझाने तक को ना मिल सकने वाला पानी जैसी कई तरह की मुश्किलें ! शनिचरी की आंख से किसी भी हाल में आंसू नहीं टपकते। तन पर पड़ी चोट हो कि मन पर पड़ी चोट, बेचारी तरस गई है एक बूंद आंसू के लिए।
अकेलेपन में दिन काटती शनिचरी से ऐसे में भिखणी की मुलाकात होती है। भिखणी एक रुदाली है। किसी भी रईस की मौत पर रोने का स्वांग अच्छा रच लेती है।
गांव के बड़े ठाकुर की बिगड़ती तबीयत के चलते भिखणी कुछ दिनों से शनिचरी के घर में ठहरी हुई है। कभी पति था, बच्चा था और कुछ दिनों के लिए तो एक बहू भी आई थी। लेकिन अब कुछ नहीं है। सब लग गए अपने-अपने ठौर। अकेली शनिचरी अपनी यह कहानी भिखणी को सुना रही है। कहानी-कहानी में ही भिखणी को पता चल जाता है कि शनिचरी उसकी अपनी बेटी है।
भिखणी को हैजा लील जाता है। मरते समय वह किसी के पास शनिचरी के लिए संदेश भिजवाती है कि वही उसकी मां थी। शनिचरी सकते में आ जाती है। बरसों से आंखों में डेरा डाले आंसू कुछ पलों की जद्दोजहद के बाद सैलाब बनकर बह निकलते हैं। पूरी उमर अपनेपन के लिए तरस गई शनिचरी के गले से भिखणी-भिखणी के नाम की आवाज भी बिल्कुल इस तरह से निकलती है जैसे सागर की लहरों का शोर।
किसने क्या समझा, नहीं मालूम । लेकिन मैं समझती हूं कि ये एक बेटी का दिल था जो अपनी मां की मौत पर जार-जार रो रहा था।
सच है कि रुदालियों की मौत पर कोई रोने वाला नहीं मिलता है, लेकिन शनिचरी रो गई। दर्शकों को भी रुला गई।
मन में दर्द का समंदर होते हुए भी तमाम उम्र जो एक बूंद आंसू के लिए तरस गई, वो मां के मरने पर रो गई। शायद समझ गई होगी अपनी मां की मजबूरियां। हां ऐसी ही तो होती हैं बेटियां !
इन बेटियों के लिए भी है क्या कोई दिन इस दुनिया में?
महिला समाज पर कलंक रुदाली प्रथा की तरह ही एक अन्य अत्यंत दुखदाई प्रथा का चलन और व्याप्त है हमारे देश के राजस्थान और हरियाणा प्रांत में कि लड़की पैदा होते ही उसे जिंदा गाड़ दो। इस नवजात बच्ची को भी जन्मते ही उठाकर ले गये गांववाले और गाड़ दिया उसे जमीन में । इधर उसकी साँसे चल ही रही थीं कि बच्ची की मौसी और पिता भाग-भाग कर गये उसकी जान बचाने । मिट्टी में गड़ी नन्हीं जान को अब पिता ने अपनी गोद में सुरक्षित कर लिया । गाँव वालों ने बहुत समझाया। विरोध किया कि क्या करोगे लड़की जात को पालकर ? कुछ काम नहीं आने की ये लड़की तुम्हारे । किंतु दूध से गोरी,फूल सी कोमल बच्ची के स्पर्श से पिता की संवेदनाऐं और साहस पूरी तरह जाग्रत हो गये । उन्होंने सबको घर से बाहर खदेड़ते हुए कहा कि – मेरी बेटी है । इसे पालना मेरी जिम्मेदारी है ।


पिता सपेरा समुदाय से थे । बीन की धुन पर साँपो को नचा-नचाकर ही आजीविका चलती थी ।
पिता को अपनी गुलाबी गालों वाली बेटी से बहुत लगाव था । इसलिए उन्होंने बिटिया का नाम धनवन्तरि से बदल गुलाबो कर दिया । गुलाबो भी अपने पिता और साँपो पर जान छिड़कती थी ।
पिता जब उसे छोड़कर साँप नचाने जाते तो गुलाबो खूब रोती-बिलखती । तब धीरे-धीरे उसके पिता उसे भी मेले – ठेलों में अपने साथ-साथ ले जाने लगे । पिता बीन बजाते तो गुलाबो भी साँपों को बदन में लिपटाकर लहराती । इस तरह नाचते-गाते उस बच्ची को कभी किसी के देखने से तो कभी किसी के सराहने से मौके मिलते गये, तो फिर अपनी लगन,मेहनत और पिता के सहयोग के दम पर वो छोटी बच्ची एक दिन कालबेलिया नृत्य की मशहूर नृत्यांगना गुलाबो देवी बन गई ।
१९८६ में वाशिंगटन में पहली बार अंतराष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुति दी राजीव गाँधी के सामने,किंतु दु:खद कि उससे एक दिन पहले ही उसके पिता इस दुनिया से चले गये । लौटकर आयी तो समूचा राजस्थान स्वागत करने को आतुर था। और फिर तब से अब तक तो न जाने कितना मान-सम्मान,प्रशंसा, दौलत,शोहरत अपनेआप राहों में बिछते गये । २०१६ में प्रतिष्ठित पद्मश्री पुरस्कार भी प्राप्त हुआ ।
आज गुलाबो देवी का प्रसंग छेड़कर समझाने का मतलब यह है कि बिटिया दिवस की बधाई भी उन्हीं मां-बाप को मिलनी चाहिए जो महकाऐं इस दुनिया को गुलाबोदेवी कालबेलिया जैसी हुनरमंद बेटियों की महक से।


प्रतिभा नैथानी
देहरादून, उत्तराखंड

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