1962 के अविस्मरणीय यादें

1962 के अविस्मरणीय यादें

वर्तमान में हिन्दुस्तान बहुत सारी मुश्किलों और चुनौतियों से जूझ रहा है।हमारा देश इस मुश्किल घड़ी में सिर्फ एकता, अखंडता, सतर्कता और जागरूकता से ही विजयी होगा।

ऐसा ही मुश्किल समय 1962 मे भारत चीन युद्ध के दौरान आया था जिसका हम हिंदुस्तानियों ने एकता बनाए रखते हुए डट कर मुकाबला किया था और अपने सैनिक भाईयो के मनोबल को ऊंचा उठाया था।

मैं 1962 में नवीं क्लास की छात्रा थी। उस समय की घटी हर घटना मेरे मानस पटल पर ज्यों की त्यों अंकित है। कैसे सैनिकों के साथ साथ देश की आम जनता में भी देश की सुरक्षा के लिये कुछ कर गुजरने का जुनून था।
1962 का युद्ध नार्थ ईस्ट क्षेत्र में हुआ था । हमारा शहर सीमावर्ती क्षेत्र था और संवेदनशील भी। हमारा शहर पूर्णिया बिहार, बंगाल, नेपाल, बांग्लादेश, सिक्किम और नार्थ ईस्ट के बॉर्डर इलाके में आता है इसलिये आए दिन नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता था। वहाँ आर्मी और एयर फोर्स का बेस था। डकोटा लेंन, जो उस समय का बड़ा लेन था, उसपर आना जाना लगा रहता था। हर नागरिक को सुरक्षा के नियमों का अभ्यास कराया जाता था। ट्रेंच क्या होता है और हमले के समय अपने को उसमे कैसे सुरक्षित जाना है, सायरन की आवाज़ पर क्या करना है, ब्लैक आउट इत्यादि तरह तरह की ट्रेनिग दी जाती थी। बोमडिला में बमबारी हुई थी जो हमारे क्षेत्र से ज्यादा दूर नहीं था। एयर हमले कि आशंका बनी रहती थी, इसलिए हमें हमेशा सावधान और चौकन्ना रहना पड़ता था।

उस समय मैं छोटी थी किन्तु जहाँ तक मुझे पता है कि देश आर्थिक समस्या से जूझ रहा था, हम साधन संपन्न नही थे और हमारे पास आधुनिक युद्ध सामग्रियों का अभाव था।ऐसी परिस्थिति में एक आम जनता पूरे जोश और जिम्मेवारी से अपने कर्तव्य निभाने में जुटी थी। मेरे पिता जी और दादा जी शहर के गणमान्य व्यक्तियों में आते थे। उनके सहयोग से शहर में गवर्नमेंट एप्रूव्ड वुलेन कमिटी के गठन किया गया। सीमा के जवानों के लिये स्वेटर, ग्लोव्स, मोजे, मफलर बुने जाते थे। सूखे नाश्ते और खाद्य सामग्रियां पैक किये जाते थे। मेरी माता जी, हम दोनों बहनें और परिवार की अन्य महिलाएं युद्ध स्तर पर दिन रात एक करके हाफ स्वेटर, फुल स्वेटर, मोजे, दस्ताने बुन कर उस कमिटी के माध्यम से सीमा पर भेजा करते थे। समाचार पत्रों में एक कॉमन नाप दिया गया था जिसके अनुसार हम लगातार बुनाई करते थे, जिसमें हमारा प्यार, हमारी संवेदनाएं और शुभकामनाएं शामिल रहती थीं। छोटी थी लेकिन आज भी याद है कि लम्बे चौड़े स्वेटर बनाने में भी कोई थकान नही होती थी, कितना आनन्द आता था। देश के कुछ भी काम आने का जज्बा ही अलग था।

नार्थ ईस्ट की सड़कें उस समय सक्षम नहीं थीं । रेल ही एकमात्र जरिया था सैनिकों और उनके साजो सामान को सीमावर्ती क्षेत्र तक ले जाने का। वो ट्रेनें हमारे शहर के स्टेशन से गुज़रती थी। इन स्पेशल ट्रेनों को स्टेशन पर रोका जाता था। हमलोग खाने के पैकेट, जो कुछ दिन रह सकें, ले कर स्टेशन पर जा कर इन योद्धाओं को भारतमाता के जयघोष के साथ सौंपते थे। हमलोग पूरे जोश से उनका उत्साह बढ़ाते थे। उस समय छोटी थी किन्तु आज भी उस सम्वेदना को महसूस करती हूँ। आज मैं सत्तर साल की हूँ किन्तु आज भी 1962 के युद्ध मे अपने दिए गए छोटे से योगदान को कभी नही भूलती हूँ। आज 58 वर्ष बाद भी अपने अनुभवों को नयी पीढ़ी के साथ साझा करने में खुद को गौरवान्वित महसूस करती हूँ। वो पूरे जोश और प्यार के साथ सैनिकों के हाथ मे खाने का पैकेट देना, माला पहनाना और जयघोष करना, ये मेरे अनमोल अनुभव हैं, जो मेरी स्मृतियों में सुरक्षित हैं।

आज चीन फिर से अपने नापाक इरादे के साथ कुटिल नज़र हमारे देश पर डाल रहा है तब 58 वर्ष पहले की सारी घटनाएँ याद आने लगी हैं।इस संकट की घड़ी में फिर से देश के सभी नागरिकों को एकजुट होने की आवश्यकता है। युद्ध तो युद्ध ही होता है। यह टल जाए , शान्ति कायम हो जाए, इसी में राष्ट्र एवं मानवता की सुरक्षा है, ऐसा मेरा मानना है।

जय हिन्द
भारत माता की जय
ॐ शान्ति ॐ शान्ति

उपमा कुमार
पुणे , महाराष्ट्र

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