बदबूदार कमरे

बदबूदार कमरे
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स्वतंत्रता का उत्सव क्या खाक मनायें हम,
अनगिनत घावों से रिस रहा जब इस धरा का तन मन।
नन्हीं कलियों के कुचले जाने के खबरों का है बाजार गरम,
और फिर भी कहते रहतें हैं बहुत महान है अपना वतन।
इधर सड़कें सजीं, मैदान सजें और तिरंगो से सजता रहा गगन,
उधर बढ़ती रही चंद बदबूदार कमरों की सीलन।
कुछ सनकी अय्याशों का हुआ यूं चरित्र हनन,
कि वहशीपन की सीमाओं को लांघने में तनिक ठिठके नहीं उनके कदम।
उधर कुछ बच्चियां गाती रहीं जन-गण-मन,
इधर कुछ बच्चियों के होते रहे चीर हरण।
दफ्तरों के फाइलों में उलझ कर परेशान रहा आम जन,
और शैतानों ने काटी मलाई, लेकर जेब में सारे नियम।
आजादी का उत्सव क्या मनायें हम,
जब सुरक्षित नहीं मां भारती का चमन।

 

ऋचा वर्मा
साहित्यकार

पटना

 

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