मानवता का शव 

मानवता का शव

इतिहास के खडंहरों,में क्षतविक्षत पडा है मानवता का शव…
सदियों,का सन्नाटा..
और ..दिलों दिमाग पर गूंजतीं …भयानक चीखें…
सरसराहट …दरकते रिश्ते

क्रदंन कराहती रुहों का..
पुराने दिनो की आखों से बहती धार में…

बताऔ..भविष्य की आँख में काजल सजाऊं कैसे???

दूर बहुत दूर ले आती कोकिला की आवाज़
किन्तू पास ..बहुत पास..
दिलों में बजते…
मनो को चीरतें…
सुबकते सन्नाटे…

देखती हूं जब..इन मकबरों को बजुर्गो की आँखों में दफन हुये इन सपनों में
..दो मन दो पाँव हो जाते हैं..
एक सना है वर्तमान की लाग लपेट में
और दूसरा चहल कदमी करने लगता है अतीत में…

ह्रदय के कुरूक्षेत्र में कितनी सैनायें ..खडी़ हैं,आमने सामने…
दिन रात शंखनाद ..सुन रहें हैं.
आज भी परदेसी हैं इन सड़कों पर..
आज भी अकेले हैं…

हाँ आज भी माँ की  आँखे रोती हैं…

वो जो एक लकीर पाट दी थी ..
भारत माँ की छाती पर..
वो जिसे भर दिया था इंसानी खून से…
मजहब के ठेकेदार ..
आज भी वहाँ ..
खूं से सिचाईं करते हैं. ..
वो जमीं आज भी रोती है..
वहाँ बस…
औजारों की खेती होती है ..
वो खालीपन में जीती हैं…
अपने ही भाई बन्दुऔं की लाशे ढोती है….

सोनम अक्स़

साहित्यकार

 

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