शहादत के खुले -अधखुले पन्ने
विद्रोह ,गदर, क्रांति-इन शब्दों के अर्थ कभी भी बहुत स्पष्ट नहीं रहे। जुल्म के खिलाफ समय-समय पर फूटे जन असंतोष को यदि शासकों , शासितों ने अलग- अलग नाम दिए तो इसका कारण स्पष्ट है-दोनों की मंशा अलग होती है, उद्देश्य अलग। जिस विद्रोह को विप्लव, गदर, राजद्रोह कहकर जुल्मी शासकों ने कुचला, जुल्म के शिकार विद्रोहियों ने उसे ही स्वाधीनता संग्राम कहा। क्रांति का अर्थ देकर उसके लिए अपनी जान की बाज़ी तक लगा दी-
‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजु -ए- कातिल में है।’
यह पंक्तियां अमर शहीद रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की भावना को ही व्यक्त नहीं करतीं, पूरे क्रांतिकारी आंदोलन का प्रतिनिधित्व भी करती हैं।भारतीय स्वतंत्रता संग्राम डेढ़ शताब्दी से अधिक समय तक बिखरा- फैला एक श्रृंखलाबद्ध पूरा क्रांति इतिहास है , जिसमें अल्पवय के किशोर- किशोरियों , महिलाओं से लेकर प्रौढ़ों, वृद्धों तक लाखों- लाख लोगों की हिस्सेदारी रही है। कुछ सौ- हजार नाम उभरकर सामने आए ,शेष इतिहास के अंधेरे गर्त्त में समा गए। विशेष उल्लेखनीय योगदान रहा किशोर- युवा पीढ़ी का। पढ़ने और खाने -खेलने की उम्र के फूल से कोमल, किंतु उर्जा- उमंग से भरे, देशभक्ति के जोश और सरफरोशी की तमन्ना से छलक- छलक पड़ते किशोरों ने जिस तरह हंसते- हंसते सीना तान कर गोलियां खाईं, आपस में होड़ लगाकर फांसी के तख्तों को चूमा, लंबी सजा के बदले फांसी मिलने पर अपनी जीत की घोषणा करते हुए सजा के ऐलान तथा फांसी के दिन की अवधि के बीच शहादत की खुशी में अपना वजन बढ़ाया, परिवार की ममता और मांओं के आंसुओं से मुंह मोड़, केवल भारत माता को पहचाना, यह अपने आप में एक अद्भुत मिसाल है।
“अपनी मां का एकमात्र सहारा होते हुए भी तुमने ऐसा क्यों किया?”काकोरी केस में सबसे छोटी उम्र, साढ़े पन्द्रह साल का होने के कारण 5 वर्ष की जेल की सजा पाए किशोर रामनाथ पांडेय का उत्तर था-“मैं एक और बड़ी मां के प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूं, इसलिए।”
इसी तरह क्रांतिकारी तरुण प्रतापसिंह बारहठ को गिरफ्तार कर अपने अन्य साथियों का भेद खोलने के लिए अंग्रेज सरकार ने यातनाएं देने के साथ अनेक लालच भी दिए-जेल से रिहाई, पैतृक संपत्ति लौटाना, चाचा का वारंट रद्द करना आदि ताकि वह अपनी मां के पास जा उसका रोना भी बंद कर सके, पर कुंवर बारहठ का उत्तर था-“मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं कुछ नहीं बताऊंगा, आपको जो करना है कर लें और मेरी मां को रोने दें कि देश की हजारों मांएं न रोएं।”और प्रताप सिंह बारहठ जेल में अमानवीय यातनाएं सहते हुए शहीद हो गया।
जब वंदे मातरम बोलने पर कोड़ों से पीटा जाता था, वैसे गुलाम आबोहवा में उन्नीस से भी कम उम्र में फांसी पर झूल जाने वाले खुदीराम कितना निर्भीक होकर कहते हैं-“ऐसे जुल्मी शासक (किंग्सफोर्ड) को मारना हमारा धर्म था। अब भी हमारे साथी उन्हें जिंदा नहीं छोड़ेंगे, जब भी मौका मिला, मारेंगे। आप मुझे चाहे फांसी पर चढ़ा दें, मातृभूमि की रक्षा और मुक्ति के लिए हम मौत को गले लगाने से नहीं डरेंगे।” ऐसे ही उनकी शव यात्रा में हजारों की भीड़ नहीं उमड़ी, लोगों ने ऐसे ही नहीं उनके चिता की भस्म को सिर माथे पर लगाया और तावीजों में गढ़वाया था।
खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने ,जिनकी पिटाई का बदला लेने के लिए ‘कसाई काजी’ किंग्सफोर्ड को निशाना बनाना चाहा, वे थे- अमर शहीद सुशील कुमार सेन। कोलकाता के नेशनल स्कूल के पन्द्रह वर्षीय विद्यार्थी सुशील कुमार सेन ,लाल बाजार की कचहरी के सामने एक भारी-भरकम शरीर वाले अंग्रेज सार्जेंट के निहत्थे भीड़ पर अकारण डंडे बरसाते हुए देख गुस्से से भड़क उठते हैं और उसी के हाथ से डंडा खींच सार्जेंट को ही दो-तीन डंडे जमा देते हैं , परंतु गिरफ्तार भी कर लिए जाते हैं। सजा स्वरूप मिलने वाली हर बेंत पर उतने ही अधिक जोर से वह ‘वंदे मातरम् ‘ बोलते रहें और तब तक ,जब तक कि उनकी पीठ की खाल छीलकर लटक नहीं गई और नीचे की मिट्टी खून से लाल नहीं हो गई। बेंत की इसी मार का बदला लेने के लिए बोस और चाकी किंग्सफोर्ड को अपना निशाना बना रहे थे। आगे चलकर भारत माता के इस वीर सपूत ने अपने प्राण जिस तरह भारत माता को अर्पित किए ,वह कहानी भी अपने आप में अद्वितीय है ।नदिया जिले के पारागपुर गांव के थानेदार के अत्याचार से तंग होकर 2 मई ,1915 की एक रात अपने कुछ सहयोगियों के साथ उन्होंने पुलिस चौकी पर आक्रमण किया परंतु पुलिस की गोली से घायल होने पर जब तेजी से भाग नहीं सकें और उन्हें लगा कि वह बचेंगे नहीं तो उन्होंने अपने साथियों से कहा कि बेहतर होगा कि वे उन का सिर काट कर यहां से भाग ले और धड़ यहां छोड़ दें। साथियों ने ऐसा क्रूर कर्म करने से इनकार किया तो सुशील कुमार ने उन्हें डांट लगाई-” क्यों मेरी दुर्गति कराते हो ?जैसा कह रहा हूं ,वैसा करो ।”साथियों को विवश होकर वैसा ही करना पड़ा। पुलिस को सुशील कुमार सेन का धड़ मिला ,सिर नहीं।
किशोर क्रांतिकारियों के इतिहास में एक अमर नाम चंद्रशेखर आजाद का है जिनके बारे में उनकी शहादत(27 फरवरी, 1931) के तुरंत बाद एक गोरे पुलिस इंस्पेक्टर ने अपनी डायरी में लिखा था-‘ऐसा निशानेबाज मैंने अपनी जिंदगी में दूसरा नहीं देखा। अकेला -तन्हा एक पेड़ की आड़ में सैकड़ों संगीनधारी पुलिसकर्मियों से धिरकर घंटों मुकाबले में डटे रहने वाला कोई साधारण इंसान नहीं हो सकता।’14 वर्ष की उम्र में ही अदालती कार्यवाही में मजिस्ट्रेट को अपना नाम ‘आजाद’, पिता का नाम ‘स्वाधीन’ और निवास ‘जेलखाना’ बताने वाला साधारण हो भी कैसे सकता था।
1857 के संग्राम के शहीद नारियों में एक उज्जवल तारा है-कुमारी मैना, नाना साहब की 14 वर्षीय
सुकुमार दत्तक बेटी, जब नाना की अनुपस्थिति में अंग्रेजों के हाथ लगी, तो उसे तरह-तरह के लालच दिए गए, धमकियां दी गई कि वह अपने अन्य साथियों का पता बता दे। पर मैना चट्टान की तरह अडिग रही। उसे पेड़ से बांधकर यातनाएं दी गईं। प्यास के मारे उसका गला सूख गया, होठों पर पपड़ियां जम गईं, पर उसे मांगने पर भी पानी की एक बूंद तक नहीं दी गई। उसे डराने के लिए पेड़ के चारों और लकड़ियां चुनकर चिता बना दी गई और कहा गया-“अभी समय है ,बता दो, नहीं तो जिंदा भून कर रख देंगे।”उत्तर में मैना ने उनके मुंह पर थूक दिया। चिता में आग लगा दी गई। वह न चीखी, न चिल्लाई ; उसने कस कर होंठ भींच लिए। चिता से आधी जली हालत में निकाल कर उससे फिर पूछा गया कि अभी भी उसकी जान बख्शी जा सकती है, यदि वह जो पूछा जाए ,सब बता दे। लेकिन जले जख्मों की पीड़ा झेलते हुए भी मैना ने उफ तक नहीं की ।हारने- झुकने के बजाय वह विद्रूपता से हंस पड़ी कि कर लो, जो करना हो ,वह कुछ नहीं बताएगी ।उसे दोबारा चिता में झोंक दिया गया।
मात्र 18 वर्ष की आयु में झारखंड के संथाल परगना के जंगली पहाड़ी इलाकों में अंग्रेजो के सामंती और दमनकारी प्रवृत्तियों के खिलाफ नायक बनकर उभरे थे- संथाल क्रांतिकारी तिलकामांझी, जिसने अंग्रेज अधिकारी क्लीवलैंड को अपने धनुष- बाण सेपरलोक पहुंचा दिया था। इस घटना के बाद ब्रिटिश सरकार एक बड़ी फौज लेकर भागलपुर की उस पहाड़ी को घेर लेती है जहां तिलकामांझी अपने साथियों के साथ युद्ध की योजनाएं बनाया करते थे और छापामार लड़ाइयां लड़ते थे। जमकर हुए संघर्ष में लगभग 300 वनवासी शहीद हुए जिसमें तिलकामांझी के चार भाई और उनकी पत्नी भी शामिल थी। ब्रिटिश फौज ने धोखे से तिलका मांझी को गिरफ्तार कर घोड़े के साथ बांधकर भागलपुर की सड़कों पर सरेआम घसीटा और फिर मरणासन्न स्थिति में बरगद के पेड़ पर उल्टा लटका दिया जहां उन्होंने अपने प्राण त्यागे।
धर्मयुग में एक क्रांतिकारी की डायरी ‘आशा शान’ के नाम से कई महीने छपती रही। वास्तव में यह डायरी भारती सहाय की थी जिनके क्रांतिकारी पिता श्री आनंद मोहन सहाय और माता श्रीमती सती सहाय को ब्रिटिश सरकार ने देश निकाला दे रखा था और वे जापान जाकर बस गए थे। भारती ‘रानी झांसी रेजीमेंट’ में लेफ्टिनेंट बन कर कई बार मौत की चुनौती का सामना कर चुकी थीं, अपने संस्मरण में लिखती हैं-“नेताजी को सामने पा मैं खिल उठी। जिद करने लगी कि मुझे भी अपने साथ ले चलें और ‘रानी झांसी रेजीमेंट’ में भर्ती करा दें। पर नेताजी ने मुस्कुराकर केवल इतना ही जवाब दिया, ‘एक साल बाद’। मैंने समझा, मुझे टाल दिया गया। ठीक एक साल बाद मुझे उनका आदेश मिला कि अब मैं रानी झांसी रेजीमेंट में भर्ती हो सकती हूं। मेरी हैरानी और खुशी का ठिकाना न रहा। वास्तव में वे मेरी उम्र 16 हो जाने की भी प्रतीक्षा कर रहे थे, यह मुझे बाद में मेरी मां ने बताया। और मैं कॉलेज छोड़, कॉलेज यूनिफॉर्म उतार, फौज की वर्दी पहन फौजी वेश में सज गई।’आगे वे अपने संस्मरण में लिखती हैं-“प्रस्थान करते करते मां ने सीख दी-बस अब नेता जी के हुक्म और भारत माता की बेड़ी काटने के अतिरिक्त और कोई भी विचार मन में न लाना। एक हिंदुस्तानी सिपाही के लिए न कोई घर होता है, न मां -बाप ,जाओ।”इन संस्कारों का ही प्रभाव था कि घर छोड़ते वक्त भारती उदास नहीं, बल्कि उत्साह और गर्व से भरी हुई थीं। उनका 16 साल का का कैशौर्य रक्त शत्रु को गोली से उड़ा देने के जोश से खलबला रहा था।
1942 के सितंबर महीने की 20 तारीख को स्थानीय कांग्रेस ने सुबह 10:00 बजे असम के गोपुर थाने पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का संकल्प किया। पूर्व और पश्चिम की ओर से ध्वज लेकर दो दल निकलें। पश्चिम टोली की नायिका थी 16 वर्षीय बाला कनकलता। थाने के बाहर सैकड़ों सिपाही हाथों में बंदूक लिए तैनात थे। उनका रौद्र रूप देखकर सत्याग्रही टोली में जरा दहशत दिखाई दी कि कनकलाता ने मुड़कर उन्हें ललकारा-“भाइयों, बहनों! मां के दूध को लजाना मत। बढ़ो और भारत माता की बेड़ियां काट दो। अपना राष्ट्रीय ध्वज फहराओ। विदेशी शासन की गुलामी के प्रतीक यूनियन जैक को उखाड़ फेंको। आज से अच्छा अवसर आपको फिर कभी नहीं मिलेगा।”कनकलता की जोशीली तकरीर सुनकर साथी भी निर्भय हो एक स्वर से चिल्ला उठें- “जन्म भूमि के उद्धार के लिए हम अपने प्राणों की बलि देने को तैयार हैं ,बहन। अपने को अकेली मत समझो।”उधर राइफलों ने गोलियां उगलीं और एक गोली पश्चिमी दल की फूल सी तरुण नेत्री की छाती को चीरती हुई निकल गई। निष्ठुर पुलिस की ओर से निकली गोलीवर्षा के बीच भी कनकलता का बलिदान खाली न गया और कई साहसी युवकों ने और भी उत्साहित हो आगे बढ़ थाने के ऊपर राष्ट्रीय ध्वज फहरा ही दिया।
“तिरंगा ऊंचा रहेगा, हिंदुस्तान आजाद होगा, इंकलाब जिंदाबाद, भारत माता की जय”-ऊंचे स्वर में इन शब्दों के साथ गगन को गुंजाते हुए एक 19 वर्षीय नौजवान उत्साहित हो बार-बार हंस-हंसकर फांसी के फंदे को चूमे जा रहा था और आसपास खड़े गिनती के लोग ठिठककर उसे हैरत से देखे जा रहे थें। फिर जब जल्लाद ने फांसी का फंदा उसके गले में डालते हुए उसके मुंह को कपड़े से ढकना चाहा, उसने तुरंत मुंह पर से कपड़ा हटा फंदे को पकड़ लिया-“मैं यह हार अपने गले में खुद डालूंगा।”और उसे वैसा करने दिया गया फिर एक बार जोर की आवाज “वंदे मातरम् ” और सब एक झटके में समाप्त। यह और कोई नहीं , हेमू कलानीजी हैं जिनकी स्मृति में भारत सरकार ने 18 अक्टूबर, 1983 ईस्वी को एक डाक टिकट जारी किया था और इस अवसर पर उनकी मां जेठाबाई को बुलाकर सम्मानित भी किया था। सिंध विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेजों द्वारा सैनिकों और हथियारों से भरी एक रेलगाड़ी को जब सिंध भेजने की खबर आई तो हेमू ने स्वयं आगे बढ़कर रास्ते में ही इस रेलगाड़ी को गिराने का जिम्मा लिया। 23, अक्टूबर 1942 की रात, क्रांतिकारी अपने काम में लगे थे लेकिन पुलिस की एक गश्ती टुकड़ी ने हेमू को पकड़ लिया। बेतों की मार, बर्फ की सिल्लियों पर लिटाना, भूखा -प्यासा रखना-तरह-तरह की यातनाएं। पर हेमू ने जबान नहीं खोली। सीना तान कर अपना अपराध स्वीकार किया कि वे ब्रिटिश राज्य का खात्मा चाहते हैं, इसके लिए वे मरने -मारने को तैयार हैं। उन्हें जो करना है, कर लें। हेमू न सजा से डरता है, न मौत से। वह तो भारत माता की आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान करना चाहता है।
ऐसी अनेक जानी -अनजानी कहानियों से स्वतंत्रता संग्राम के पृष्ठ अटे पड़े हैं, आवश्यकता है इन वीर गाथाओं को वर्तमान समाज और भावी पीढ़ी के समक्ष लाने की। वर्तमान और भविष्य दोनों को ही इस बात का भान होना चाहिए कि आजादी पाने के लिए कैसी- कैसी कीमत चुकाई गई है। हमारे पूर्वजों की गौरवगाथा देश के चरित्र निर्माण का आधार बनेगी। कृष्ण ने भी अर्जुन से अपने संवाद में एक बार कहा था,जैसे लोगों को समाज या देश में प्रसिद्धि मिलती है,समाज या देश वैसा ही बनता चला जाता है। पाठ्यक्रमों और अन्य माध्यमों से देशवासियों को एवं आने वाली संतति को इन बलिदानों की गाथा सुनाना देश में राष्ट्रीय मूल्यों की स्थापना तथा ‘जननी जन्मभूमि च स्वर्गादपि गरीयसी’ के शाश्वत सत्य की प्रतिष्ठापना के राह की ओर एक समुचित कदम होगा। सभी कलमकार, चाहे वे साहित्य से जुड़े हों, चाहे संचार माध्यमों से या चाहे इतिहास से, इस दिशा में अपनी भूमिका और प्रतिबद्धता को समझें और निर्वाह करें।
रीता रानी
जमशेदपुर, झारखंड।