मनीराम दीवान
अठारहवीं शताब्दी में अंग्रेज चाय चीन से खरीदते थे। मगर उनकी व्यापार में बेईमानी और लाभांश पर सौ प्रतिशत कब्जा चीन को नष्ट किये दे रहा था। अतः एक बड़ा युद्ध हुआ जिसमे चीन ने अंग्रेजों को चाय देने से इंकार कर दिया।जिससे उनका चीन की चाय पर से एकाधिकार जाता रहा।उधर अमेरिका भी अंग्रेजों से स्वतन्त्र हो गया और दास प्रथा का अंत हो गया। जब चीन ने अंग्रेजों को चाय देना बंद कर दिया और अमेरिका एक स्वतन्त्र राष्ट्र बन गया तब अंग्रेजों ने भारत में चाय उगाने का उद्यम किया।क्योंकि चाय की पट्टी से उनको २०० % का मुनाफा होता था। यूरोप में अंग्रेज ही अन्य देशों को चाय बेचते थे अतः वह व्यापार भी बंद होने लगा। यह लार्ड बेंटिंक के भारत आने के बाद हुआ।जो एक साफ़ इंसान था और सुधारवादी भी। चाय उगाने के इस नए प्रयोग के प्रणेता श्री मनीराम जी थे जिन्हें बाद में भगत सिंह की तरह फांसी दे दी गयी।
मनीराम के बाद जो सुधार हुए वह विश्व व्यापी बने और पूरे विश्व में दास प्रथा का स्वरूप बदल गया।अतः वह एक अमर आत्मा हैं।असम में उन्हें अवतार की तरह पूजा जाता है।
भारत का इतिहास दासता का इतिहास बन के रह गया। वह दासता जिसने नए राष्ट्रों का निर्माण किया और विश्व को अकूत धन कमाकर दिया।
हम बात करते हैं अंग्रेजों के अमानुषिक व्यवहार की ।फायदेपरस्ती के नशे में ईस्ट इंडिया कंपनी के निवेशकों ने चाय उगाने वाले खेतिहारों एवं मजदूरों की भौतिक आवश्यकताओं–भूख -प्यास, हारी-बीमारी , परिवार -पालन ,यहाँ तक कि शौच सफाई की ओर भी कभी ध्यान नहीं दिया।परिणामतः हजारों की संख्या में मजदूर मारे गए। चाबुक के जोर से चलने वाला यह उद्योग तंत्र घाटे का बायस बना। नए हाथ काम नहीं जानते थे। सीखे सिखाये किसान भाग जाते थे या मर खप जाते थे।परन्तु एक दिन उनका खून रंग भी लाया।
इतिहास ने भारत देश को समय समय पर अनेक महान पुरुष दिए हैं। ऐसे ही एक महापुरुष थे श्री मनीराम दत्ता बरुआ या मनीराम दीवान ।इनका उज्जवल नाम विश्व के महानतम व्यक्तियों में गिना जाना चाहिए। आज जब हम शहीदों का नाम लेते हैं तो भगत सिंह और साथियों का नाम सर्वोपरि आता है ,मगर मनीराम दीवान उनसे सत्तर वर्ष पूर्व हँसते हँसते देश के नाम फांसी पर चढ़ गए थे। देश के लिए प्राण न्योछावर करने वाले भी हमें किताबों में हजारों मिलेंगे मगर मनीराम दीवान ने , न केवल देश को हीं , समूचे विश्व को, एक ऐसा उत्पाद दिया जिसकी आमदनी की नींव पर आज पूरे विश्व की समूची अर्थव्यवस्था खड़ी है।
यह अनूठा उत्पाद था —- भारतीय चाय का पौधा !
” अंग्रेजों को चाय का पौधा दिखाने वाला व्यक्ति मनीराम दीवान ही था ”, ऐसा लिखा है अंग्रेज लेखक सैमुअल बेल्दन ने अपनी एक विज्ञप्ति में ।तारीख थी १८७७ ई०। उसके कुछ दिनों बाद यह ऐतिहासिक तथ्य स्टैनली बाल्डविन ने भी अपनी पुस्तक ‘असम की चाय ‘ में उधृत किया है ।
दीवान मनीराम बरुआ का जन्म १८०६ ई० में अप्रैल मास की १७ तारीख को हुआ। इनका परिवार मूल रूप से उत्तर प्रदेश के कन्नौज जिले से असम आया था और असम के अहोम राजवंश की सेवा में नियुक्त था । कालांतर में उसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए ,श्री मनीराम अहोम राजा पुरंदर सिंह के परामर्शदाता नियुक्त हुए । पुरंदर सिंह के बाद उनके पुत्र कामेश्वर सिंह व पौत्र कन्दर्पेश्वर सिंह की भी इन्होंने सेवा की। उच्च पद व आदर सम्मान के वातावरण में पले श्री मनीराम अपने व्यक्तिगत जीवन में चरित्र के उज्जवल , महत्वाकांक्षी व देशप्रेमी थे। उनका उन्नत व्यक्तित्व टूट भले ही जाय पर झुकाना संभव न था । उस समय अंग्रेजों के प्रभाव से देश के युवा व्यापार की ओर आकृष्ट हो रहे थे ।मनीराम जी को भी यह अभिलाषा थी । वह बुद्धिमान होने के साथ साथ तरक्की पसंद भी थे और अपने उद्योग से भविष्य बनाने की क्षमता रखते थे ।राज दरबार की गतिविधियों की गहरी पकड़ होने के कारण उनको शासन तंत्र को सुसंगठित रखने का अच्छा ज्ञान था ।इसलिए छोटी उम्र में ही उन्हें ‘ सिरास्तादार ‘ बना दिया गया। अंग्रेज तहसीलदार उनसे शासन की एवं अर्थव्यवस्था की बारीकियां पूछते थे । परन्तु मनीराम जी ने अपनी अस्मिता और गौरव का कभी सौदा नहीं किया ।
असम का राज्य अपनी जीर्णावस्था में था। राजा पुरंदर सिंह के समय में बर्मा के जंगली शासक जब तब असम के गाँवों पर हमला बोल देते थे और मवेशी ,अन्न , धन आदि लूट कर ले जाते थे ।बचपन से ही मनीराम जी यह उत्पात और इसके भयानक परिणाम देखते आ रहे थे।अंग्रेजों ने राजा पुरंदर सिंह की सहायता की एवं बर्मियों को मार भगाया, सन् १८२६ ई० में यान्दाबू की संधि हुई जिसके अनुसार बर्मा को यह हमले बंद करने पड़े।इससे अंग्रेजों की धाक पूरे असम पर हावी हो गयी।
मनीराम राजा के निजी सचिव व सलाहकार थे ,अतः राज काज से उनका आना जाना कलकत्ता लगा रहता था । उनकी योग्यता और अकलमंदी अंग्रेजों को भा गयी अतः उन को २२ वर्ष की अल्पायु में ही तहसीलदार बना दिया गया।अंग्रेजी भाषा इन्होंने सीख ली थी क्योंकि राजा की ओर से अंग्रेजों के साथ संवाद रखना इन्हीं का काम था।
पहले तो अंग्रेजों को असम का प्रान्त बेकार लगा मगर चीन के अफीम युद्ध के बाद से चाय की खपत ज्यादा और खरीद कम पड़ने लगी ।पिछले चार दशकों से यह लोग भारत में चाय उगाने के प्रयोग कर रहे थे परन्तु सफलता नहीं मिली थी।असम की धरती में सोना होने की विशेष सम्भावना थी।यहाँ से कोयला और तेल तो मिल ही चुका था। अब ईस्ट इंडिया कंपनी को असम की मूल्यवत्ता समझ में आने लगी तो उनका लक्ष्य बदल गया।
मनीराम राजकाज से कलकत्ता आते जाते रहते थे । सैमुअल बेल्दन अपनी विज्ञप्ति में साफ़ लिखते हैं कि एक बार जब वह ईस्ट इंडिया कंपनी के ऑफिस में थे उन्होंने कुछ अंग्रेज अफसरों को चाय के बीजों के बारे में बात करते हुए सुना।तब मनीराम ने उन बीजों को देखा और बताया कि यह पौधा असम के जंगलों में स्वतः ही उगता है।असम की सिंघपो जाति के लोग इसे पथ्य के रूप में पीते हैं ।१८२५ ई० में चार्ल्स अलेक्सान्दर ब्रूस ने मनीराम की सहायता से असम के जंगलों में चाय के पौधे को खोज निकाला और सिंघपो जाति के नेता बीसागाम से भी मिले . . विलिअम प्रिन्सेप नामक एक आदमी ने मनीराम की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि मै उसके शासन में चल रही भारतीय प्रबंधक समिति से बहुत खुश हूँ क्योंकि उनके सहयोग से हमें बहुत फायदा हो रहा है ।मनीराम का उत्तम प्रबंध और निर्देशन हमारे लिए अमूल्य है। वह हिसाब किताब में भी बेहद साफ़ और पक्का है। उसे खर्चे व नफा नुकसान जुबानी याद रहते हैं।जो नए नए बाज़ार उसने खोले हैं वह कालांतर में खूब धन कमाने का साधन बनेंगे। जनता के साथ जो व्यापारिक सम्बंध उसके कारण बने हैं वह हमारे बहुत काम आयेंगे और उनका विश्वास हम पर गहराएगा ।
अगले दस साल बीतते बीतते अंग्रेजों का लक्ष्य बदल गया ।कहाँ तो कहते थे कि अहोम राजा का सार्वभौम राज्य स्थापित करेंगे व उसे सैनिक सहायता देंगे ,और कहाँ बात बात पर झूठे इल्जाम लगाने लगे कि शासन ठीक नहीं है ।मनीराम अपने राजा के प्रमुख परामर्शदाता थे ।उन्हें ही इन झूठे मुकदमो से निपटना होता था . मनीराम की दोस्ती और सलाह दरकिनार अंग्रेजों ने पैंतरा बदलना शुरू किया अतः उनका विश्वास अंग्रेजों की दोहरी चालें देखकर एकदम टूट गया।सन १८३३ ई० में अंग्रेजों ने राजा पुरंदर सिंह को अयोग्य बता कर पदच्युत कर दिया और राजकाज अपने हाथ में ले लिया। राजा के साथ मनीराम ने भी स्वतः पदत्याग दिया जिससे अंग्रेज और भी जलभुन गए ।अंग्रेजों ने उनके विशेषाधिकार छीन लिए ।
सन् १८३५ ई० में जब डॉक्टर वालिख ने असम टी कमिटी बनाई ,मनीराम जी ने भी राजा की ओर से एक अर्जी पेश की जिसमे चाय की खेती करने की माँग की। वास्तव में मनीराम ही वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अपने बगीचे में चाय उगाई। हालांकि अंग्रेज इसका श्रेय कैप्टेन हैनी को देते है ।मगर सच बोलने वालों की कमी नहीं है।मनीराम जी की समझ में आ गया था कि आसाम का भविष्य चाय ही है ।सन् १८३९ ई० में दीवान मनीराम को अंग्रेजों ने ज़मीनों की खरीद फरोख्त करने के लिए असम कंपनी में नौकरी दे दी ।इस नौकरी में वेतन सिर्फ २०० रु माहवार थी मगर दीवान ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया ।उनके बगीचे में चाय तो उग ही रही थी पर उसको तैयार करने की पूरी विधि वह सीख लेना चाहते थे। केवल उगा लेने से काम नहीं चलने वाला था उसको व्यापार के स्तर पर लाने के लिए उन्हें वैज्ञानिक ढंग से ” तैयार माल ” बनाना आना चाहिए ।
इस नौकरी में वह ६ सालों तक बने रहे। १८४५ ई० में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। इससे अंग्रेज बहुत जल भुन गए।कोई देशी व्यक्ति उनके समक्ष सिर उठा कर बराबर का व्यापारी बने यह उनके सम्मान को चुनौती थी ।असहनीय अपराध ! फिर भी वह कानूनन कुछ भी नहीं कर सकते थे। इधर दीवान मनीराम और ज़मीन खरीदकर अपनी खेती को बढ़ाना चाहते थे।अंग्रेजों ने इसमे अड़ंगा लगाया।पर मनीराम चूके नहीं उन्होंने अपने निजी पैसे से ज़मीन खरीद ली और दो नए खेत लगाए — १.सिन्नामोरा प्लांट –जो जोरहाट के पास था और २. –सिगोलो प्लांट —जो शिबपुर के पास था। इस प्रकार लेफ्टिनेंट ऍफ़.एस हेने से कई साल पहले से मनीराम चाय उगा रहे थे जबकि धूर्त अंग्रेज उन्हें इसका श्रेय नहीं देते। शासन तंत्र और साथ के खेतिहर सब खार खाने लगे थे ।वह दीवान मनीराम को उखाड़ फेंकने के मौके की तलाश में रहने लगे।
मनीराम जी न केवल व्यक्तिगत व राज्य संबंधी कारणों से व्यथित थे वरन देश और समाज की दिन बा दिन बिगड़ती स्थिति भी उन्हें सता रही थी ।
नया गवर्नर जनरल , विलियम बेंटिंक ,एक सुधारवादी शासक बन कर आया था ।वह कुछ ऐसा करना चाहता था कि जिससे अंग्रेजों की बिगड़ी हुई छवि सुधर जाए। अमरीका की स्वतंत्रता के बाद से ईस्ट इंडिया कंपनी गच्चा खा रही थी ।चीन भी उनकी हार का नक्कारा बजा रहा था ।चाय के व्यापार पर से एकाधिकार ख़त्म हो जाने से बहुत नुकसान हो रहा था। उधर इंग्लैण्ड के राजा पर धर्म के ठेकेदारों का दबाव बढ़ रहा था। हिन्दू धर्म सर्व व्यापी था और इसका दर्शन और आत्मवाद अपने आप में एक ताकत था —पूरे देश की ताकत। इस धर्म को नीचा दिखा कर ही देश की ताकत को तोड़ा जा सकता था ।अतः बेंटिंक ने छाँट छाँट कर इस धर्म की कमजोरियों पर आघात करना शुरू किया ।भारत के पढ़े लिखे लोग भी उनके इस प्रयास में साथ देने लगे ।परन्तु आम जनता पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा क्योंकि इन सुधारों की आड़ में मिशनरी धर्म परिवर्तन कराने पर मजबूर करते थे। कामाख्या देवी के मंदिर में कुंवारी कन्याओं के दुरूपयोग के कारण पूजा ही बंद करवा दी गयी ।इससे जनता में आक्रोश फ़ैल गया। उनके विश्वासों की जरा भी कद्र नहीं की गयी ।
उधर से अंग्रेज दोहरी चालें चलकर फूट पैदा करवाते थे।असम में खेती करने के लिए मजदूर बिहार ,उडीसा ,राजस्थान ,उत्तर प्रदेश आदि राज्यों से लाये जाते थे ।असम वासियों की अपेक्षा इन्हें अधिक प्रश्रय प्राप्त था। इनमे से अनेक नीची जातियों के थे जिन्हें अंग्रेज क्रिश्चियन बनाकर अपना विश्वासपात्र बना लेते थे और ऊंची नौकरियाँ देकर असाम के भूमिहारों के ऊपर बैठा देते थे ।भूमिहार ठाकुर होते थे और अपनी जात की मर्यादा पर मरते थे।उन्हें इन विदेशी लगने वालों की ताबेदारी सहनी पड़ती थी। ये उनके गौरव को तोड़ने का अंग्रेजों का हथियार था ।इस तरह जाति व्यवस्था की उथल पुथल सर्वसाधारण को मान्य नईं थी। खान पान का विचार जाता रहा। इसके अलावा अंग्रेज जमीनों के मालिकों को तंग करके उनका मनोबल तोड़ देते थे और उनकी जमीनों को कब्जे में ले लेते थे। बाहर से आनेवाली जनता भुखमरी और बीमारियाँ ले आई ।असम का राजा जो स्वर्गदेव कहलाता था पदच्युत कर दिया गया। जो जन साधारण उनकी वन्दना करता था उनके लिए कोई नेता नहीं रह गया ,खासकर जबकि वह राजा को देवदूत मानते थे।
इन सबका परिणाम यह हुआ कि जनता का मनोबल गिरने लगा।अंग्रेजों ने फायदा उठाया ।अफीम का सेवन करना सिखा दिया , वही जो चीन के पतन का कारण बनी थी ।दीवान मनीराम अपने प्रिय राजा के दीन – हीन हाल पर बहुत दुखी थे। जनता का विश्वास अंग्रेजों की अदालतों पर न के बराबर था क्योंकि घूसखोरी का बोलबाला था ।पक्षपात और बेईमानी अंग्रेज खुलकर इस्तेमाल करते थे ।इन सबसे ज्यादा कमरतोड़ सज़ा थी लगान।जरूरत से ज्यादा राज्यकर किसानों की पीठ तोड़े डाल रहा था।
मनीराम जी ने इस अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाई । पथभ्रष्ट जनता की निरीह अवस्था उनको व्यथित कर रही थी ।१८५३ में उन्होंने एक पत्र मौफेट मिल्स को लिखा जिसमे इन परिस्थितियों का बयान किया। उन्होंने अपने पत्र में जनता की गिरी हालत का खुलासा किया और अहोम राज्य की पुनः स्थापना की माँग की ।उन्होंने अपनी देशभक्ति का खुलकर इज़हार किया ।मगर उनके इस पत्र को ” एक अजीब-ओ-गरीब चिट्ठा ” कहकर बर्खास्त कर दिया गया।अब अँग्रेज दीवान मनीराम को शक की निगाहों से देखने लगे।
यही वह समय था जब स्वतंत्रता की लौ पूरे देश में क्रान्ति ज्वाला बनकर धधक रही थी। १८५७ ई० अपनी पूरी ताकत से अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा बांधी हो रही थी। मनीराम भारत की स्थिति से पूरी तरह परिचित थे अतः उन्होंने छुपाकर गुप्त सन्देश अहोम राजा कन्दर्पेश्वर सिंह को भेजे।उन्होंने यह इच्छा भी प्रकट की कि एकजुट होकर विरोध करने से असम का राज्य भी अंग्रेजों के शासन से मुक्त हो सकता है। यह बात युवा राजा कन्दर्पेश्वर को भा गयी और उसने कतिपय अफसरों के खिलाफ मोर्चा तैयार कर लिया ।उसकी सेना के प्रमुख सेनापति सूबेदार नूर मुहम्मद व् भीखुं शेख भी फ़ौजी सहायता देने को राजी हो गए ।मगर भारत का दुर्भाग्य हमेशा पारिवारिक फूट रही है। राजा के रिश्तेदारों ने ही अंग्रेजों को इस षड़यंत्र की सूचना दे दी ।सिबसागर जिले के कमिश्नर चार्ल्स होल रोयड ने षड्यंत्रियों को क़ैद करवा लिया। बिना सबूतों के अपनी ही अदालत में उनपर मुकदमा चलाया। नक़ली गवाहों के बयानों पर उन्हें अपराधी ठहराया और अपील करने का अधिकार उन्हें नहीं दिया ।न वकील न ज्यूरी ना कोई सुननेवाला न कोई प्रश्न पूछनेवाला बस जेल में सबको डाल दिया ।अहोम राजा को अलीपुर जेल में क़ैद रखा बाद में गुवाहाटी में मार डाला ।उनके साथी व् देशभक्त द्युतिराम बरुआ और शेख फालूद को काले पानी भेज दिया गया।
दीवान मनीराम को इस पूरे कांड का नेता बताते हुए १६ फरवरी १८५८ ई० में बिना किसी सुनवाई या अभियोग के जोरहाट जेल में सीधा फांसी पर चढा दिया गया ।कहते हैं कि उनको क़ैद करने के लिए जाली पत्र लिखकर उनके सामान में रख दिया था जिसमे अंग्रेजों के खिलाफ लिखा था ।उनके साथ ही उनके प्रिय मित्र एवं देशभक्त पायेली बरुआ को भी फांसी दे दी गयी। कहा जाता है कि अपनी अंतिम इच्छा के अनुसार दीवान मनीराम ने अपने प्रिय हुक्के का कश लगाया और हंसते हुए फांसी पर चढ़ गए ।
मनीराम की मृत्यु ने असाम को झकझोर दिया ।उनको श्रद्धांजलि देने दूर दूर से जनता उनके आवास पर उमड़ पड़ी ।पूरे असम में मातम छा गया ।देश की आत्मा को आघात पहुंचा था।मनीराम दीवान उनके दिलों में निवास करते थे ।राजा से ज्यादा उनका सम्मान करते थे।
मगर उनके दुश्मनों की खुशी का ठिकाना न रहा ।अंग्रेजों ने शेर को मार गिराया था। वह खुशी से नाच रहे थे ।दीवान के साथ जो अमानुषिक व्यवहार किया गया वह अन्य भारतीय मूल के चाय उगाने वाले किसानों के दिल दहला गया ।उससे अंग्रेजों की ताकत का सिक्का बैठ गया।
परिस्थितियाँ मनीराम के प्रतिकूल बैठीं अतः वह अपने देशप्रेम की आग में स्वाहा हो गए परन्तु क्या धूर्त अंग्रेज सचमुच इस महान आत्मा से जीत सके ? क्या वे उसका दमन कर सके ? कतई नहीं !! मृत्यूपर्यंत भी श्री मनीराम जी अपने प्रिय देशवासियों के भले के लिए काम करने लगे । वह नहीं तो उनकी पवित्र आत्मा अपना करतब दिखाने लगी।
अन्य अंग्रेज खेतवाले ताल पर ताल देकर ठठा रहे थे ।दरअसल मनीराम जी के खेत ही उनकी निरंकुश ईर्ष्या का कारण थे। उन्हें ने प्रस्ताव रखा कि दीवान मनीराम जी के दोनों खेत नीलाम कर दिए जाये और जिस पुलिस अफसर ने उन्हें क़ैद किया था उसे ही दे दिए जाएँ ।अतः सिन्नामोरा प्लांट व् सेलुंग टी गार्डन ,दोनों जॉर्ज विलियम्सन नामक पुलिस अफसर के हाथ कौड़ियों के मोल बेच दिए गए।मनीराम जी के आवास महल को तोड़कर धराशायी कर दिया और उसे अंग्रेजों का कबरिस्तान बना दिया गया।यह अभी भी मौजूद है और ” दीवान प्लाट ” कहलाता है।
जॉर्ज विलियम्सन से असम की जनता इतना चिढ़ गयी कि उसको अपना नया खेत और दौलत भारी पड़ने लगा ।आसामी तो आसामी , चीनी मजदूर भी वह खेत छोड़कर अन्यत्र भाग गए ।पूरे साल की फसल और पैदावार नष्ट हो गयी ।१८५९ ई० यानि दीवान मनीराम के मरने के एक साल बाद ही वह लगभग दीवालिया हो गया । वह बीमार पड़ गया और उसके बाद उसे अवसाद और पश्चाताप ने घेर लिया ।जो पाप वह कर चुका था उसे दुबारा ठीक नहीं किया जा सकता था ।वह इतना क्षुब्ध हुआ कि उसने वह सारी खेती बेच दी और जो धन आया उसे मानव सेवा में लगा दिया।
अगले ६ वर्षों में उसने मजदूर वर्ग की सोचनीय दशा में सुधार किया व अपने साथियों को समझाया कि डंडे के जोर से नहीं, प्रेम के जोर से मजदूरों का विश्वास प्राप्त करने से उनकी कार्यक्षमता बढ़ाई जा सकती है जो कि उद्योग की सफलता के लिए अत्यावश्यक है मालिकों को अत्याचारी नहीं पालक बन कर रहना होगा।उसने प्रिंस ऑफ़ वेल्स टेक्नोलोजी कॉलिज की स्थापना की। कई स्कूल बनवाये और दीवान मनीराम की ही तरह सन १८६५ में जोरहाट में मरा ।
दीवान मनीराम जी असम के अमर शहीद ही नहीं बच्चे बच्चे के आत्मिक नेता बन गए । लोकगीतों में, बीहू गीतों में वह अलौकिक शक्तिसंपन्न देवपुरुष के रूप में पूजे जाने लगे ।यह उन्हीं की आत्मा का प्रताप था कि जॉर्ज विलियम्सन का ह्रदय परिवर्तन हुआ और मनीराम जी के प्रिय देशवासियों का उद्धार हुआ । दरअसल मजदूर वर्ग के लिए यह पिता समान पालन का सिद्धांत विश्वव्यापी बन गया और अंग्रेजों ने इसको अन्य देशों में भी कार्यान्वित किया। मालिकों का कानूनन यह कर्त्तव्य बना दिया गया कि वह अपने मजदूरों की सुख सुविधा का, स्वास्थ्य शिक्षा और जीवन स्तर का पूरा ख्याल रखें . इसी के बाद से चाय का भविष्य खिलता चला गया और जितना धन अंग्रेजों ने भारतीय चाय के पौधे से कमाया उतना कहीं से भी नहीं ।यही नहीं भारतीय चाय का पौधा पूरे विश्व में लगाया गया। चाय के व्यापारी इस सदी में विश्व के सबसे बड़े धनी हैं जो अपनी पूंजी से अंतर्राष्ट्रीय बैंक चलाते हैं।
जय बोलो श्री मनीराम दीवान की !!
कादम्बरी मेहरा
साहित्यकार
लंदन, ब्रिटेन