उनको ना भूल पाएँगे
स्वतंत्रता के 75वें साल को मनाते हुए अचानक उन सबकी याद आना जरूरी है। उनके त्याग एवम् बलिदान को कैसे भूल सकते हैं। उनकी जवानी को उन्होंने कुर्बान कर दिया। कर्नाटक राज्य में एक परम्परा का परिपालन किया जाता है जिसमें उन स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मान दिया जाता है। उनको आमंत्रित कर फूल माला और कुछ छोटी भेंट दी जाती है। उन स्वतंत्रता सेनानियों में एक उत्साह और गर्व देखते ही बनता है। पंद्रह अगस्त के एक सप्ताह पहले ही उनको एक चिट्ठी भेजी जाती है। उनके लिए गाँधी टोपी और अंगवस्त्र की व्यवस्था की जाती है। रंग बिरंगे परिधान में सजे धजे ये लोग मंच के एक तरफ बिठा दिए जाते हैं। उनकी थकी पुरानी, बूढ़ी हड्डियों में एक उबाल आ जाता है।
बरसों पहले इसी तरह के एक समारोह में पंद्रह गणमान्य स्वतंत्रता सेनानियों को आमंत्रित कर रहे थे हम। उन सबने गाँधी टोपी पहनी थी। नाम तो याद नहीं रहा अब लेकिन उन्होंने अपनी कहानी बड़ी रोचकता से सुनाई | तब वो शायद कॉलेज के प्रथम वर्ष के छात्र रहे होंगे। हरिहर सम्मेलन में भाग लेने गाँधी जी आए थे। उनका प्रभावशाली भाषण सुनकर कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी। काम था छोटे अखबार निकालना और उनको वितरित करना। सारे अखबार भोर अँधेरे ही एक गली के प्रिंटिग प्रेस में छपता और फिर साईकल पर उसे बॉट आते। कितना जोश और जज्बा था उस समय | बोलते हुए शायद 1930 के दशक में पहुँच गए। एक बार एक पुलिसवाले ने पकड़ लिया। तेज पैडल चलाते हुए भागे हम। पुलिसवाला भाग न सका और मैं छूमंतर। तब गोआ आजाद नहीं था और पुर्तगाली शासन में था। हरिहर से बचते बचाते गोआ राज्य की सीमा में प्रवेश कर गया। वहाँ से भी अखबार चलाना जारी रखा। उनकी बातें तो जैसे बाढ़ की तरह थीं–थमने का नाम न ले और अपनी जज्बातों को सँम्हालते हुए बताया कि फिर एक बार बस में लौटते हुए पकड़े गए। देशद्रोह था, हवालात में बंद कर दिया। लेकिन गाँधी की सेना को किसका डर? इक्कीस महीने के बाद निकले तो घर में किसी ने पहचाना नहीं। सेहत बिगड़ गई थी। भाई सरकारी नौकरी में था। उसको आँच ना आए, सोचकर घर से निकल गया। फिर दो बार और अंग्रेजों की मेहमान नवाजी की।
आजादी के बाद सोचा था कि गाँधी विचार के साथ एक स्कूल खोलूँगा। और
अपने जिले के एक गाँव में स्कूल खोल लिया। स्कूल में शुरु में दस बारह बच्चें आएं | गाँधी का नाम हर की जुबान पर था। चार साल पहले आर्थिक तंगी के कारण स्कूल बंद कर दिया।
इतने सालों में पहली बार उन्होंने स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रम में आने की हामी भरी थी। उनकी यह कहानी है तो बड़ी सरल, लेकिन प्रेरणादायक । उन्हें कोई रोष या मलाल नहीं था। अपने हाथ के बुने धोती-कुर्त्ते में जिंदगी काट दी। हाँ, सरकार की पेंशन को मना नहीं किया | जिंदगी के लिए दाल रोटी भी चाहिए। वहाँ बैठे बुर्जुगों में कमोवेश यही कहानी सबकी थी। कुछ राजनेता भी बने। एक भूतपूर्व मंत्री भी थे। 1952 में पहली बार चुनाव जीता था। राजनीति रास नहीं आई तो छोड़कर गाँधी जीवन दर्शन में समय काट लिया।
‘देश प्रथम’ के रस में सराबोर उन अनचिन्हे, अनजाने राष्ट्रप्रेमियों को सलाम।
जीवन में उन्होंने कभी कुछ माँगा नहीं। इस प्रेम को क्या नाम दे सकते है? हर गाँव, शहर, मोहल्लें में ऐसे सेनानी मिल जाएँगें। देश ने उन्हें ताम्रपत्र दिया, पेंशन भी दी, सम्मान भी दिया। लेकिन हमारी नई पीढ़ी उनसे बिल्कुल अनजान हैं। देश के इतिहास से अनभिज्ञ | गाँधी उन्हें करेंसी नोट पर दिख जाते हैं, इसीलिए याद है। स्वतंत्रता दिवस के इस अमृत महोत्सव शायद उनकी संख्या घटती ही मिलेंगी। लेकिन त्याग, बलिदान, प्रेम तो उनका अक्षुण्ण रहेगा। कर्नाटक में स्वंतत्रता सेनानियों के इस सम्मान की परम्परा जारी ही रहेगी। अन्य राज्यों में भी शायद यह परम्परा होगी। कितना अच्छा होगा अगर हम जिले को केन्द्र बिन्दु बनाकर इन हजार देशप्रेमियों की पुस्तक निकालें।
यह कार्य उतना सरल नहीं है लेकिन इतिहास के पन्नों को गवाह बनाकर ही
हम उनको याद रख पाएंगे। वो हमारी धरोहर हैं और उनके त्याग के कंधों पर यह भारत खड़ा है।
डॉ. अमिता प्रसाद
आईएएस,भारत