मूक बलिदान
अंग्रेज सेनापति जनरल ‘हे’ आश्चर्य से भर उठे। महल को भस्म कर देने का आदेश उनके होठों तक आकर रुक गया था। महल के बरामदे में एक अत्यंत सुंदर अल्पवयस्क बालिका खड़ी थी। मुखमंडल पर तेज और गाम्भीर्य। अब तक कहाँ थी यह ?पूरा महल तो छान मारा था। कहीं कोई नजर नहीं आया? बस थोड़ी बहुत संपत्ति हाथ लगी थी। तोप के गोलों से नाना साहब के महल को भस्म कर देने का निश्चय किया गया था। सैनिकों ने जब वहाँ तोपें लगाई और बस वह आदेश देने ही वाले थे तभी अचानक यह बालिका न जाने कहाँ से…….
बालिका का करुणापूर्ण मुख व अल्पवय देख सेनापति कुछ
द्रवित हुए।
सेनापति ने यह जानना चाहा कि आखिर वह चाहती क्या है?
” क्या आप इस महल की रक्षा करेंगे ?”- बालिका ने शुद्ध अंग्रेजी में पूछा।
सेनापति ने फिर प्रश्न किया-
” किस कारण से तुम ऐसा चाहती हो?”
बालिका ने फिर पूछा- “आप इस महल को क्यों गिराना चाहते हैं?”
सेनापति ने बताया –
“यह महल विद्रोहियों के नेता धुंधूपंत का था। सरकार ने इस महल को उड़ा देने का आदेश दिया है।”
बालिका ने विनय पूर्वक कहा कि दोषी वे हैं जिन्होंने आपके विरुद्ध हथियार उठाए। यह महल मुझे अत्यंत प्रिय है। कृपया आप इसकी रक्षा कीजिए।
सेनापति ‘हे’ ने अपनी विवशता प्रकट करते हुए कहा कि वह चाह कर भी यह नहीं कर सकते। कर्तव्य वश यह महल उन्हें गिराना ही होगा। तब बालिका ने अपना परिचय देते हुए कहा कि वह इस बात से परिचित है कि वह जनरल ‘हे’ हैं। उनकी प्रिय कन्या मेरी उसकी विभिन्न सखी थी। कई वर्ष पूर्व तक मेरी उसके पास आती रही थी। उस समय वे भी उसके घर आते रहते थे और उसे भी पुत्रीवत् स्नेह करते थे ।मेरी की मृत्यु से वह बहुत दुखी थी। मेरी का एक पत्र अभी तक उसके पास सुरक्षित है।
मर्माहत से सेनापति किंकर्तव्यविमूढ़ से स्तब्ध खड़े रहे। उन्होंने नाना साहब की पुत्री मैना को पहचान लिया था। मृत पुत्री की याद ने उन्हें विचलित कर दिया था। स्वयं पर संयम रखते हुए कहा कि वे उसे पहचान अवश्य गए हैं पर कर्तव्य व सरकारी आदेश की अवहेलना वे नहीं कर सकते। अपनी असमर्थता बताते हुए उन्होंने आश्वस्त किया कि वह उसे बचाने का प्रयत्न अवश्य करेंगे।
जनरल ‘हे’ द्रवीभूत थे।वे नाना साहब के महल और मैना दोनों को बचाना चाहते थे। तभी प्रधान सेनापति जनरल अउटरम वहाँ आ पहुँचे । अपने आदेश के पालन में विलंब होते देख उन्होंने बिगड़ कर पूछा –
“अभी तक महल उड़ाया क्यों नहीं गया?”
जनरल ‘हे’ ने पूछा – “क्या इस महल को किसी तरह से बचाया जा सकता है? ”
प्रधान सेनापति जनरल अउटरम ने कहा कि गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग की आज्ञा के बिना यह कतई संभव नहीं है। इस आशय से एक तार गवर्नर जनरल को भेजा। प्रधान सेनापति अउटरम जनरल ‘हे’ के विचारों से सहमत नहीं थे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि इस महल को विध्वंस किए बिना और नाना साहब की लड़की को गिरफ्तार किए बिना वे नहीं छोड़ सकते। सेनापति ‘हे’ दुखी मन से चले गए। वह नाना साहब की पुत्री और उनके महल को बचाना चाहते थे। उसी संध्या लार्ड केनिंग के तार ने अंग्रेजों की दुर्भावना को उजागर कर दिया। अंग्रेज सरकार नाना साहब को तो नहीं पकड़ सकी पर उनके विद्रोह का बदला वह उनके महल को नष्ट करके व उनकी मासूम निर्दोष बालिका को गिरफ्तार करके लेना चाहती थी।
वह नाना साहब से संबंधित प्रत्येक स्मृति चिन्ह को मिटाना चाहती थी। संध्या समय जनरल अउटरम ने नाना साहब के महल को घेर लिया। अंग्रेज विद्रोही सैनिक अंदर घुस गए और मैना को खोजने लगे। पर वे उसे खोजने में असफल रहे। नाना के महल को अंग्रेजों ने खंडहर बना दिया । उस विशालकाय महल को घंटे भर में खाक में मिला दिया गया। अब उस महल के अवशेष भर बाकी थे।
सन 1857 … सितंबर माह चांदनी रात में आधी रात को उस खंडहर महल के ढेर पर नाना साहब की पुत्री मैना निर्विकार भाव से रो रही थी। आँखों से अश्रु अनवरत बह रहे थे। बीच-बीच में वह सिसकियाँ ले रही थी। अपने इस महल से उसे बेहद प्यार था उसने चाहा था कि उस महल को तोपों से ना उड़ाया जाए पर अंग्रेजों ने उसकी एक न सुनी। महल को तोपों से उड़ा दिया गया। उसका प्रिय महल खंडहर में बदल चुका था और इसी दर्द से विवश होकर वह रो रही थी। उस शांत रात्रि में बालिका के रह रह कर रोने की आवाज आ रही थी। जनरल अउटरम के सैनिक पास ही ठहरे थे।वे मैना के रोने की आवाज सुनकर वहांँ आ गए।
मैना केवल रोती रही। सैनिकों के प्रश्नों का उत्तर भी उसने नहीं दिया। सभी जनरल अउटरम भी वहांँ पहुंच गया। जनरल अउटरम ने उसे तुरंत पहचान कर कहा -अरे यह तो नाना की बेटी मैना है। मैना के चेहरे पर डर का नामोनिशान नहीं था। जनरल अउटरम ने आगे बढ़ कर उसे गिरफ्तार करना चाहा ।मैना ने अत्यंत कातर भाव से यह प्रार्थना की कि उसे जी भर कर कुछ देर रोने दिया जाए पर उसकी यह अंतिम इच्छा भी निर्दयी प्रधान सेनापति ने पूरी नहीं होने दी। नाना साहब
की अल्पवय बालिका की करुण एवं दयनीय स्थिति भी जनरल अउटरम के पाषाण हृदय को मोम नहीं बना सकी। मैना के हाथों में हथकड़ी डालकर उसे गिरफ्तार कर लिया गया और कानपुर के किले में डाल दिया गया।
बालिका की दुख भरी कहानी यहीं समाप्त नहीं हुई। कानपुर के किले में एक भीषण हत्याकांड को अंजाम दिया गया। नाना साहब की एकमात्र पुत्री को अग्नि में जलाकर भस्म कर दिया गया। सौम्य श्वेत धवल वस्त्रों में सुसज्जित वह शांत सौम्य सरल अनुपम बालिका धू धू करके बलीवेदी पर जलती रही… जलती रही…कालांतर में उसे देवी की संज्ञा से विभूषित किया गया।
आनन्द बाला शर्मा
वरिष्ठ साहित्यकार
जमशेदपुर,झारखंड
[नोट–यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि सन् 18 57 की क्रांति के विद्रोही नेता धुंधूपंत नाना की पुत्री बालिका मैना आजादी की नन्हीं सिपाही थीं जिसे अंग्रेजों ने जलाकर मार डाला। हिंदी पंच के बलिदान अंक से ली गई इस रचना की मूल लेखिका हैं द्विवेदी युग की ‘चपला देवी’। रचना का रूपांतर किया है आनंद बाला शर्मा ने।]