वीरांगना आजीजन बाई
आजादी की चेतना मनुष्य की मौलिक प्रवृत्ति है । स्वतंत्रता की पहली लड़ाईअट्ठारह सौ सत्तावन मे भाग लेने वाले असंख्य लोगो, किसानों, मजदूरों, फौजियों और सेनानायको के साथ ऐसे पेशे से जुड़े लोग, जिन्हें समाज में बहुत सम्मान जनक नहीं माना जाता है ,के भी सम्मिलित होने और आजादी की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व निछावर कर बलिदान देने की अनेकों दृष्टांत है ।
इनमें कितने ऐसे नायक नायिकाएं भी हैं जिन्होंने इस युद्ध में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया किन्तु उनके नाम उनकी कथाएं समय के परतों के बीच दबी रह गईं। इतिहास में उनका नाम बहुत कम दर्ज हुआ है या नही हुआ है। इतिहास ने उन्हें याद करने का जहमत भी नहीं उठाया है।इसीलिए यह कहा जाता है कि इतिहास हमेशा न्याय नहीं करता वह शासक वर्ग की भाषा बोलता है।
स्वतंत्रता संग्राम में बहुत सारी महिलाओं ने अपना बलिदान दिया। यह भी उस समय ,जबकि समाज में सामंती व्यवस्था का शिकंजा पूरी तरह से जकड़ा हुआ था । महिलाओं को कोई आजादी नहीं थी। उनमें इतनी शिक्षा भी नहीं थी और ना ही उनका सार्वजनिक जीवन में जाने का चलन ही था। ऐसे समय में भी कुछ महिलाओं का आगे आकर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना एक क्रांतिकारी कदम और उस समय के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात थी ।अतः इस संदर्भ में उन महिलाओं को जानना बहुत महत्वपूर्ण और प्रेरक होता है। ऐसे लोगों को इतिहास भले ही भुला दिया हो परंतु समाज में सांस्कृतिक धरोहर के कुछ संवाहक ऐसी घटनाओं और ऐसे लोगों को अपने लोक कथाओं और लोक संगीतों में जीवित रखें हुए हैं। कस्बों और गांवों के संगीत में इसका जिक्र मिलता है।
आज मैं ऐसे ही एक वीरांगना के विषय में आपसे बात करने जा रही हूं जिसके अंदर देश प्रेम कूट कूट कर भरा था जिनका नाम-वीरांगना आजीजन बाई।
आजादी की चेतना मनुष्य की मौलिक प्रवृत्ति है । स्वतंत्रता की पहली लड़ाईअट्ठारह सौ सत्तावन मे भाग लेने वाले असंख्य लोगो, किसानों, मजदूरों, फौजियों और सेनानायको के साथ ऐसे पेशे से जुड़े लोग, जिन्हें समाज में बहुत सम्मान जनक नहीं माना जाता है ,के भी सम्मिलित होने और आजादी की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व निछावर कर बलिदान देने की अनेकों दृष्टांत है ।
इनमें कितने ऐसे नायक नायिकाएं भी हैं जिन्होंने इस युद्ध में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया किन्तु उनके नाम उनकी कथाएं समय के परतों के बीच दबी रह गईं। इतिहास में उनका नाम बहुत कम दर्ज हुआ है या नही हुआ है। इतिहास ने उन्हें याद करने का जहमत भी नहीं उठाया है।इसीलिए यह कहा जाता है कि इतिहास हमेशा न्याय नहीं करता वह शासक वर्ग की भाषा बोलता है।
स्वतंत्रता संग्राम में बहुत सारी महिलाओं ने अपना बलिदान दिया। यह भी उस समय ,जबकि समाज में सामंती व्यवस्था का शिकंजा पूरी तरह से जकड़ा हुआ था । महिलाओं को कोई आजादी नहीं थी। उनमें इतनी शिक्षा भी नहीं थी और ना ही उनका सार्वजनिक जीवन में जाने का चलन ही था। ऐसे समय में भी कुछ महिलाओं का आगे आकर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना एक क्रांतिकारी कदम और उस समय के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात थी ।अतः इस संदर्भ में उन महिलाओं को जानना बहुत महत्वपूर्ण और प्रेरक होता है। ऐसे लोगों को इतिहास भले ही भुला दिया हो परंतु समाज में सांस्कृतिक धरोहर के कुछ संवाहक ऐसी घटनाओं और ऐसे लोगों को अपने लोक कथाओं और लोक संगीतों में जीवित रखें हुए हैं। कस्बों और गांवों के संगीत में इसका जिक्र मिलता है।
आज मैं ऐसे ही एक वीरांगना के विषय में आपसे बात करने जा रही हूं जिसके अंदर देश प्रेम कूट कूट कर भरा हुआ था ।समाज में लोग उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते भी नहीं थे,मगर उसने अपने राष्ट्रप्रेम की जो मिसाल दी, बिरले ही ऐसे मिसाल पेश कर पाएंगे। इस वीरांगना का नाम था अजीजन बाई।
(फोटो-साभार)
बात स्वतंत्रता की पहली लड़ाई अठ्ठारह सौ संतावन के समय की है ।अंग्रेजो की भारत वासियों के साथ बदसलूकी एवं प्रताड़ना करने की प्रवृत्ति निरंतर बढ़ती जा रही थी। सन् 1757 के प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की जीत ने उनके मनोबल को और भी बढ़ा दिया था। लॉर्ड डलहौजी ने दत्तक कानून लाकर राजा के निसंतान होने पर राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला लेने का नियम बना दिया । बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहेब की पेंशन रोक दी गई जिससे शासक वर्ग में विद्रोह की भावना मजबूत होने लगी थी।सन् 1850 तक लॉर्ड डलहौजी ने भारत के अधिकांश हिस्सों को अपने अधीन कर लिया था ।टपऔर राजाओं की राजकीय उपाधियां भी खत्म कर दी थी। भारी टैक्स और राजस्व संग्रह के नियम बनाकर किसानों एवं जमींदारों पर कई प्रकार के अंकुश लगा दिए थे। जिसके कारण किसानों एवं जमींदारों में आक्रोश की भावना पनपने लगी थी। साथ ही साथ इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के होने से भारत के बाजारों में भी ब्रिटेन के सामानों की भरमार हो गई थी। फलस्वरूप यहां के कुटीर उद्योग धंधें बंद ही हो गए थे। जिससे इनके रोजी-रोटी पर बन आई थी। इसके साथ ही अंग्रेज सैनिको और भारतीय सैनिको के साथ दोहरे व्यवहार से भारतीय सैनिक भी असंतुष्ट थे। जबकि भारतीय सेना के माध्यम से हीं अंग्रेजों ने भारत में अपने राज्य की स्थापना की थी ।मगर इन्हें ना हीं उतनी इज्जत दी जातीऔर ना हीं उन्हें उतना वेतन ही दीया जाता जितना अंग्रेजों के सैनिकों को दीया
जाता था।
यूं तो 19वीं सदी के पहले दशक तक भारत के अनेक हिस्सों में अंग्रेजों के विरुद्ध कई जनजातीय विद्रोह हो चुके थे ,यथा मध्यप्रदेश में भीलो का विद्रोह ।झारखंड में संस्थानों का विद्रोह। उड़ीसा मैं गोड्स एवं खोड्स जनजातियों का विद्रोह परंतु ऐसे विद्रोह सीमित स्तर पर यानी क्षेत्रीय स्तर पर हुआ था, जिसका प्रभाव व्यापक नहीं पड़ा था। अंग्रेजो के खिलाफ संगठित रूप में जो विद्रोह भड़का वह था सन् 1857का विद्रोह। यूं तो यह विद्रोह सिपाहियों के विद्रोह के रूप मे भड़का परंतु देखते देखते ही यह भारत के कई राज्यों में फैल गया। इस संग्राम में जहां बड़े-बड़े योद्धाओं सैनिकों ने अपने जान की बाजी लगाई वहीं हमारे यहां की अनेक वीरांगनाओं ने अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया जिसमें कई तवायफो ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई इनमें से एक थी नाच गान से मनोरंजन करने वाली कानपुर की
अजीजन बाई।
‘ रूडयार्ड किपलिंग ऑन द सिटी वॉल मे’1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तवायफो की अंग्रेजी हुकूमत विरोधी गतिविधियों का जिक्र मिलता है।
अजीजन बाई के जन्म के विषय में कई बातें कही जाती है। कुछ लोगों का मानना है कि अजीजन बाई का जन्म 1832 में मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के एक धर्म निष्ठ ब्राह्मण परिवार में हुआ था उनके पिता शमशेर सिंह एक बड़े जमींदार थे। बचपन से ही अजी जान रानी लक्ष्मीबाई से बहुत प्रभावित थी,और उन्हीं की तरह रहना पसंद करती थी। वह पुरुषों का लिबास पहनती घुड़सवारी भी करती और तलवार भी चलाती। परिस्थितियों की मारी किसी दुर्भाग्यवश उन्हें कानपुर आकर नाचने गाने वाली तवायफ बनना पड़ा था। तो वही कुछ लोगों के अनुसार अजीज बाई का जन्म 1832 में लखनऊ में ही हुआ था। परंतु उनकी मां भी एक तवायफ थी।और अजीजन जब बहुत छोटी थी तभी उनके मां का देहांत हो गया थ। जिसके बाद अजीजन कानपुर आकर मशहूर तवायफ उमराव जान अदा के साथ नाचने गाने लगी।
जो भी हो वह कानपुर आकर तवायफ बनी थी ।और उन्होंने अट्ठारह सौ सत्तावन के स्वतंत्रता संग्राम बहुत ही अहम भूमिका निभाई थी। कानपुर में ही उनका संपर्क क्रांतिकारियों से हुआ था।यह सच है कि वह तवायफ थी ,परंतु उनके हृदय में देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। इसीलिए एक बार जब तात्या टोपे जो बिठूर के शासक नाना साहेब के सैन्य प्रमुख थे,ने होली पर अज़ीज़ बाई को नृत्य करने के लिए बिठूर आने का न्योता दिया तो अजीजन बाई ने बड़े ही आदर के साथ इसे स्वीकार किया और बिठूर पहुंच गई ।नृत्य खत्म होने के बाद जब तात्या टोपे ने उन्हें पैसा देना चाहा तो वे पैसे लेने से इनकार कर दीं और कहा कि अगर कुछ देना ही चाहते हैं तो आप मुझे सैनिक की वर्दी दे दे। मैं भी अपनी मातृभूमि के लिए कुछ करना चाहती हूं। तात्या टोपे ने अजीजन बाई के देश भक्ति की भावना से प्रसन्न होकर उन्हें सेना की वर्दी दे अपने सेना के मुखबिर के कार्य भार को सौंपा। इतिहासकार मनोज कपूर कहते हैं “अजीजन बाई मूलगंज में रहती थी होली पर्व पर वह नित्य करने के लिए बिठूर गई और अपने घुंघरू की झनक से क्रांति की नई इबादत लिखदी”। नाना साहबा एवं तात्या टोपे के अनुमति से अजीजन बाई ने महिलाओं की दस्ता तैयार की।
एक जून अट्ठारह सौ सत्तावन को क्रांतिकारियों ने कानपुर में एक बैठक की इसमें नाना साहब, तात्या टोपे ,सूबेदार टीका सिंह, समसुद्दीन खान और अजीमुल्ला खां के अलावा अजीजन बाई ने भी हिस्सा लिया और यहां सभी ने गंगाजल को साक्षी मानकर ब्रिटिश
हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया। अजीजन बाई अंग्रेजों से अपने हुस्न के दम पर संवेदनशील जानकारी एकत्रित करती और उसे विद्रोहियों के पास भेजती। लड़ाई के मैदान में अपने महिला दस्ते के साथ भी सम्मिलित होती और साथ-साथ वह अन्य महिलाओं को अस्त्र और हथियारों का उपयोग करने का प्रशिक्षण भी देती। पुरुषों को इस संग्राम में सम्मिलित होने के लिए प्रोत्साहित करती। युद्ध रत सैनिकों के लिए फल ,फूल ,दवा का इंतजाम कर पहुंचाती ।घायलों की सेवा करती और इस संग्राम में शहीद हुए सिपाहियों के परिवार की परवरिश भी करती।प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार ‘सर जॉर्ज ट्रेबिलियन’ने अजीजन बाई को एक योद्धा के रूप में वर्णन करते हुए लिखा है कि
“घोड़े पर सवार सैनिक वेशभूषा में अनेक तगमे लगाए और हाथ में पिस्तौल लिए अजीजन बिजली की तरह अंग्रेज सैनिकों को रौधती चली जाती थी।उसके साथ महिलाओं की घुड़सवार टुकड़ी भी घूमा करती थी। सैनिकों को हथियार देना प्यार से सैनिकों को पानी पिलाना एवं घायलों की देखभाल करना उनके मुख्य कार्य थे।”
वह देश भक्तों को जितना स्नेह देती और उनके साथ मधुर व्यवहार करती , युद्ध से विमुख होकर भागने वाले सैनिकों से वे उतनी ही कठोरता से पेश आती। वीरों को प्रेम का पुरस्कार मिलता जबकि कायरों को धिक्कार तिरस्कार ।ऐसे सुंदरियों के तीखे शब्द वाणोंऔर उपेक्षित निगाहों की कटारों से अपमानित होने की अपेक्षा सैनिकगण रणभूमि में लड़ते लड़ते प्राण गंवा देना ज्यादा बेहतर समझते थे।
मेकिंग द मार्जिन विजिबल’ में लता सिंह ने लिखा है कि “अजीजन बाई कानपुर में तैनात दुसरी घुड़सवार सेना की चहेती थी। वे खास तौर पर समसुद्दीन नाम के एक सैनिक के करीब थी ।उनका घर सैनिकों के मिलने की जगह थी।”
अजीजन बाई अच्छी तरह जानती थी कि यदि अट्ठारह सौ सत्तावन के स्वतंत्रता संग्राम में भारत जीत भी जाता तो उन्हें कोई दौलत,कोई क्षेत्र या व्यक्तिगत लाभ नहीं मिलता फिर भी उन्होंने अपनी मातृभूमि को आजाद करने के लिए अंग्रेजों से ना सिर्फ वीरता पूर्वक युद्ध किया बल्कि अपनी सारी संपत्ति, धन दौलत गहने क्रांति मे लगने वाले आवश्यक सामग्रियों के लिए न्योछावर कर दिया।
अट्ठारह सौ सत्तावन के जून मे क्रांतिकारियों ने मिलकर अंग्रेजों को शिकस्त दी और नाना साहब को बिठूर का स्वतंत्र शासक घोषित किया। मगर यह जीत कुछ दिनों तक ही बनी रही। 16 अगस्त को पुनः अंग्रेजों ने बिठूर पर अपना कब्जा स्थापित कर लिया नाना साहब और तात्या टोपे तो जान बचाकर किसी तरह भाग निकले परंतु अजीज बाई पकड़ी गई और उन्हें युद्ध बंदी के रूप में जनरल हैवलॉक के सामने पेश किया गया। उसके अप्रतिम सौंदर्य को देखकर अंग्रेज अफसर हैवलॉक मुग्ध हो गया। उसने अजीजन बाई के सामने एक प्रस्ताव रखा कि अगर वह अपनी गलतियों को स्वीकार कर के माफी मांग ले तथा नाना साहब और तात्या टोपे के विषय में बता दें कि वे लोग कहां छूपे हैं तो वे उसे क्षमा कर देंगे और वह चाहेगी तो उसे उसकी रास रंग की दुनिया में पुनः भेज देंगें । यहां तक कि हैवलॉक ने उसे अपनी पत्नी बनाने का भी आश्वासन दिया परंतु यह सुनते ही अजीज बाई शेरनी की तरह दहाड़ते हुए यह कहा की माफ़ी तो अंग्रेजों को मांगनी चाहिए जिन्होंने भारत वासियों पर इतने जुल्म किए हैं ।इस अमानवीय कृत्य के लिए वह जीते जी उन्हें कभी माफ नहीं करेगी। यह कहने का अंजाम अजीजन बाई को अच्छी तरह मालूम था ,पर आजादी की दीवानी अजीजन को न कोई डर था न कोई परवाह थी।
एक तवायफ के मुख से ऐसे जवाब सुनकर अंग्रेज अफसर गुस्से से पागल हो गए । उन्हें बहुत ही बेइज्जती महसूस हुई और उन्होंने तुरंत सैनिकों को अजीजन को मौत के घाट उतारने का आदेश दे दिया। देखते ही देखते अंग्रेज सैनिकों ने गोलियों से उसके शरीर को छलनी कर दिया। इस प्रकार आजीजन बाई ने यह सिद्ध कर दिया कि ‘वह बरांगना नहीं बल्कि वीरांगना है’। जिसेअपनी मातृभूमि से बहुत प्रेम था और इसके गौरव के रक्षा के लिए बेझिझक अपने प्राणों की आहुति दे दी।
आजीवन बाई की कहानी निस्वार्थता, सम्मान और बहादुरी की कहानी है जो सभी पीढ़ियों के लिए एक मिसाल एक प्रेरणा है। इनकी जज्ब़े इनकी वीरता की कहानी अवध क्षेत्र में अभी भी कहीं न कहीं इस प्रकार से सुनने को मिल जाता है:—
“फौजी तोपों से मिली आजीजन
हमहू चलब मैदान मा
बहू बेटिन कै इज्जत लुटै
काटि फैलब मैदान मा
किसान राक्षस बसै न पइहैं
मारि देब घमासान मा
भेद बताउब अंग्रेजन कै
जेतना अपनी जान मा
भेद खुला तउ कटी अजीजन
गई धरती से आसमान मा।”
ऐसे महान वीरांगना को हमारा शत शत नमन।
ज्योत्सना अस्थाना
वरिष्ठ साहित्यकार एवं पूर्व राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित शिक्षिका
जमशेदपुर, झारखंड।