क्रांतिवीरों का तीर्थ स्थल : सेल्युलर जेल
यह तीर्थ महातीर्थों का है..
मत कहो इसे काला पानी..
तुम सुनो यहाँ की धरती के..
कण कण से गाथा बलिदानी.
प्रखर राष्ट्रभक्ति की ये पंक्तियां भारत वर्ष के स्वाधीनता संग्राम के अमर सेनानी श्री गणेश दामोदर सावरकर जी के होठों पर तब भी सजी हुई थी जब उन्हें क्रूर ब्रिटिश सरकार द्वारा “काला पानी” की सजा दी गई थी ।
दूसरी तरफ उनके छोटे भाई विनायक दामोदर सावरकर जी लंदन में मदन लाल ढींगरा जी, श्यामजी कृष्ण वर्मा जी तथा कुछ अन्य भारतीय क्रांतिकारियों के साथ मिलकर विदेशों में भारतीय राष्ट्रीयता के स्वर मुखरित कर रही थे । कई प्रकार के षडयंत्रों के बाद ब्रिटिश सरकार ने विनायक सावरकर जी को मार्च ,1910 में गिरफ्तार कर उन पर झूठे मुकदमें चलाये और कठोर कारावास का दंड सुनाकर समुद्री रास्ते से अंडमान निकोबार भेजा, किन्तु भारत माँ के लाडले, अदम्य साहसी वीर सावरकर जी “पोर्ट हॉल” से निकल कर समुद्र में कूद पड़े और “इंग्लिश चैनल ” पार कर गए
यह जानकारी इस लेख की.. लेखिका उर्मिला उर्मि को दीपावली 2019 के अवसर पर अंडमान निकोबार की तीर्थ यात्रा के दौरान.. स्वराज दीप.. जाते समय जहाज में सहयात्री से प्राप्त हुई । एक अन्य सहयात्री ने बड़े गर्व से बताया कि हमारा जहाज समुद्र के उस भाग से आगे बढ़ रहा है ,जहां से प्रातःस्मरणीय वीर सावरकर जी अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंककर तैरते हुए निकल गए थे । पुनः क्रूर ब्रिटिश सरकार ने षडयंत्रों के द्वारा ही उन्हें गिरफ्तार कर पचास वर्षों के लिए काला पानी की सजा सुनाई ।
यह काला पानी की सजा नारकीय यातनाओं के लिए कुख्यात थी, उस समय भारत में स्वाधीनता के लिए क्रांति की ज्वाला जैसे जैसे तीव्र होती जा रही थी वैसे वैसे फिरंगी अत्याचार, दमन का कुचक्र बढ़े हुए वेग से घूमने लगा था ।
देश के अग्रगण्य क्रांतिवीरों और प्रेरक स्वतंत्रता सेनानियों पर झूठे मुकद्दमे चलाकर उन्हें सुदूर अंडमान में बनी सेल्युलर जेल में क्रूरतम यातना भुगतने के लिए डाला गया । *इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि स्वाधीनता सेनानियों को फिरंगियों के आदेश पर अपने लिए ही उस “सेल्युलर जेल” का निर्माण करना पड़ा*।अंग्रेज सरकार ने अपनी निर्मम मनोवृत्ति को रूप देने के उद्देश्य से दिसंबर 1857 को अंडमान द्वीप का पहला सर्वेक्षण करवा कर उसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया और दमन- वृत्ति को गति देने लगे लगी । प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दो सौ बंदियों के जत्थे को अंग्रेज सैनिकों भारतीय डॉक्टरों और ओवरसियर के साथ द्वीपों में पहुंचा दिया ।सजा के रूप में उन्हें “चैथम द्वीप” और ” रास द्वीप “की सफाई में जोत दिया गया । इसके बाद लगभग चार सौ पचास निर्दोष बंदियों को काला पानी की सजा भुगतने के लिए और भेजा गया ।1857 के स्वाधीनता संग्राम के कितने बंदियों को यहां भेजा गया इसकी कोई निश्चित संख्या ज्ञात नहीं है किंतु उनमें, अधिकांश कवि ,बुद्धिजीवी राजघराने के लोग, विचारक, नवाब आदि ही थे जिन से 18–18 घंटे प्रतिदिन जंगल साफ करवाने, पेड़ों को कटवाने पत्थर कूट कर रास्ता बनाने के काम करवाए जाते थे और रात में हथकडी- बेड़ी डाल कर लोहे की चेन से बांधकर एक घेरे के भीतर डाल दिया जाता था ।प्रतिदिन एक आना पाई भोजन इत्यादि के लिए दिया था ।
फिरंगी सरकार भारत की आजादी के लिए दिखने वाली जिन चिंगारियों को मशाल बनने से रोकने का प्रयास करती जिन्हें सदा सदा के लिए समाप्त करने का षडयंत्र करती ,वे चिंगारियां भीतर ही भीतर अधिक सुलगती रहती थी ।तिलका मांझी , संथाल विद्रोह , बिरसा मुंडा जैसे अनेक क्रांतिकारियों की शक्तियों तथा जन- विद्रोहों का डर फिरंगियों के मन में इतना गहरा समा गया था कि वे शीघ्रातिशीघ्र सेलुलर जेल का निर्माण कार्य समाप्त होते ही वहां क्रांतिकारियों को डालकर निश्चिंत होना चाहते थे।सेलूलर जेल के जिस परिसर का निर्माण भारतीय स्वाधीनता सेनानियों द्वारा 1906 में किया गया, उसकी गणना विश्व के भयंकर कारावासों में होने लगी ।
इसके द्वारा फिरंगी सरकार स्वतंत्रता सेनानियों के मनोबल को तोड़ने के लिये उन्हें तरह तरह की पीड़ा देकर घुट -घुटकर मरने पर विवश करने लगी ।और फिर से मुक्ति संग्राम के लिए संघर्षरत नहीं होने देने के लिए विभिन्न प्रकार से दमन के कुचक्र और बढ़ाने लगी ।
सेल्यूलर जेल की भयंकरता का अनुमान इसे देखकर बड़ी सरलता से लगाया जा सकता है ।इस लेख की लेखिका ने स्वयं पोर्ट ब्लेयर पहुंचकर देखा कि जेल परिसर में मुख्य भवन तीन मंजिला है, जिसकी सात भुजाओं में से अब केवल कुछ ही शेष रही हैं । कुल 689 सेल अर्थात एकांत डरावने कमरे थे जिनके कारण इसे ” सेल्यूलर जेल ” का नाम मिला। पहली , दूसरी , तीसरी, चौथी भुजा में 410 सेल , पांचवीं , छठी , सातवीं में 270 सेल । भुजाएँ भी आकार में साइकिल के चक्के जैसी । प्रत्येक भुजा को लौह- द्वार से ही बंद किया जाता था प्रत्येक शाखा को लोहे के बंद दरवाजे में तथा उन सब को एक स्थान से नियंत्रित रखने के लिए भी एक लौह- द्वार था।जिस सेल्युलर जेल के निर्माण के लिए स्वाधीनता सेनानियों को चट्टानों से पत्थर काटने पड़े और ईंटें तैयार करनी पड़ी , उसके कंट्रोल रूम पर सशस्त्र सैनिक 24 चौबीस घंटे पहरा देते थे । 21 वार्डन दिन -रात बंदियों पर कड़ी नजर रखा करते थे । जेल के दाईं तरफ एक फांसी घर बनाया गया था जिसे हमने देखा। इसमें एक साथ तीन व्यक्तियों को फांसी दी जा सकती थी। इसके पास ही हिन्दू और मुसलमान कैदियों के लिए अलग अलग रसोई घर बनवाए गए थे । यह फिरंगियों की चाल थी सांप्रदायिकता की भावना बनाए रखने की। जेल की किसी भी एक सेल से दूसरे सेल की ओर देखना संभव नहीं था, फिर बातचीत की तो बात असंभव ही थी।
कालापानी की सजा की मनोवैज्ञानिक मानसिक यातनाएं देने का षड्यंत्र और उसकी व्यवस्था की क्रूरता की जितनी जानकारी जेल में सुनी उसके स्मरण मात्र से ही इस लेख की लेखिका का कलेजा आज भी दहल उठता है ।
सन् 1906 में जेल के निर्माण का कार्य संपूर्ण होते ही इसके कुख्यात जेलर की क्रूर योजनाओं के अनुरूप यातनाओं का सिलसिला बढ़ता गया । जेलर का नाम लिखने के लिए कलम सहमत नहीं है , किन्तु संदर्भ के कारण लिखने को विवश है । क्रूर जेलर बारी कहा करता था ..” ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध मुंह खोलने वालों के लिए सेल्युलर जेल ईश्वर – प्रदत्त वरदान है । “
उस समय जेल में यातनाओं के रूप में नारियल की जटा से रस्सी बनाने की सजा , कोल्हू चलाने की सजा ,ऊपर से बैंत से मार- पिटाई की सजा तो थी ही । अपर्याप्त अमानुषिक भोजन मिलता था , किन्तु शौच के लिए पर्याप्त अवसर नहीं दिए जाते थे । जेलर बारी खुद को भगवान बताते हुए अकारण सजा और नारकीय यातनाएं देने के लिए कुख्यात था । हथकड़ी- बेडियों की सजा तो कई कई बार छह- छह महीनों के लिए बढ़ा दी जाती थी । कठोर यात्राएं सहन करते करते चार पांच बैंत पड़ते ही सैनिक बेहोश हो जाते थे । कई बार इन सेनानियों की मृत्यु भी हो जाती थी ।
उस दौर के बंदियों में उल्लास कर दत्त वारीन्द्र घोष , वीर सावरकर, गणेश सावरकर, बटुकेश्वर दत्त, लाखाराम , इंद्र भूषण , राय , जयदेव कपूर, महावीर सिंह ,गुरुमुख सिंह , त्रिलोकी नाथ पुलिन दास आदि के नाम प्रमुख हैं जिनके साथ सैकड़ों क्रांतिकारियों के हौसले बुलंद रहे, किन्तु सेलूलर जेल की क्रूरतम यातनाएं कम नहीं हुई । जैसे जैसे फिरंगियों की यातनाएं बढती जाती वैसे वैसे क्रांतिकारियों ने अपने रक्त के कण कण से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का इतिहास लिखना जारी रखा । उनके साहसपूर्ण स्वरों की गूंज देश के अन्य भागों को भी निनादित करती रही , किन्तु उनके मुख से यही सुननेको मिलता था…..
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ।
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है ।।
भारत में सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, नाना साहब , तात्या टोपे, वीर कुंवर सिंह ,बहादुर शाह जफर आदि सैनिकों नेअंग्रेजों को दिन में तारे दिखा दिए थे। भारतीय वीरांगनाएं जूही , झलकारी, मदिर और नाना साहब की छोटीपुत्री मैना ने अपने जीवन का बलिदान देकर प्रमाणित किया कि वीरता और देशभक्ति में वे अंग्रेजों से कहीं आगे थी । मैना को अंग्रेज सैनिकों ने जनरल आउटर के आदेश पर जिंदा जला दिया था । ग्वालियर से भेजी गई सेना यदि अंग्रेजों का साथ नहीं देती तो अंग्रेजों को 1857 में ही भारत से भागना पडता , किन्तु कुछ लोगों के विश्वास घात के कारण अंग्रेजों के पैर पुनः भारत में जमने लगे थे । साथ ही अंग्रेज सरकार के मन में यह डर हमेशा बना रहता था कि कहीं उसके विरुद्ध नया संग्राम न छिड़ जाए ।
क्रांतिकारियों में विद्यमान आजादी के लिए क्रांति की चिंगारी को नष्ट करने के उद्देश्य से अंग्रेज सरकार ने बंगाल की खाड़ी में विद्यमान अंडमान द्वीप समूह में हजारों बंदियों को हथकड़ियों व बेड़ियों में जकड़ कर डालने का निश्चय किया और भारत में स्वतंत्रता के देवगृह ” सेलुलर जेल ” के निर्माण के विचार ने उसी समय यहां जन्म लिया था । सन् 1906 में इसके निर्माण कार्य की समाप्ति के पश्चात यहां पर क्रांतिकारियों को बेडियों में जकड़कर रखा जाने लगा।
क्रांतिकारियों ने यहां अहिंसक आंदोलन भी जारी रखे , सन 1932 के बाद भूख – हड़तालों का लंबा क्रम चलता रहा सन 1942 में अप्रत्याशित घटना घटित हुई .. इन द्वीपों पर जापान ने कब्जा कर लिया ।अंग्रेजों के लिए जासूसी करने के अपराध में सैकड़ों द्वीप वासियों को और इससे भी अधिक लोगों को सेलूलर जेल में बंदी बनाकर डाल दिया गया । इस निर्मम कार्य की समाप्ति 30 दिसंबर , 1943 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा सेलूलर जेल के निरीक्षण के बाद ही हुई । आजाद हिन्द सरकार की स्थापना की गई ।
इन द्वीपों के नाम बदलकर ” शहीद द्वीप ” और ” स्वराज द्वीप ” कर दिए गए ।नेताजी ने तिरंगा फहराया । ” रॉस द्वीप ” का नाम बदलकर ” शहीद द्वीप ” और “हैवलॉक द्वीप ” का नाम बदलकर ” स्वराज्य द्वीप ” कर दिया गया । नेताजी ने तिरंगा फहराया ।नेताजी के लौट जाने के बाद अत्यंत दुखद घटना घटित हुई । अंडमान के प्रसिद्ध समाज सेवी डॉक्टर दीवान सिंह को जापानी सेना के अध्यक्ष ने मौत के घाट उतार दिया । महान देशभक्त ने मृत्यु का आलिंगन करते हुए भी यही कहा … ” ये जो तूफान आया है, यह क्रांति करेगा , सब कुछ ध्वस्त कर देगा , परिवर्तन ले आएगा।
दुर्भाग्य से उसी समय हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम बरसाए गए आजाद हिन्द फौज को भी आत्मसमर्पण करना पड़ा । अक्तूबर , 1945 में अंग्रेज सरकार ने द्वीपों को पुनः हथिया लिया । 15 अगस्त , 1947 को भारत आजाद हुआ और स्वतंत्रता सेनानियों को जेल से मुक्ति मिली ।
सेलूलर जेल परिसर में एक पुस्तकालय और संग्रहालय भी देखा और साथ ही देखे यातनाओं के स्मारक चिन्ह.. टाट के कपड़े ,कोल्हू, हथकड़ी – बेड़ी ,फांसी के फंदे , बेंत आदि ,जिनके विषय में प्राप्त कुछ जानकारी का विवरण प्रस्तुत करने में ही रूह कांप रही है ,तो जो कुछ अप्राप्त है और अधिक भयानक है उसकी चर्चा ही कैसे हो ।
11 फरवरी 1979 को सेलूलर जेल को भूतपूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई जी ने सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों की हर्ष ध्वनि के बीच .. राष्ट्रीय स्मारक.. घोषित किया । अब वही स्वतंत्रता का देव – मंदिर सेलूलर जेल देश विदेश के राष्ट्र प्रेमियों का ऐसा तीर्थ स्थल है जो राष्ट्रभक्ति का अनुपम प्रेरणा स्रोत है ।
इस लेख के माध्यम से देश के.. मानव संसाधन विकास मंत्रालय.. से एक अपील है कि माध्यमिक स्तर से विद्यार्थियों के लिए प्रत्येक कक्षा के पाठ्यक्रम में सेलूलर जेल को पढाना अनिवार्य कर जाए ताकि देश के भावी कर्णधार हमारी आजादी की कीमत को अधिक अच्छी तरह पहचान सकें और भारत वर्ष को श्रेष्ठ से श्रेष्ठ तम की ओर ले जाने के लिए अपना अमूल्य योगदान करें।
एक और तथ्य
विशेष उल्लेखनीय है … हमने स्वयं अपनी आँखों से देखा कि आज भी संध्या के समय प्रतिदिन ध्वनि- प्रकाश का कार्यक्रम सेलूलर जेल परिसर में आयोजित होता है , तब जेल के आंगन में खड़ा बूढ़ा वृक्ष स्वाधीनता सेनानियों की वीर गाथाओं के इतिहास को सुनाता है और जो कोई भी इसे देखता – सुनता है , वह आत्म विभोर होकर परिसर के कण कण से आने वाली इस ध्वनि में अपना स्वर मिला ही देता है ..
मत कहो इसे काला पानी ..
यह तीर्थ वीर जवानों का..
आजादी के परवानों का..
भारत माँ की संतानों का..
✍ उर्मिला देवी उर्मि
साहित्यकार