भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में महिलाएं
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की भूमिका को सराहा तो गया है लेकिन उन्हें इतिहास में उचित स्थान नहीं दिया गया। इन महिलाओं ने स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए पुरुषों से कंधे से कन्धा मिला कर संघर्ष किया। अतः ब्रिटिश राज़ में भारत के लिए स्वतंत्रता संघर्ष में महिलाओं के लम्बे संघर्ष को इतिहास के पन्नो पर लाना अति आवश्यक है। महिलाओं ने स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए विभिन्न यातनाओं और शोषण का सामना किया। विपरीत परिस्थितियों में भी मातृभूमि के लिए इनके अगाध प्रेम और सेवा भाव , लड़ने के लिए दृढ निश्चय ने अपने देश को आज़ाद और समृद्ध देखने के लिए निस्वार्थ बलिदान दिया। आज इन महिलाओं के योगदान की समीक्षा की आवश्यकता है। राष्ट्रवाद के पारम्परिक इतिहास को पुरुषवादी दृष्टिकोड़ से लिखा गया हैं। नए प्रकार के स्रोतों का खनन : संगठनात्मक और निजी पत्रों, आधिकारिक रिपोर्टों और संवाददाता ने महिलाओं के इतिहास के दायरे को और चौड़ा किया। हम उन्ही में से कुछ महत्वपूर्ण महिलाओं के कार्यो का विश्लेषण करेंगे। मातंगिनी हाज़रा जिन्हे ‘गाँधी बारी’ के नाम से जाना जाता था, उन्हों ने गांधीजी के आह्वान पर भारत छोड़ो आंदोलन और असहयोग आंदोलन में भाग लिया। आंदोलन के दौरान उन्हें पुलिस की गोलियां खानी पड़ी फिर भी भारतीय ध्वज को उठा कर बन्दे मातरम के नारों के साथ आगे बढ़ती रही। उनके बलिदान को सिर्फ एक मूर्ति स्थापना और कोलकोता में एक सड़क को हज़रा रोड नाम दे कर उनके योगदान को यूँ ही नहीं छोड़ा जा सकता है। बरुआ जिन्हे ‘वीरबाला’ की उपाधि दी गयी थी, असम से भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थी। वह प्रथम पंक्ति की महिला स्वयंसेवक थीं जिन्हों ने १९४२ में बारंगबाड़ी में भारत छोड़ो आंदोलन में प्रमुख हिस्सा लिया। उनका नारा ‘ब्रिटिश साम्राज्यवादी वापस जाओ ” और लक्ष्य ब्रिटिश शासित गोहपुर पुलिस स्टेशन पर झंडा फहराने का था जो ब्रिटिश द्वारा निषिद्ध थे। उनके और उनके देश प्रेम का जबाब ब्रिटिशों ने गोलियों से दी और सिर्फ १८ साल के उम्र में वह शहीद हो गयीं। भीकाजी कामा स्वतंत्रता आंदोलन की ‘ग्रैंड ओल्ड लेडी’ के रूप में लोकप्रिय हैं। उनका जन्म पारसी परिवार में हुआ उनके पिता सोराबजी पटेल अपने समुदाय के एक शक्तिशाली सदस्य थे। कामा ने पुरुषो और महिलाओं की समानता पर बल दिया। युवा लड़कियों के लिए अनाथाश्रम खोला। नमक सत्याग्रह आंदोलन और कई और विरोध मार्चों में भाग लिया जिसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा। १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में भी उनकी भूमिका थीं . राजनितिक बंदियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार पर भी उन्हों ने भूख हड़ताल किया। तारा रानी अपने पति फुलेंदु बाबू के साथ १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन में न सिर्फ शामिल हुई बल्कि सामने से नेतृत्व प्रदान किया और विरोध प्रदर्शनों को नियंत्रित किया और सिवान पुलिस स्टेशन पर ध्वज फहराने की योजना बनाई। उन्हें ने अपने इंकलाब के नारों से काफी भीड़ इकट्ठा कर ली और जब वो मार्च कर रहे थे तो पुलिस ने उनपर गोलियां चलाई जिसमे उनके पति फुलेंदु बाबू शहीद हो गए। तारा अरेस्ट हो गई फिर भी झंडा झुकने नहीं दिया। पति की मृत्यु के बाद भी तारा ने स्वतंत्रता संग्राम में पाना समर्थन जारी रखा। तारा का सारा परिवार देश को समर्पित था। मूलमती का इतिहास में योगदान राम प्रसाद बिस्मिल की माँ के रूप में हैं जिन्हो ने हमेशा अपने बेटे के देश प्रेम के जज़्बे का साथ दिया। राम प्रसाद बिस्मिल ने स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं।राम प्रसाद बिस्मिल एक क्रन्तिकारी थे जो मैनपुरी षड़यंत्र और १९२५ में काकोरी केस में शामिल थे और उन्हें १९२७ में गिरफ्तार कर फांसी दी गयी थी। वह अंत समय में भी बेटे के साथ थीं और फांसी से पहले राम प्रसाद से मिलने वह गोरखपुर जेल भी गयीं थीं। उन्हें ने कहा था की राम प्रसाद बिस्मिल जैसे बेटे होने का उन्हें गर्व हैं और दुसरे बेटे को भी स्वतंत्रता आंदोलन में आगे आने के लिए प्रेरित किया। राम प्रसाद बिस्मिल की प्रेरणा श्रोत उनकी माँ थीं। लक्ष्मी सहगल जो पहले द्वितीय विश्व युद्ध में एक सेना के अधिकारी के रूप में भाग ले चुकी थीं , ने स्वतंत्रता संग्राम में सामने से नेतृव किया। वह सुभाष चंद्र बोस की सहयोगी थीं और उनके द्वारा स्थापित इंडियन नेशनल आर्मी में महिला विंग -‘ झांसी रेजिमेंट’ की कैप्टन के रूप में शामिल हुईं। युद्ध कौशल में प्रवीण बन्दूक का प्रशिक्षण ले कर एक बाघिन की तरह सेना का नेतृत्व करती रहीं। अरुणा असफ अली ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक स्वतंत्र एक्टिविस्ट के रूप में भाग लिया, नमक सत्याग्रह और अन्य आंदोलनों में भाग लेने से उन्हें जेल भी हुई। उन्हों ने और महिलाओं को साथ लेकर जेल में राजनीतिक कैदियों से हो रहे दुर्व्यवहार पर भूख हड़ताल किया। भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त बॉम्बे के गोवलिआ टैंक मैदान में भारत का झंडा फहराया। इन्हे ग्रैंड ओल्ड लेडी के नाम से भी जाना जाता हैं। कमला देवी चट्टोपाध्याय एक समाज सुधारक और प्रतिष्ठित थिएटर अभिनेत्री थीं। उन्हों ने स्वतंत्रता संग्राम में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । १९३० में नमक आंदोलन के समय जब कोंग्रेस ने यह तय किया कि पुरुष आंदोलन में पैदल मार्च करेंगे और महिलाएं घर में रह कर सहयोग करेंगी और शराबबंदी के लिए दुकानों आदि पर जाएंगी तो कमला देवी चट्टोपाध्याय ने ही सरोजनी नायडू से मिल कर गाँधी जी को इस बात के लिए राज़ी किया कि महिलाएं भी नमक आंदोलन में पुरुषों के साथ बराबरी से हिस्सा लेंगी। कमला देवी निडर और प्रतिबद्ध स्वतंत्रता सेनानी थीं। महिलाओं कि सामाजिक और आर्थिक स्थितियों में सुधर किया और थिएटर और हस्तशिल्प को प्रोत्साहित किया। वह विधान सभा कि पहली महिला उमीदवार थीं और अखिल भारतीय महिला सम्मलेन में उनका योगदान अभूतपूर्व था। कित्तूर रानी चेन्नम्मा कर्णाटक रियासत कि रानी थीं। डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स के डल्हौसि कि निति को चैलेंज करते हुए १८२४ में उन्हों ने ब्रिटिश सर्कार के खिलाफ सेना का नेतृत्व किया उस वक्त उनकी उम्र महज ३३ साल थी। देश और राज्य के लिए जान दे कर उन्हों ने वीरता कि पहचान बना ली जो आज भी न सिर्फ महिलाओं के लिए अपितु सब के लिए प्रेरणा साबित होती हैं। सुचेता कृपाली एक गांधीवादी राष्ट्रवादी थीं जिन्हो ने स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कि सदस्य थीं और १९४० में अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की स्थापना की और महिलाओं को राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।१५ अगस्त १९४७ में उन्हों ने संविधान सभा में वनडे मातरम गया था। बाद में वह उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला चीफ मिनिस्टर बनी।
गाँधी से पहले महिलाओं की सीमित भागीदारी बंगाल में स्वदेशी आंदोलन और होम रूल आंदोलन में थीं। लेकिन गांधीजी महिलाओं को राष्ट्रीय आंदोलन के केंद्र में ले आये। राष्ट्रीय कांग्रेस के सत्र में उन्हें भाग लेने के लिए उत्साहित किया। गाँधी जी के आंदोलनों में महिलाओं की विशेष भूमिका रही है। घरेलू मूल्यों से समझौता किये बिना भी उन्हों ने सार्वजानिक क्षेत्र में भाग लिया , सड़कों पर आंदोलनों में नेतृत्व किया और घरेलु क्षेत्र का राजनीतिकरण किया । स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की राष्ट्रवादी अभिव्यक्ति के महत्त्व को नाकारा नहीं जा सकता है। हमें अपने शोध द्वारा उनके योगदान को आगे लाना चाहिए। महिलाओं के असीमित योगदान को कुछ शब्दों में कैद नहीं किया जा सकता जब कि हम एक पितृसत्तात्मक समाज में रहते हैं जहाँ महिला और पुरुष के सामाजिक मूल्य अलग अलग है। आंदोलन में आदिवासी और ग्रामीण महिलाओं का भी योगदान था। ऐसे में खास कर राष्ट्रीय आंदोलन के काल में उच्च मध्य वर्ग की शिक्षित महिलाओं का आगे बढ़ कर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ हिस्सा लेना और अपनी अभिकर्तृत्व (एजेंसी) को स्थापित करना समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।
विजय लक्ष्मी सिंह
इतिहास विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय