वृंदावन की होली
आज जो चली वृंदावन की टोली
गीतों की मीठी सुरम्य बोली
लगी थाप ढोल पर धमक-धम
थिरक-थिरक रंगों की झोली
हंसते-हंसते नज़रें झुकीं भोली।
गगनांगन में मची धूम
वृंदावन की मिट्टी राग रंगी
लाल, पीली, नीली, काली
धरा भूरी, यमुना काली
गोवर्धन की काया हरी-भरी
कदम्ब पेड़ हुआ भर-भर पीला
उबटन और महावर में ज्यों सजा छबीला।
चहुं ओर ग्वाल-बाल, गैयन की धूलि
मैया यशोदा छिपीं, नंदराज ढूँढे पिचकारी
तभी आधार पर धरे उँगली आए घनश्याम
देख लाल में लाल रंग की मोहक लाली
और गल में शोभित कदम्ब माल
ले बलैया, सौ-सौ नज़र उतार
हुई मैया सखियों के संग वारी-न्यारी।
बलराम-गोपाल, गोप-गोपी संग
संग चली लछिमी बछिया
माथे पर अपना अबीर तिलक संभाल
अगाध शांत, नज़रें विशाल
टन-टन बजती घंटी की धुन में
नाच-नाच, सर हिला-हिला बांधती चाल
जीव-जग-आत्मा के सुर एक हुए, हुआ एक ताल।
यमुना तट कदम्ब कछार
बच कर भागी राधा न्यारी
कुंजन में छिप कृष्ण कन्हैया
फेंकी मुट्ठी भर-भर गुलाल
रंगी राधा हुई रागमय लाल
आँखे मुँदी न दिखे श्याम उसे
न रंग पाई श्याम को हरी कर प्रयास बारंबार।
बोली फिर थक-हार—
“जित देखूँ उत लाल…लाली देखन मैं गई
मैं भी हो गई लाल, मैं भी हो गई लाल।”
राधा जनार्धन
साहित्यकार
त्रिवेंद्रम, केरल