हिन्दी फिल्में और हिन्दी का प्रसार
कहते हैं कि राजनीति, फिल्में और क्रिकेट — हम भारतवासियों का अस्सी से ज्यादा समय इनकी चर्चा करने में ही बीतता है। इन तीनों ने देश को कभी तोड़ा भी है और बहुत कहीं जोड़ा भी है। फिल्मों का तो भारतीय जीवन में और उनके मानस पटल पर बहुत ही प्रभाव है। बीसवीं शताब्दी में मूक फिल्मों से शुरु हुई इन फिल्मों ने समाज, दर्शन, रहन-सहन सबको प्रभावित किया है। शुरु के दिनों की फिल्में बहुत धार्मिक विषयों पर आधारित होती थीं। ‘राजा हरिश्चंद्र’ को भला कौन भूल सकता है। फिर दौर था सामाजिक न्याय वाली फिल्मों का। दबे-छुपे शब्दों में उन दिनों की कुरीतियों को भी दिखाया जाता रहा। भला ‘अछूत कन्या” को कौन भूल सकता है? पचास-साठ के दशकों में भारत के नवनिर्माण की कहानियों पर फिल्में बनीं। फिर साठ और सत्तर के दशकों में समाज में फैली बुराईयों को लेकर विरोधवाली फिल्में। समानान्तर फिल्में, हल्की-फुलकी मनोरंजक फिल्में। फिल्म देखना भी एक त्यौहार से कम नहीं होता था। जो परिवार साथ-साथ फिल्में देखते हैं, वही साथ रहते हैं — ये भी एक जमाना देखा हमने। और फिर थियेटर से मल्टीप्लेक्स और वहाँ से ओ.टी.टी.। अपने सौ से ज्यादा सालों के इतिहास में फिल्मों में अभूतपूर्व परिवर्तन आए। पारसी थियेटर की छाँह से निकलकर फिल्में ने उर्दू हिन्दी का रुख किया। किरदार भी बदलने लगे। शहरी लोग ज्यादा दिखाए जाने लगे। बोलियाँ, भाषा, रूप — सब बदलते रहे। फिल्में भारत में करीब 15 से ज्यादा भाषाओं में बनाई जाती हैं। लेकिन हिन्दी फिल्म जगत जो “बॉलीवुड’ के नाम से जाना जाता है – लोकप्रिय भी है और सशक्त भी | इसके प्रभाव ने चारों तरफ धूम मचा रखी है – गानों, संगीत, और डायलॉग से। ‘शोले’ फिल्म के डायलॉग बच्चे — बच्चे की जुबान पर थे — क्या कश्मीर, क्या कन्याकुमारी|हिन्दी फिल्में ने जाने-अनजाने में एक और अभूतपूर्व काम किया – और वो था हिन्दी का प्रचार और प्रसार।
हमारे देश में अनेकों बोलियाँ बोली जाती हैं। हर प्रांत की अपनी सशक्त, समृद्ध भाषा है। हिन्दी देश के आधे से ज्यादा राज्यों में बोली जाती है, कुछ राज्यों में हिन्दी केवल समझी जाती है। द्रविड़ भाषाओं वाले राज्यों में हिन्दी के प्रति मोह नहीं है क्योंकि उनका मानना है कि अभी की प्रचलित हिन्दी केवल दो सौ सालों में ही फली-फूली है जबकि तमिल, तेलगु, मलयालम का इतिहास बहुत पुराना है। फिर भाषा के वर्चस्व की लड़ाई चलती ही रहती है।
इन सब झगड़ों से अनजान हिन्दी फिल्में अपने संगीत, अपनी कहानियों, अपने गानों के कारण देश के कोने-कोने में फैल गई। जो हिन्दी नहीं भी जानते थे, समझते थे, वैसे अहिन्दी भाषी भी मुकेश-रफी, दिलीप-देवानन्द को पहचानने लगे, उनके गाने गुनगुनाने लगे। हिन्दी सिनेमा का प्रेम उन्हे भाषा की राजनीति से ऊपर ले आया। उनका आक्रोश शायद एक भाषा को थोपने का था, भाषा से उनका प्रेम कम नहीं था। हिन्दी फिल्मों ने एक मरहम का, एक पुल का काम किया जो दिलों को जोड़ती ही रही। ‘मेरा जूता है जापानी’ से शायद ही कोई भारतीय इससे अछूता रह पाया है – भले ही पूरा अर्थ समझें या ना समझें। देश के बाहर भी प्रवासी भारतीय हिन्दी फिल्मों के माध्यम से जुड़े रहे – अपने मूल्यों से, अपनी मिट्टी से। भले ही हिन्दी फिल्मों में सतही और बहुत ही इन्द्रधनुषी छवि दिखाते हों – लेकिन हिन्दी फिल्मों के सकारात्मक संदेशों ने सभी के दिलों को छू लिया था। राजकपूर की लोकप्रियता विदेशों में देश के पहले प्रधानमंत्री से कहीं कम नहीं थी।
हिन्दी भाषा रोचक है, मधुर है, आसानी से समझी जा सकती है। विदेशों में हिन्दी फिल्मों ने बंगाली, मद्रासी, मराठी, पंजाबी — सभी भाषा-भाषी को जोड़ रखा है, उन्हें एक पहचान दी है। हिन्दी बोली जाने लगी, गाने गुनगुनाए जाने लगे। शायद हिन्दी फिल्मों ने भी नहीं सोचा होगा कि जाने-अनजाने में हिन्दी भाषा की पताका उनके हाथों में होगी।
कुछ हिन्दी साहित्यकार और हिन्दी के सेवक फिल्मों में दिखाई जाने वाली भाषा को अच्छा नहीं मानते हैं। लेकिन भाषा समाज का दर्पण है और हिन्दी फिल्मों ने भी ऐसी भाषा अपनाई जो कि जनसाधारण के बोलचाल से मेल खाती हो, उन्हें समझ आती हो। बम्बईया हिन्दी, हैदराबादी हिन्दी, पंजाबी हिन्दी – हिन्दी ने बड़े प्यार से उन्हें अपना लिया और शायद यही विशेषता है कि हिन्दी भाषा आज लोकप्रिय है और जोड़ने का काम करती है। ‘टूटी-फूटी हिन्दी हमने फिल्मों से सीखी है” ऐसा कहने वाले आज देश के हर कोने में मिल जाएंगे।
ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दी फिल्म के इस सशक्त माध्यम को हमें इस्तेमाल करना चाहिए। हिन्दी की फिल्में, जो अच्छे विषयों पर हैं, स्कूलों में, कॉलेजों में दिखाई जानी चाहिए।हिन्दी को एक सशक्त माध्यम बनाने के लिए जरूरी है कि वह दिलों की भाषा बने। भाषाअभिव्यक्ति का स्रोत है और हिन्दी फिल्में 135 करोड़ देशवासियों के आपसी मेल-जोल का एक सशक्त स्वरूप बन सकता हैं। कल्पना करें कि एक तमिलभाषी, एक मलयाली, एक पंजाबी – एक जगह बैठे हों, सभी भारतीय हैं लेकिन आपस में बात नहीं कर सकते, क्योंकि उनकी भाषाएं अलग हैं। हाँ, उन्हें अगर एक हिन्दी फिल्म दिखाई जाए तो वह आपस में बात करने लगेंगे। उनके दिलों में जो एक परत है वो फिल्म के माध्यम से दूर की जा सकती है, या दूर हो सकती है। तो इसके लिए क्या कदम उठाए जाएं — पहला कि साहित्यक कार्यगारों में हिन्दी फिल्मों को विशेष महत्व दिया जाए। दूसरा कि अच्छे डायलाग, अच्छे गानें लिखे जाएं, इसके लिए फिल्म इंडस्ट्री भी उभरते साहित्यकारों के साथ मिलने, बातचीत करने के अवसर मिले। स्कूल, कॉलेजों में प्रतियोगिताएं हों। तीसरा कि किसी के भी प्रयास को छोटा न समझें | अगर हिन्दी को जनमानस की भाषा बनानी है तो एक छोटा कदम भी प्रशंसनीय होना चाहिए। हिन्दी फिल्मों के किलने निर्देशकों / निर्माताओं को राजभाषा पुरस्कार दिया गया है? उनके संघर्ष, उनके प्रयास, उनकी प्रयत्नशीलता को समझने, देखने और उचित सम्मान देने का अवसर आ गया है।
इन हिन्दी फिल्मों ने बोलचाल वाली भाषा का प्रयोग कर, उन्हें आगे बढ़ाया, लोकप्रियता दी और आज आम आदमी जो भी हिन्दी बोलता और समझता है (अहिन्दी क्षेत्रों में भी) उसका श्रेय हमें इन फिल्मों को शायद देना होगा। सभी भाषाएँ सहोदरी हैं, सखी हैं। हिन्दी प्रसार का एक सशक्त माध्यम हिन्दी फिल्में बनी हैं और आगे भी वह अपना कार्य बखूबी कर सकती हैं। फिल्में अभिव्यक्ति और प्रेम के माध्यम हैं। ये जोड़ने का काम कर सकती हैं और शायद फिल्में समाज को उनका आईना दिखा सकती हैं।
-डॉ. अमिता प्रसाद