हम्पी – जहाँ हर पाषाण कुछ कहता है

हम्पी – जहाँ हर पाषाण कुछ कहता है

आप सब ने इस वर्ष के गणतंत्र दिवस पर विभिन्न राज्यों की झाकियां टी वी पर अवश्य ही देखी होंगी | कर्नाटक राज्य की झांकी, विजयनगर – हम्पी पर बड़ी ही सुंदरता से बनाई गयी थी | उसे देख कर मेरे लिए, व्यक्तिगत रूप से, तो जैसे अनेक स्मृतियाँ उमड़ घुमड़ कर मानस पटल पर छा गयीं | प्रस्तुत है उनमें से कुछ |

अधिकांश कृष्ण भक्तों का एक अति प्रिय भजन है, “अधरं मधुरं वदनं मधुरं, मधुराधिपते रखिलं मधुरं |” पर शायद कम लोग ही जानते हों कि यह भाव पूर्ण कृति संत कवि वल्लभाचार्य जी ने करीब पांच सौ साल पहले रची थी और सब से पहले विजयनगर साम्राज्य के सर्वाधिक शक्तिशाली सम्राट कृष्ण देव राय के दरबार में प्रस्तुत की गई थी |
हम्पी, तुंगभद्रा नदी किनारे एक छोटा सा शहर है पर इसका इतिहास बहुत प्राचीन है| कहते हैं कि त्रेता युग में यह किष्किन्धा के नाम से जाना जाता था | चौदह साल के वनवासी भगवान राम और लक्ष्मण सीता हरण के पश्चात् यहीं सुग्रीव और अपने अनन्य भक्त हनुमान जी से मिले | यहीं बाली वध हुआ और यहीं से वानर सेना भी तैयार हुई |
एक और लोक कथा के अनुसार यह प्रान्त और भी प्राचीन है | सृष्टि के आरम्भ में चार वेद थे और चार पवित्र जल सरोवर | मानसरोवर कैलाश में, बिंदु सरोवर सिद्धपुर में, नारायण सरोवर कच्छ में और पम्पा सरोवर यहां किष्किंधा में | गंगा जी अभी स्वर्ग में ही थीं | इसी पम्पा सरोवर के तट पर शिव जी अपनी तपस्या में लीन थे | देवताओं के आग्रह पर कामदेव ने अपना फूलों वाला बाण शिव जी पर चला दिया | क्रोधित शिव जी ने अपनी तीसरी आँख खोलकर कामदेव को भस्म कर डाला | शिव जी का एक और नाम विरुपाक्ष, अर्थात विरूप अक्ष – भयंकर नेत्र वाला, पड़ गया| शिव पार्वती का विवाह सम्पन्न हुआ | पार्वती जी को पम्पा कहकर भी संबोधित करते हैं और शिव जी का एक और नाम पम्पापति जुड़ गया | इस स्थान का नाम पम्पापुर और सरोवर पम्पा नदी बन गया| सच चाहे कुछ भी हो इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक प्राचीन पवित्र स्थल है|

मैं हम्पी सबसे पहले कोई चालीस साल पहले गई थी| आईएएस का प्रशासनिक प्रशिक्षण समाप्त करने के बाद मेरी नियुक्ति असिसटेंट कमिशनर सखलेशपुर, ज़िला हासन में हुई | दक्षिणी भारत के पश्चिमी घाट पर्वतमाला पर स्थित यह एक बहुत ही सुन्दर प्रदेश है | कॉफ़ी और इलाइची के बागानों से हरी भरी पहाड़ियां, नीला आसमान और उसपर आभा पूर्ण शुभ्र बादल | बेलूर और हलेबीड़ू के प्रख्यात मंदिर मेरे ही इलाके में थे | यह मंदिर होयसला टेम्पल वास्तुकला की बहुमूल्य उपलब्धि हैं | यह वास्तु कला दक्षिण भारत के बादामी, पट्टदकल और आएहोळे (ज़िला बागलकोट), जो हम्पी से करीब २०० कि मी दूर है, से शुरू हो कर बेलूर और हलेबीड़ू तक पहुँचते पहुँचते अपनी चरम सीमा तक पहुँच गई थी |
अनुमानतः सात सौ साल पहले मोहम्मद बिन तुग़लक़ होयसला साम्राज्य के आखिरी राजा वीरबल्लाला को हराने में सफल हो गया था | उसी साम्राज्य के संगमा नामक एक छोटे राजा के दो बड़े ही हिम्मती और शक्तिशाली पुत्र थे हरिहरन और बुक्का ।
दूसरी ओर श्रृंगेरी मठ के संत विद्यारण्य स्वामी अपनी तीर्थ यात्रा से वापिस लौटते समय हम्पी में रुके। तीन तरफ हेमकूट, अंजनाद्रि और मतंगा पर्वतों से घिरा और चौथी तरफ तुंगभद्रा नदी से सुरक्षित यह स्थान एक प्राकृतिक दुर्ग की भाँति था। मुग़लों के शासन से प्रताड़ित स्वामी जी का सपना था एक हिंदू साम्राज्य। स्वामी जी, हरिहरन और बुक्का के सहयोग से यहाँ १३३६ में एक राज्य की स्थापना हुई और इस नगरी का नाम रखा गया विद्यानगर। बाद में यही विजयनगर कहलाया और विजयनगर साम्राज्य की राजधानी भी बना।एक लोककथा के अनुसार संत विद्यारण्य स्वामी जी ने यहाँ घोर तप किया था, पर कुछ भी नहीं हुआ। हार कर स्वामी जी तप तोड़ने वाले ही थे कि लक्ष्मी जी प्रकट हो गई और वर माँगने को कहा। झल्ला कर स्वामी जी ने कहा कि यहां २४ घंटे तक स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा होती रहे। कहते हैं कि ऐसा ही हुआ और उसी धन से विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई और यह कोई २०० साल चला। यह साम्राज्य इतना सशक्त था कि दो सदियों के पश्चात, पाँच मुस्लिम सल्तनतों – बीदर, बीजापुर, अहमदनगर, गोलकुंडा और बिहार – के सम्मिलित प्रयास के बाद ही इस साम्राज्य को हराया जा सका।
यह २०० वर्ष दक्षिण भारत के इतिहास में स्वर्णिम युग से जाने जाते हैं। कृष्ण देव राय विजयनगर साम्राज्य के सब से पराक्रमी और सफल शासक माने जाते है।इन्हीं के दरबार में सबसे पहले इस मधुर भजन को प्रस्तुत किया गया था।दक्षिण भारत के इस अविस्मरणीय युग में सशक्त शासन के अलावा साहित्य और ललित कलाओं को प्रोत्साहन, विभिन्न धर्मों और मतों जैसे कि वीरशैव, वैष्णव और जैन धर्म का आदर और पोषण सभी शामिल था|इस वैभवशाली हिन्दू राष्ट्र के देश विदेश से घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध थे|कहा जाता है कि विजयनगर के बाज़ारों में सोना, चांदी, हीरे, पन्ने और माणिक इत्यादि जवाहरात भरे पड़े थे|लेकिन सबसे बड़ी सौगात थी होयसला मंदिर वास्तुकला (Hoysala temple architecture ) की देन | यह इतनी अद्भुत है कि विदेशों से वास्तुकला में PhD कर रहे स्नातक यहाँ कई महीने बिता देते हैं | मैं एक जर्मन महिला से मिली जो वहां ३ महीनों से अध्ययन कर रही थीं ।


मुझे बेलूर और हैलेबिडु के मंदिरों की वास्तुकला ने अत्यंत प्रभावित कर रखा था पर हम्पी का तो नज़ारा ही कुछ और था जो मेरे सामने आहिस्ता आहिस्ता प्रकट हो रहा था|मैं उसके लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थी। एक तरफ नीलमणि जैसी तुंगभद्रा नदी जिस को पार करने के लिए भैंसे के चमड़े से बनी गोल तश्तरीनुमा किश्तियाँ चल रही थीं और दूसरी ओर हरे भरे धान के खेतों के बीच बिखरी हुई विजयनगर साम्राज्य की अनमोल धरोहर के बेशक़ीमती नगीने|

विट्ठला मंदिर एक बड़े विस्तृतित प्रांगण में फैला हुआ है जहाँ एक से बढ़ कर एक कई सारे मंडप बारीकी से तराशे हुए पत्थरों से निर्मित हैं|प्राख्यात रंगमंडप एक ही विशाल पत्थर को काट कर बनाया गया है|इस के ५६ स्तम्भों से संगीत के सातों स्वर – सा रे गा मा पा धा नी – एक लकड़ी मात्र से बजने पर निकलते हैं | यह कैसे संभव हुआ ? आज तक कोई भी जान न पाया | अंग्रेज़ों ने एक स्तम्भ को काट कर भी देखा पर गुत्थी आज तक भी सुलझ नहीं पाई | इसी रंगमंडप में कर्नाटक संगीत परंपरा उभरी और पोषित हुई | यह वैभवशाली दरबार विद्वानों और गुणीजनों से भरा पूरा था और यहीं अप्सराओं जैसी सुन्दर देवदासियां संगीत की थाप पर नृत्य करती थीं | बिलकुल इन्द्र सभा जैसा माहौल होगा | थोड़ा गौर से सुने | मुझे उनके नूपुरों की खनक वहां के पाषाणों में से आज भी आती है |

इसी प्रांगण में एक ही पत्थर (monolith) से बना रथ, जो कि विष्णु के वाहन गरुड़ जी को समर्पित है, इतना सजीव है कि जैसे धक्का देने से चल ही पड़ेगा| लोग कहते हैं कि पहले यह रथ चलाया भी जाता था, अंदर विट्ठळ देवता की उत्सव मूर्ति स्थापित कर के| पर बाद में रथ को सुरक्षित रखने के विचार से अब उसे एक जगह ही अविचल कर दिया गया है |
उग्र नरसिम्हा की भव्य मूर्ति अपने आप में एक प्रख्यात धरोहर है | इतने बड़े पैमाने पर उस समय के वास्तुकार कैसे एकदम सही नाप और अनुपात बना लेते थे ? हाथियों के अस्तबल, किसी समय रण बाँकुरे हाथियों की चिंघाड़ से गूंजते होंगे |
कमल महल हम्पी का संभवतः सबसे अच्छी तरह से संरक्षित स्मारक है | कमल महल भारतीय और इस्लामिक वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना है जिसकी मेहराबें एक पूरे खिले हुए कमल की पंखुड़ियों की भांति चारों ओर खुलती हैं|विजय नगर साम्राज्य की रानियां और पटरानियां यहां निवास करती थीं | किसी समय यहां के पाषाण उनकी खिलखिलाहट और संगीत से सजीव हो उठते होंगे | कितनी सारी राजनैतिक गुत्थियाँ यहां सुलझाई गई होंगी और कुछ षडयंत्र भी ज़रूर रचे गए होंगे |

क्या भूलूँ क्या याद करूँ ? हर तरफ अनमोल नगीने बिखरे पड़े हैं | कड़लेकालू गणेश एक ऐसी ही विशाल, एक ही पत्थर से तराशी हुई मूर्ति है| १५ फ़ीट ऊँची यह प्रतिमा दक्षिण भारत में गणेश जी की सबसे बड़ी मूर्तियों में से है|
इस में गणेश जी के उदर का आकार एक चने के रूप में है और इसलिए यह नाम दे दिया गया | हेमकूट पर्वत की ढलान पर स्थित इस मंदिर से आस पास का रमणीय दृश्य दिखाई देता है – मातङ्ग पर्वत और हम्पी बाजार |

एक दूसरी और उतनी ही प्रसिद्ध गणेश मूर्ति है ससिवे कालु गणेश | एक ही पत्थर से बनाई हुई इस ८ फ़ीट ऊंची प्रतिमा में बहुत ही सुन्दर नक्काशी है | इस प्रतिमा का पेट सरसों के बीज जैसा बनाया गया है – इसलिए यह नाम पड़ा – और एक सर्प पेट के चारों ओर कमरबंद की तरह बंधा हुआ है | छह सौ साल पुरानी यह मूर्ति विजयनगर साम्राज्य के राजा नरसिम्हा २ की स्मृति में बनाई गई थी |


हम्पी, अद्भुत है और यूनेस्को द्वारा उद्घोषित वर्ल्ड हेरिटेज साईट (world heritage site) है| कर्नाटक पर्यटन विभाग हर वर्ष यहां बेहद लोकप्रिय हम्पी उत्सव का आयोजन करता है जिसमे उस गुज़रे दौर की वैभवशाली महिमा फिर से कुछ पलों के लिए सजीव की जा सके | अब चालीस वर्षों के इस अंतराल में बहुत सुन्दर पांच सितारा होटल और आरामदायक रिसॉर्ट्स भी बन गए हैं |

आज की बात नहीं है कि यहां आज भी विरूपाक्ष, अर्थात भयंकर नेत्र वाले शिव जी, की आराधना होती है| उसी विशाल मंदिर में जो लगभग ६०० साल पहले बनाया गया था | मैं मंदिर के गर्भ गृह में विरूपाक्ष जी की मूर्ति के समक्ष नत मस्तक खड़ी थी कि मेरे मन में विचार आया | इसी स्थान पर दक्षिण भारत के कई अत्यंत शक्तिशाली और वैभवशाली सम्राट करीब ५०० – ६०० साल पहले ऐसे ही खड़े हुए थे, भक्ति भाव से हाथ जोड़े और अनुग्रह तथा आशीर्वाद की याचना करते हुए और साथ मे सरल श्रमजीवी किसान, व्यापारी तथा मज़दूर भी | तब से अब तक भयंकर नेत्र वाले शिव जी अपनी दया , करुणा और आशीर्वाद से अपने भक्तों को अनुग्रहीत करते आते रहें हैं और आगे भी जब हम और आप न होंगे तब भी करते रहेंगे |
शाम हो चली थी | ढलता सूरज आसमान को सिन्दूरी बना कर धीमे धीमे विरूपाक्ष मंदिर के विशाल गोपुरम के पीछे छिपने लगा था | वैभव, शक्ति, यश और महिमा सब जीवन की भांति क्षणभंगुर बुलबुले जैसे ही तो हैं पर जब मैंने मुड़ कर मंदिर के प्रांगण में आते- जाते हुए जान समुदाय को देखा तो यह भी सोचा कि जीवन चक्र तो एकदम सनातन है |


वैभव, यश और महिमा सब काल चक्र में समा जाते है पर जीवन चक्र तो चलता ही रहता है, हमेशा और हर जगह |
चालीस साल पहले की उस हम्पी यात्रा में, रात होने पर हम वापिस हॉसपेट आ गए थे | विधान सौधा के स्थानीय सदस्य के यहाँ रात्रि भोज का आयोजन हुआ | हमारे मेज़बान ने अपनी परंपरागत पोशाक के साथ एक बड़ी सी पगड़ी, जो कि राजस्थानी पगड़ी से काफी मेल खाती थी पहनी थी |
महिलाओं ने इलकल साड़ी और कुछ ने कसूती की कढ़ाई वाली सुन्दर साड़ियां और सब ने सोने या चांदी के भारी आभूषण पहन रखे थे | बड़े आदर और अपनेपन से स्वागत हुआ, पर रात के नौ बज गए और खाने का कुछ अता पता नहीं था | मेरे साथ कुछ और लोग भी थे | औपचारिकता में बातचीत चलती रही | दस बज गये | खाने का अबतक कुछ पता नहीं | अब तक तो भूख भी बड़ी ज़ोर से लग आई थी | हम एक दूसरे की ओर प्रश्नवाचक नज़रों से देख रहे थे | कहीं हमने ग़लत तो नहीं समझ लिया? संभवतः भोजन नहीं था | मगर केवल चाय पर रात के आठ बजे कौन बुलाता है ? करीब २५-३० लोग थे वहां पर |

रात के साढ़े दस बज गये | हम सब मेज़बान से विनम्रता से विदा लेने की सोच ही रहे थे कि गर्मागर्म उत्तरी कर्नाटक के व्यंजन एक के बाद एक आने लगे | जवार की रोटी – दो तरह की | एक नरम और एक सूखी पापड़ की तरह | पापड़ की तरह रोटी एक महीने तक ख़राब नहीं होती | बैगन और गाजर की स्वादिष्ट सब्ज़ियाँ | और कम से कम पांच – छह तरह की चटनियाँ | हर चटनी को खाने का तरीका अलग था | कुछ को गाय के शुद्ध घी के साथ मिला कर खाना था और कुछ को दही के साथ | इतना स्वादिष्ट खाना कि स्वाद अभी भी याद है | विशेष रूप से उत्तर कर्नाटक का दही बहुत ही मीठा और स्निग्ध होता है | देसी गाय के गाढ़े दूध को मिट्टी के कुल्हड़ों में जमाया जाता है | और दही अमृत की भांति स्वादिष्ट हो जाता है |
इस प्राचीन प्रदेश में पहले ज़माने में जब लोगों को १० – १५ दिनों की यात्रा पर जाना होता था और रास्ते में भोजन की कोई व्यवस्था नहीं होती थी तो वह अपने साथ ज्वार की सूखी रोटियाँ, घी और तरह तरह की सूखी चटनियाँ साथ में ले जाते थे | दही और दूध यहाँ जगह जगह आसानी से उपलब्ध था और अभी भी है |बस सारा सफर आसानी से कट जाता था |
उत्तर कर्नाटक और दक्षिण कर्नाटक की बोलचाल, पहनावा, खान पान और संस्कृति में बहुत फर्क है | उत्तर कर्नाटक में मराठी और तेलगु प्रभाव झलकता है जबकि दक्षिण कर्नाटक में तमिल प्रभाव | इसी विविधता में एकता हमारे राज्यों को ही नहीं देश को भी अद्भुत बनाती है |

नीरजा राजकुमार
आईएएस (सेवा निवृत )
भूतपूर्व मुख्य सचिव,
कर्नाटक राज्य

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