गणिका

गणिका

‘चरित्रहीन हो, बेगैरत हो, हो निर्लज्ज और कुल्टा’
ऐसे कितने तीर चला कर कहते हो मुझको गणिका !
शफ्फाक वस्त्र में सजे हुये, पर अंदर से उतने मटमैले,
रुतबे वाले ,रँगे सियार, इस समाज में हैं फैले !
भूल के अपनी मर्यादा औ’ भूल के पत्नी का वह प्यार ,
काम पिपासा के कामातुर, आते इस रंगीन बाज़ार !
चाह नहीं हम मासूमों की, हम कुचली मसली जायें,
हमको भी कोई राह दिखाये, काश कि हम ब्याही जायें !
पर मिलते हैं घाव हमें ना केवल पूरे जिस्मों पर,
जिस्म के सँग आत्मा भी हमारी मरती है नित किश्तों पर !
कौन हमें लेकर के आया ,किसने बेचा ,किसने नोचा ,
हर नश्तर ने दिल के अंदर नफ़रत का पौधा सींचा !
ज्ञान धर्म के ज्ञाता सारा दोष हमारे सिर मढ़ते,
पर गणिका का जीवन भी तो यह सब ही मिलकर गढ़ते !
कभी नाम प्रभु सेवा देकर ,देवदासी हमको बतलाया ,
और कभी व्यभिचारिणी कहकर, गणिका का तमगा दिलवाया !
चेहरे पर श्रृंगार सजा हर सांझ परोसी जाती हैं ,
साजिंदो के शोर में कितनी चीखें घुटती जाती हैं !

मंजु श्रीवास्तव ‘मन’
वर्जीनिया, अमेरिका

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