स्त्री-शिक्षा पर गांधी जी की अवधारणा

स्त्री-शिक्षा पर गांधी जी की अवधारणा

गांधी जी सदैव कहा करते थे कि एक आदमी को पढ़ाओगे तो एक व्यक्ति शिक्षित होगा। एक स्त्री को पढ़ाओगे तो पूरा परिवार शिक्षित होगा। “गांधीजी शिक्षा के माध्यम से महिलाओं की मुक्ति में विश्वास रखते थे और उन्होंने भारतीय समाज के कायाकल्प की दिशा में चलायी गयी राजनीतिक सामाजिक अथवा विकास सम्बन्धी गतिविधियों में महिलाओं के प्रति कोई भेदभाव नहीं रखा। सामाजिक निरंकुशता और पुरुष प्रधानता की वजह से महिलाओं की जो दुर्दशा हुई, उसका गांधीजी को भली भाँति ज्ञान था।

गांधीजी ने महिलाओं की शिक्षा को पर्याप्त महत्त्व दिया, किन्तु वे जानते थे कि अकेले शिक्षा से ही राष्ट्र निर्धारित लक्ष्य प्राप्त नहीं किये जा सकते। वे सिर्फ महिलाओं की ही नहीं, पुरुषों की भी मुक्ति के लिए समुचित कार्यवाही के पक्षधर थे। शिक्षा के बारे में उनके विचार अनेक समकालीनों से भिन्न थे और शिक्षा उनके ग्राम पुर्ननिर्माण तथा उसके माध्यम से राष्ट्र पुर्ननिर्माण का मात्र एक हिस्सा, एक प्रमुख घटना थी। उन्होंने एक बार कहा था कि महिलाओं की शिक्षा मात्र ही दोषी नहीं है, हमारी समूची शिक्षा-प्रणाली विगलित है। यंग इन्डिया में २३ मई, १९२९ को लिखे गांधीजी के एक लेख से पता चलता है कि उन्हें निरक्षरता, स्कूल सुविधाओं का अभाव, भू-स्वामियों के शोषण का शिकार होने और ऐसी ही अन्य सामाजिक आर्थिक अक्षमताओं की कितनी जानकारी थी, जिनका सामना ग्रामीण महिलाओं को करना पड़ता है। उन्होंने लिखा था ‘जरूरी यह है कि शिक्षा प्रणाली को दुरुस्त किया जाये और उसे व्यापक जनसमुदाय को ध्यान में रखकर तय किया जाये।

भारत में जो गिनी-चुनी शिक्षित महिलाएँ हैं, उन्हें पश्चिमी ऊँचाइयों से नीचे उतरकर देश के मैदानों में आना होगा। उनकी उपेक्षा के लिए निश्चय ही पुरुष जिम्मेदार है, उन्होंने महिलाओं का अनुचित इस्तेमाल किया है किन्तु जो महिलाएँ अन्धविश्वासों से उपर उठ चुकी हैं, उन्हें सुधार के लिए रचनात्मक कार्य करने होंगे।

गांधीजी के अनुसार शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो लड़के-लड़कियों को स्वयं के प्रति अधिक उत्तरदायी बना सके और एक-दूसरे के प्रति अधिक सम्मान की भावना पैदा कर सके। महिलाओं के लिए ऐसा कोई कारण नहीं है कि वे अपने को पुरुषों का गुलाम अथवा पुरुषों से घटिया समझें, उनकी अलग पहचान नहीं है बल्कि एक ही सत्ता है। अतः महिलाओं को सलाह है कि वे सभी अवांछित और अनुचित दबावों के खिलाफ विद्रोह करें। इस तरह के विद्रोह से कोई क्षति होने की आशा नहीं है। इससे तर्कसंगत प्रतिरोध होगा और पवित्रता आयेगी।

शहरी लड़कियाँ देश में उच्च शिक्षा का अधिकतम लाभ उठा रही हैं, क्योंकि वे उच्च और मध्यमवर्ग से सम्बन्ध हैं। उनकी उपस्थिति उन क्षेत्रों में पर्याप्त मात्रा में बढ़ी है, जो लड़कों का गढ़ समझे जाते थे, जैसे- रसायन, इंजीनियरिंग, ऐयरोनाटिकल इंजीनियरिंग, इलेक्ट्रानिक्स, संचार और पत्रकारिता, शिक्षा, उत्पादन, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, व्यापार प्रबन्ध और कम्प्यूटर विज्ञान अनेक युवतियों के प्रवेश के बाद अथवा परीक्षा का परिणाम आने तक अन्त में घरेलू महिला बनना पड़ता है। वे जान-बूझकर अपनी शिक्षा और व्यावसायिक लक्ष्यों को परिवार के जीवन के लिए त्याग देती हैं। यह बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण समाज वैज्ञानिक अवधारणा है, क्योंकि एक डॉक्टर, इंजीनियर और व्यापार प्रबन्ध बनाने में कई लाख रुपये की लागत आती है अगर उसकी शिक्षा का इस्तेमाल समाज की बेहतरी के लिए नहीं होता, तो उस पर खर्च समूची धनराशि व्यर्थ जाती है। हालाँकि अनेक शादीशुदा प्रशिक्षित महिलाएँ जो घरों में रहती हैं वे बच्चों का पालन पोषण बड़ी दक्षता से करती हैं और घरेलू गतिविधियों का प्रबन्ध करती हैं, यह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है।

सरकारी और प्राइवेट संस्थानों की घरों मे रहने वाली व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित महिलाओं को सेवाओं का लाभ उठाने का प्रयास करना चाहिए। रोजगार, काम के घण्टे आदि परम्परागत नियमों को बदलना होगा ताकि काम की इच्छुक महिलाओं की विशेष आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। वर्तमान में कोरोना संक्रमण के चलते वर्क फ्रॉम होम संस्कृति को काफी प्रश्रय मिल, अतः नियोक्ताओं को चाहिए कि उन सभी प्रशिक्षित महिलाओं को क्रयों से जोड़ें जो किसी कारण से घर से बाहर जाकर काम करने कि स्थिति-परिस्थिति में नहीं हैं।

गांधीजी के विचारों को ध्यान में रखते हुए पहला उपाय यह करना होगा कि निचले स्तर पर शिक्षा को व्यावसायिक बनाया जाये। स्कूल स्तर पर महिलाओं को विशेष कौशल का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। ऊपरी मिडिल स्कूल से लेकर वरिष्ठ माध्यमिक स्तर पर प्रशिक्षण का एक खास पाठ्यक्रम तैयार किया जा सकता है। कम्प्यूटर शिक्षा भी निचले स्तर से ही शुरू की जा सकती है। किसी लड़के या लड़की के हायर सेकेण्ड्री परीक्षा पास करने तक उन्हें रोजगार के लिए दक्ष बना दिया जाना चाहिए। माध्यमिक स्तर पर किताबी शिक्षा की मात्रा कम की जा सकती है, व्यासायोन्मुखी जानकारी और स्कूल के पुस्तकालय, प्रयोगशाला प्रशिक्षण का प्रबन्ध किया जा सकता है। अगर अधिक प्रशिक्षण सुविधाओं की आवश्यकता हो तो भावी कर्मचारियों को प्रशिक्षण सहायता देने के लिए स्थानीय निगम आगे आ सकते हैं।

भारतीय नारी की क्षमता और किसी भी उन्नतिशील देश की नारी से कम नहीं है। अन्तर केवल इतना ही है कि जहाँ उन्नतिशील देशों में नारियों की पुरुषों के समान लगभग प्रत्येक क्षेत्र में समान अवसर प्राप्त हैं, वहीं भारतीय नारियों के सामने व्यावहारिक रूप में अवसरों की कमी है। संविधान में यद्यपि सिद्धान्त रूप में और स्त्री और पुरुष को समान अधिकार दिये गये हैं, पर व्यवहार में वह बात नहीं है और अनेक सामाजिक बाधाएँ उनके विकास में बाधक हैं। अतः नारियों को व्यावहारिक रूप से समान अधिकार मिलना चाहिये। परन्तु साथ ही साथ हमें अपनी संस्कृति और सभ्यता की उपेक्षा नहीं करनी होगी। महिलाओं की शिक्षा में भी हमें उनकी उन व्यावहारिक कठिनाइयों पर ध्यान देना होगा जो शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर आती हैं। इनकी शिक्षा, पाठ्यक्रम आदि के निर्धारण में नारी जाति की स्वाभाविक आवश्यकताओं का ध्यान रखना होगा। पुरुष और स्त्री के लिए एक ही प्रकार के पाठ्यक्रम के निर्धारण से उनका उचित विकास नहीं होगा। शिक्षा के क्षेत्र में यदि प्राथमिक शिक्षा स्तर तक सह-शिक्षा भी दी जा सकती है। परन्तु अधिक उत्तम हो कि देशभर में अधिक-से-अधिक बालिका विद्यालय खोले जायँ।

इस देश में समाज के निम्न वर्ग की औरतें तो हमेशा से ही मजदूरी करती रही हैं, किन्तु उच्च वर्ग की महिलाएँ अधिकतर अपने घरों तक ही सीमित रही हैं। स्वतंत्र भारत में अब महिलाएँ घर की चहारदीवारी से निकलकर इन धन्धों में जा रही हैं जिन पर अब तक पुरुषों का अधिपत्य था। यह एक अपूर्व घटना है और एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत की विशेषता भी है।

अभी भी उच्च शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त युवतियों की तीन-चौथाई संख्या रोजगार क्षेत्र में नहीं उतर पाती। विशेष रूप से तकनीकी व्यावसायिक क्षेत्रों के लिए किये गये प्रशिक्षण का लाभ राष्ट्र को नहीं मिल पाता क्योंकि कुछ रुढ़यिाँ उनमें बाधक हैं और प्रशिक्षण और रोजगार क्षेत्रों में ठीक सामंजस्य नहीं बैठाया जा सका है। एक ओर तो बेरोजगारी है, दूसरी ओर रोजगार क्षेत्रों को योग्य व्यक्ति नहीं मिलते हैं। लड़कियों, महिलाओं के मामले में तो उनका प्रशिक्षण भी समाज के काम नहीं आता।

भारत में महिलाओं की शिक्षा चूँकि ज्यादा नहीं हो पाती है इसलिए महिलाओं की ऐसी शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए कि बालिकाओं को हाईस्कूल और इन्टरमीडिएट करने के साथ-साथ कोई ऐसी शिक्षा हो जो उनकी सभ्यता और संस्कृती से जुड़ी हुई हो और उस शिक्षा के द्वारा वह अपनी जीविका चला सके। जिससे उन्हें अपनी जरूरत की सभी चीजों के लिए किसी और के ऊपर निर्भर न होना पड़े। इसलिए प्रत्येक बालिका को शिक्षा के साथ ऐसी कला सिखायी जाय जो उसको अपने घर में रहकर ही स्वरोजगार करके अपनी तथा अपने परिवार की जीविका चला सके।

हमारे आज के समाज की सबसे बड़ी माँग यही है कि हम दूसरे के ऊपर निर्भर न होकर स्वयं अपने देश के ऊपर निर्भर रहें। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा के अनुसार रोजगार करने की जरूरत है, जिससे कि हमारा देश आगे बढ़ सके और अन्य देशों की तरह कन्धा से कन्धा मिलाकर हम भी विकसित देशों में अपना नाम कर सकेंगे। आज लड़कियों कि शिक्षा के नाम पर बस उसे साक्षर बनाया जाता है, लोगों का नजरिया अभी भी स्त्री शिक्षा के प्रति बहुत ही पिछड़ा हुआ है। लड़कियों को स्नातक या स्नातकोत्तर कराने के बाद उसकी शादी कर देते हैं, ये नहीं सोचते कि आगे चलकर क्या करेंगी। बचपन से ही उसकी शिक्षा का कोई उद्देश्य नहीं होता है, इसलिए आवश्यकता है समाज को स्त्री शिक्षा के बारे में सोचने के लिए कि स्त्रियों की शिक्षा रचनात्मक ढंग से होनी चाहिए, जिसके कारण वे परम्परागत शिक्षा की आवश्यकता को महसूस करें। जिससे वे आत्मनिर्भर बन जायेंगी और समाज में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी और समाज की भी प्रगति होगी।

भारतीय नारी परिवार, समुदाय और समाज में तभी उत्साहपूर्वक अपनी भूमिका का निर्वाह कर सकती है, जबकि सामाजिक जीवन में उसके काम और जीवन की दशाओं में सुधार होगा, और वह स्वयं को सामाजिक, आर्थिक व मानसिक रूप से बन्धनमुक्त कर पायेगी। स्त्रियों को ऊँचा उठाने का दायित्व सम्पूर्ण व्यवस्था का है। इसके लिए सम्पूर्ण समाज को जागृत करने की आवश्यकता है, क्योंकि उनकी समस्याएँ एकांगी न होकर समस्त समाज से जुड़ी हुई हैं। तभी हमारा देश आगे बढ़ सकेगा।

डॉ नीरज कृष्ण
वरिष्ठ साहित्यकार
पटना, बिहार

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