क्या है गाँधीवाद ?
महात्मा गांधी के विचारों की समग्रता गांधीवाद के रूप में चर्चित है।उनके आदर्श, चिंतन, विश्वास और दर्शन से निकली विचारधारा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बहुत सफल रही और उन्हीं के आधार पर देश को स्वतंत्रता भी मिली। बिना हिंसा किये 600 वर्षीय अंग्रेजों की हुकूमत को उखाड़ फेंकना और उनके प्रशासन को चुनौती देना लोगों के लिए लगभग असंभव सा प्रतीत हो रहा था, जिसे गांधी जी ने सफलतापूर्वक अपने विचारों के प्रयोग से संभव कर दिखाया। उनके द्वारा प्रयुक्त इन्हीं विचारों और सिद्धांतों का संग्रह गांधीवाद के रूप में जाना जाता है। परंतु, देश के विभाजन और सामाजिक परिवर्तन के संबंध में गांधीवादी विचारधारा की प्रासंगिकता भी परीक्षणीय है।वर्तमान में गांधीवाद को ‘गांधी दर्शन’ या ‘गांधी के सिद्धांत’ भी कहा गया है। इसका मुख्य कारण यह लगता है कि स्वयं महात्मा गांधी किसी वाद, संप्रदाय या सिद्धांत का अनुसरण नहीं करते थे और न ही अपने बाद किसी तरह का वाद छोड़ कर जाना चाहते थे। उनका तरीका उनके अपने अनुभवों और प्रयोगों पर अधिक आधारित था।वह कर्मयोगी थे और कार्य करने में विश्वास करते थे। इसीलिए, हर क्षेत्र में जहाँ भी उन्होंने बदलाव चाहा,उन्होंने इन्हीं अनुभवों तथा विचारों का प्रयोग करके किया और सफल भी होते रहे। यही कारण है कि उनके विचारों की समग्रता को परिस्थिति के आधार पर “गांधीवाद” का नाम दिया गया।
“गांधीवाद” एक ऐसा दर्शन है जो सबके कल्याण की बात करता है।यह हिंसक शस्त्रों के स्थान पर अहिंसक साधनों को श्रेयष्कर मानता है,शत्रुता के स्थान पर मित्रता और घृणा के स्थान पर प्रेम दिखाता है। इसके अंतर्गत कार्य की प्रेरणा के स्रोत सत्य, धर्म और ईश्वर हैं।छल, कपट, स्वार्थपरता, हिंसा,द्वेष आदि हैं और विकृतियों का उसमें कोई स्थान नहीं। गांधीवाद साध्य और साधन की पवित्रता पर बल देता है।गांधीवाद को किसी एक विचार से संबंधित करके नहीं देखा जा सकता। गांधीजी की आदर्शों के आधार थे- सत्य, अहिंसा, प्रेम और भ्रातृत्व।इस संबंध में एक बार स्वयं गांधी जी ने भी कहा था कि गांधी मर सकता है परंतु सत्य, अहिंसा सर्वदा जीवित रहेंगे।
गांधी जी केवल विचारशील ही नहीं थे, आचारवान भी थे। विचारों को आचार-व्यवहार में लाना ही उनकी प्राथमिकता थी। जो विचार व्यवहार में नहीं लाया जा सकता गांधीवाद उसे गौण समझता है। अहिंसा द्वारा अपने कार्य ईश्वर पर विश्वास रखकर करना ही गांधीवाद का मूल है। इसीलिए गांधीवाद समूहवादी विचारधारा है, जिसमें विचार और आचार दोनों समाज कल्याण का मार्ग दिखाते हैं और व्यवहारिक आदर्शवाद,राष्ट्रवाद,अंतरराष्ट्रीयवाद,सर्वोदयवाद समाह्रत हैं। गांधीवादी विचारधारा में भारतीय एवं पाश्चात्य-दोनों तरह के विचारकों के विचारों का प्रभाव दिखता है। इसके अतिरिक्त, गांधी के विचारों में भगवद्गीता तथा उपनिषद का भी असर स्पष्ट है। गांधीवाद का यह धार्मिक सामाजिक पहलू 1893 से 1914 तक दक्षिण अफ्रीका में और उसके बाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय पूर्णरूपेण दिखाई दिया।
गांधीवाद न केवल राजनीतिक,नैतिक और धार्मिक है, बल्कि पारंपरिक और आधुनिक तथा सरल और जटिल भी है। यह एक दो धारी तलवार है, जिसका उद्देश्य सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों के अनुसार व्यक्ति और समाज को एक साथ बदलना है।इसी गांधीवादी विचारधारा को भारत में बाद में विनोबा भावे,जयप्रकाश नारायण और अन्ना हजारे तथा भारत के बाहर मार्टिन लूथर, किंग जूनियर और अन्य ने किया।प्रमुख गांधीवादी विचारधाराएँ हैं..
सत्य और अहिंसा..जिसमें ईश्वर तथा नैतिकता सत्य का आधार हैं और अहिंसा प्रेम और उदारता की पराकाष्ठा है, जो किसी को भी मानसिक व शारीरिक कष्ट नहीं देता है।
सत्याग्रह,जो व्यक्तिगत पीड़ा सहन कर अधिकारों को सुरक्षित करने और दूसरों को चोट न पहुँचाने की विधि है। इस प्रकार,अन्याय, उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ यह सत्याग्रह आत्म बल प्रयोग है।
सर्वोदय का अर्थ है ‘सब का उदय’ अर्थात ‘सब की प्रगति’। यह शब्द गांधी जी ने सर्वप्रथम जॉन रस्किन की पुस्तक “अंटू दिस लास्ट” में पढ़ा था।
स्वराज का अर्थ गांधीजी ने केवल स्वशासन न मानकर एक ऐसी क्रांति माना है,जो जीवन के हर क्षेत्र को समाह्रत करती है।उनके लिए यह स्वराज शब्द अपने संपूर्ण अर्थ में स्वतंत्रता से कहीं अधिक है, आत्म संयम है और मोक्ष के बराबर का दर्जा रखता है।
ट्रस्टीशिप एक सामाजिक-आर्थिक दर्शन है। गांधीवाद के अनुसार यह एक ऐसा माध्यम है, जो दौलतमंद लोगों को गरीबों और असहयोग की मदद करने में सहायक बन सकता है। यह गांधीवाद का आध्यात्मिक पहलू है और गांधीजी के “थियोसोफिकल सोसायटी”और “भगवद्गीता” के अध्ययन से गांधी जी के विचारों में आया है।
स्वदेशी ‘स्व’ और ‘देश’- दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है ‘अपना देश’ परंतु इसे आत्मनिर्भरता के अर्थ में भी लिया जा सकता है।
असहयोग आंदोलन एक ऐसा आंदोलन है, जिसमें शांत भाव से बिना किसी की सहायता लिए और किसी तरह की हिंसा किए बिना अपने अधिकारों की माँग के लिए अड़े रहना है।
वर्तमान समय में गाँधीवाद की प्रासंगिकता-
गाँधीवाद वर्तमान परिस्थितियों में कुछ विवाद के घेरे में है। कुछ लोगों की धारणा है कि गांधीवाद को नहीं अपनाया जा सकता क्योंकि यह पीछे की ओर ले जाने वाला दर्शन है तो अन्य लोग यह मानते हैं कि गांधीवादी विचारधारा ही समाज और राजनीति को सही दिशा दिखा सकती है। जहां तक अहिंसा की बात है तो यह विचारधारा जैन और बौद्ध धर्म से प्रेरित है। इस विचारधारा से अपने अधिकारों और अपनी आजादी प्राप्त करना गांधीवाद का एक अद्भुत प्रयोग है। गांधी जी ने सत्य और अहिंसा को आजादी हासिल करने का हथियार बनाया,यह आज के समाज को सीख देने वाली बात है। जहाँ बात बात पर लोग हिंसा पर उतारू होने लगते हैं, ऐसे समाज के लिए यह शांतिपूर्ण हथियार बहुत आवश्यक है।उनके सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा, असहयोग और अहिंसात्मक आंदोलन का असर इतना व्यापक था कि अंग्रेजों को घुटने टेकने पड़ गए।यह आज के परिवर्तनशील और हिंसक विचार वाले समाज को बड़ी सीख देती है।
गांधीवाद कठिन धार्मिक नियमों का पालन करते हुए राजनीति को एक नई दिशा देता है।राजनीति में भी संतत्व बनाए रखने का नाम है गांधीवाद। जबकि आज संतों को धार्मिक मठों में रहकर राजनीति करते हुए देखा जाता है। इस दृष्टि से गांधीवाद अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है जो आत्मशुद्धि के साथ-साथ समाज और राजनीति में अध्यात्म और त्याग को जोड़ता है।
कुछ लोगों का मानना है कि गांधीवादी विचारधारा लोगों को हड़ताल,बंद,धरना करने को उकसाती है, जिसकी वजह से समाज में विसंगतियाँ पैदा होती हैं और देश के विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है। धरना या आमरण अनशन तो इतने प्रचलित हो चले हैं कि आए दिन किसी न किसी शहर में या प्रांत में इसका असर देखा जा सकता है और व्यक्ति, संगठन या समाज इसके माध्यम से अपनी अनुचित मांग के लिए राज्य में अशांति फैलाने में माहिर हो चले हैं। यह धारणाएँ अब व्यापक रूप से सर्वहित को नुकसान पहुंचाती है।अब यहाँ तर्क यह दिया जा सकता है कि क्या फिर लोगों को अपने हितों की रक्षा करने के लिए अहिंसात्मक आंदोलन को छोड़कर हिंसात्मक दिशा में सोचना चाहिए ?धरना, अनशन या सविनय असहयोग नहीं होगा तो लोग हिंसा का सहारा लेंगे, जो हमारे देश के लिए और भी कहीं ज्यादा नुकसानदायक ही होगा।
गांधीवाद के पक्ष और विपक्ष दोनों में तर्क जुटाए जा सकते हैं। सोचने वाली बात यह है कि वर्तमान युग में गांधीवाद की आवश्यकता है या कि गांधी की तरह जीने की आवश्यकता है। हो सकता है कि कुछ लोग इन दोनों बातों में फर्क नहीं करते हों पर यह विचारणीय तो है।आज के जीवन में तो देश, समाज और पर्यावरण का भला करने के लिए बहुत जरूरी है गांधी जैसी जीवन शैली अपनाना।
दरअसल, “सर्वधर्म सम्भाव” की जीती जागती तस्वीर समझे जाने वाले गांधी जी मानते थे कि हिंसा की बात चाहे किसी भी स्तर पर क्यों न की जाए, परन्तु वास्तविकता यही है कि हिंसा किसी भी समस्या का सम्पूर्ण एवं स्थायी समाधान कतई नहीं है…और यह सच भी साबित हो रहा है। जिस प्रकार आज के दौर में आतंकवाद व हिंसा विश्व स्तर पर अपने चरम पर दिखाई दे रही है तथा चारों ओर गांधी के आदर्शों की प्रासंगिकता की चर्चा छिड़ी हुई है, ठीक उसी प्रकार गांधीजी भी अहिंसा की बात उसी समय करते थे जबकि हिंसा अपने चरम पर होती थी।
अहिंसा से हिंसा को पराजित करने की सारी दुनिया को सीख देने वाले गांधीजी स्वयं गीता से प्रेरणा लेते थे। हालांकि वे गीता को एक अध्यात्मिक ग्रन्थ स्वीकार करते थे। परन्तु श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए संदेश में कर्म के सिद्घान्त का जो उल्लेख किया गया है, उससे वे अत्यधिक प्रभावित थे। गांधीजी जिस ढंग से गीता के इस अति प्रचलित भाव -‘कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर’ की व्याख्या करते थे, वास्तव में आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसी व्याख्या की प्रासंगिकता महसूस की जा रही है।पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति,ओबामा महात्मा गांधी के उस महान दर्शन के कायल हैं, जिसके तहत गांधीजी ने विश्व समाज को किसी की दमनकारी नीतियों का विरोध शांतिपूर्ण तरीके से करने हेतु प्रेरित किया था। ओबामा यह स्वीकार करते हैं कि उन्होंने सदैव गांधीजी को अपने आदर्श एवं प्रेरणा के रूप में देखा व समझा है। अपने कार्यालय में गांधी के चित्र लगाने के विषय में ओबामा फरमाते हैं कि मेरे सीनेट दफ्तर में गांधीजी की तस्वीर इसलिए लगी हुई है ताकि मैं यह याद रख सकूँ कि वास्तविक परिणाम सिर्फ वाशिंगटन से नहीं बल्कि जनता के बीच से आएंगे।
आज राजनीति में सक्रिय लोग अधिकांशतः सत्ता को हासिल करने के लक्ष्य को केंद्र में रखकर अपनी राजनैतिक बिसात बिछाते हैं…बजाए इसके कि यही तथाकथित राजनेता समाज सेवा के माध्यम से विकास एवं प्रगति के नाम पर जनकल्याण से जुड़ें,मुद्दों के आधार पर अशिक्षा व बेरोजगारी दूर करने के नाम पर, स्वास्थ सेवाएं मुहैया कराने, सड़क बिजली व पानी जैसी मनुष्य की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के नाम पर मतदाताओं के बीच जाकर उनसे समर्थन की दरकार करें तथा अपने किए गए कार्यों के नाम पर जनसमर्थन जुटाने की कोशिशें करें। ठीक इसके विपरीत, अब बिना कर्म किए ही फल प्राप्त करने अर्थात् राजसत्ता को दबोचने का प्रयास किया जाने लगा है। इस ‘शॉर्टकट’ अपनाने का दुष्परिणाम यही है कि आज पूरे भारत में तरह-तरह की समस्याएँ फल फूल रही हैं। दुनिया के अन्य कई देश भी इस समय साम्प्रदायिकता तथा जातिवाद की पीड़ा से प्रभावित हैं। सत्ता जैसे फल को यथाशीघ्र एवं अवश्यम्भावी रूप से हासिल करने के लिए कहीं साम्प्रदायिक दंगे करवा दिए जाते हैं तो कहीं भाषा, जाति, वर्ग भेद की लकीरें खींच दी जाती हैं। दरअसल ये इनके द्वारा किये जाने वाले कर्म नहीं हैं, बल्कि राज सत्ता रूपी फल को प्राप्त करने हेतु इनकी स्थिति एक विष जैसी हो चुकी है। और एक विषयुक्त व्यक्ति नीतियों, सिद्घान्तों यहाँ तक कि मानवता को ही त्याग देता है तथा केवल लक्ष्य को अर्जित करने के लिए निम्न से निम्न स्तर तक के फैसले लेने में नहीं हिचकिचाता।आज दुनिया के किसी भी देश में शांति मार्च का निकलना हो अथवा अत्याचार व हिंसा का विरोध किया जाना हो, या हिंसा का जवाब अहिंसा से दिया जाना हो, ऐसे सभी अवसरों पर पूरी दुनिया को गांधीजी की याद आज भी आती है और हमेशा आती रहेगी। अत: यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि गांधीजी, उनके विचार, उनके दर्शन तथा उनके सिद्घान्त कल भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं तथा रहती दुनिया तक सदैव प्रासंगिक रहेंगे।
देखा जाए तो गांधीवाद-दर्शन और संदेश वर्तमान के लिए तो बहुत ही सार्थक है।सच कहें तो यह विचारधारा ही आधुनिक सभ्यता को सर्वनाश के बचाने में सक्षम है। स्थायी मान्यताएँ…जैसे स्वयं से पहले दूसरों की सेवा और अर्जन से पहले त्याग जैसी नीतियाँ बहुत तेजी से समाज में समाप्त होती जा रही हैं और उनका स्थान स्वार्थ, लालच,हिंसा और अराजकता ले रहे हैं। इन सबने संघर्षों को जन्म दिया है और सहिष्णुता तथा मानव प्रेम के उच्च आदर्श कमजोर पड़ते दिखाई दे रहे हैं। इस तस्वीर का सामना करने के लिए सशक्तिकरण की होड़ लगी है,युद्ध के विनाशकारी शस्त्र मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरा बनने लगे हैं, बड़े पैमाने पर विनाश की नई तकनीकों का विकास किया जा रहा है और कानून की सभी प्रणालियों के पुनरावलोकन से भी मानवीय मेलजोल और शांति स्थापना करने में सफलता नहीं मिल पा रही है।ऐसे वातावरण में,गांधीवाद ही एक आशा की किरण प्रस्तुत करता है।गाँधीवाद के आदर्श और उपदेश मानवता को आंतरिक शुद्धता के साथ अमर शांति की मंजिल तक पहुंचाने के लिए एक नई दिशा प्रदान करते हैं। सत्य के गांधी जी द्वारा किए प्रयोगों की सफलता ने यह पक्का कर दिया है कि सत्य की विजय होती ही है और सही रास्ता सत्य का ही रास्ता है और मानवता और इंसानियत भी तभी स्थापित हो सकेगी जब समाज सत्य का रास्ता अपनाएगा। गांधी जी का कहना था कि ईश्वर का में विश्वास और सत्य का अनुसरण ही मानवता को सर्वनाश से बचा सकते हैं।
गांधीवाद का लक्ष्य विरोधी के हृदय में परिवर्तन लाना भी है। उसके अंतर्गत अहिंसक युद्ध में क्रूरता और कटुता के लिए कोई स्थान नहीं है बल्कि उसका उद्देश्य युद्धरत दलों में सद्भावना और मित्रता पैदा करना है।
गांधीजी के विचारों का अनुसरण करके वर्तमान में भी व्यक्तिगत जीवन, सार्वजनिक जीवन और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में इससे बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। गांधीवादी विचारधारा जीवन की सादगी का उपदेश देता है।यह सच्ची संस्कृति और सभ्यता,इच्छाओं को कम करने और सादा जीवन जीने की बात करता है। गांधीजी ने रोटी और श्रम का विचार प्रतिपादित किया, जो उनकी सादगी की धारणा पर आधारित है।यह वर्तमान में सर्वत्र प्रासंगिक है और सदैव के लिए सार्थक है ।क्या ही अच्छा होता कि लोग इसका पालन करते… तो बहुत सारे दुखों, अस्वस्थता, निराशा और जीवन के तनाव समाप्त हो सकते थे।
गांधीजी आर्थिक और राजनीति दोनों प्रकार के विकेंद्रीकरण के पक्षधर थे।वह आत्मनिर्भर, और स्वस्थ पंचायतों की स्थापना की पक्षधर थे। आर्थिक क्षेत्र में भी गांधीजी बड़े केंद्रीकृत उद्योग के विरुद्ध थे।इसके विरुद्ध में उन्होंने कुटीर उद्योगों के सुधार एवं स्थापना पर काफी बल दिया। अब जबकि भारी उद्योगों से निकलने वाली गैस ने हर तरफ प्रदूषण की समस्या को जन्म दिया है, तब कुटीर उद्योग और लघु उद्योगों की ओर वापसी ही पर्यावरण प्रदूषण के हानिकारक प्रभाव से बचने के लिए एक आशा का किरण प्रदान करती है। इस संबंध में गांधी जी का दृष्टिकोण वर्तमान युग में भी बहुत सार्थक सिद्ध हुआ है।
गांधीवाद का एक अद्वितीय योगदान है कि इस विचारधारा ने पूंजीवाद और समाजवाद का समन्वय किया। उनके ट्रस्टीशिप के सिद्धांत ने समाजवाद और पूंजीवाद के बीच का एक रास्ता निकाला।गांधीवाद के राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीयवाद पर विचार भी आज बहुत ही प्रबल और सार्थक दिखाई देते हैं। आज की दुनिया में अंतरराष्ट्रीयवाद की कीमत पर हम राष्ट्रवाद नहीं कर सकते। नाजी और फासीवादियों का राष्ट्रवाद आज असंगत ही नहीं, भयानक परिणामों से घिरा है। आज उदार राष्ट्रवाद को अपनाने की आवश्यकता है। गांधीजी भारत को स्वतंत्र इसलिए चाहते थे क्योंकि वह समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए संसाधनों का विकास कर सकें। उनका यह मानना था कि मानवता की मुक्ति का रास्ता अध्यात्म से होकर गुजरता है और भौतिकवाद एक हानिकारक तत्व है, जो न केवल भ्रष्ट नेताओं को जन्म देता है, अपितु आत्मा का हनन भी करता है। आज के समय में धन संग्रह की दौड़ और जीवन के प्रति उपभोक्तावादी दृष्टिकोण ने हमारे जीवन की शांति पर कुठाराघात किया है। भौतिकवाद और आध्यात्मवाद-दोनों के मध्य सुखद एवं विवेकपूर्ण संतुलन निकालना ही एकमात्र हल है ,जो गाँधीवाद से हमें मिल सकता है।
आधुनिक युग में शिक्षा में सुधार हमारी बहुत सी बुराइयों के लिए प्रभावी समाधान है। इस दृष्टि से गांधीवाद का शिक्षा संबंधी सिद्धांत भी आज बहुत प्रासंगिक है। शिक्षा के संबंध में बनने वाली नीतियों और कार्यक्रमों में उन विचारों की आत्मा को लागू किया जा सकता है।”अध्ययन करते हुए जीविका कमाओ”, जो कि उनकी बुनियादी शिक्षा का केंद्रीय सिद्धांत है, आज भी हमारी शिक्षा को एक नई दिशा प्रदान कर सकता है।शिक्षा के पाठ्यक्रम में व्यवसायिक कोर्स का लागू किया जाना गांधीजी के शिक्षा संबंधी विचारों का ही प्रभाव है और शिक्षा की यह योजना बहुत ही सार्थक और लाभकारी प्रतीत हो रही है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि गांधीवाद हर तरह से आज भी बहुत सार्थक है।हमें यह तथ्य स्वीकार करना है कि गांधीवाद का प्रचार एवं अभ्यास ही हमारी सभ्यता को बुराइयों और नकारात्मक प्रवृत्तियों से मुक्त कर सकता है जो मानव जाति के सकारात्मक पक्ष पर कुठाराघात करने में लगे हैं।गाँधीवादी विचारधारा मूलतः सत्य,अहिंसा, प्रेम,त्याग जैसी ईश्वरीय नैतिकता कर आधारित है,इसीलिए,जब तक दुनिया कायम है, यह हमारे लिए प्रासंगिक है और हमें दिशा दिखाती रहेगी।
अर्चना अनुप्रिया
साहित्यकार
दिल्ली