एक खत मेरे डैडी के नाम

एक खत मेरे डैडी के नाम

लोग कह रहें हैं आज पिता दिवस है
आज बेशक आप हमारे बीच शारीरिक रूप से नहीं
आप तना बन कर रहे मेरे जीवन वृक्ष का
वो सुबह पार्क से चमेली के फूलों को तोड कर लाना और मेरे सिराहाने रख उनकी खुशबू मुझे जागने पर मजबूर कर देना

कितना अलहदा था

खुद अनपढ़ होते हो
रात अपने थैले में कुछ हमारा पसंदीदा भर लाना
जिसका लालच दे हमें किताब थमाना

कितना अलहदा था

पीठ के बल लिटा सुबह पूरे शरीर कौ
हल्के हाथों से दबा कर उठाना

कितना अलहदा था

और स्कूल तक छोड़ कर आना
पांच रू का सिक्का हाथ में थमाना
जबकि उसी स्कूल में मेरी मां भी टीचर थी

कितना अलहदा था

मेरी बड़ी बहन को साइकल सिखाना
और मेरा देख देख कर खुद सीख जाना
और फिर मुस्कुरा कर पीठ थपथपाना

कितना अलहदा था

उस जमाने में
दिल्ली से हमारे लिये
बिना बाजू की
फ्राक लाना
हमें भीड़ से अलग दिखाना

कितना अलहदा था

हमें मदर इंडिया रात का
9 से 12
का शो दिखाना
और फिर दादा जी से बहुत सारी डांट खाना

कितना अलहदा था

सुबह अखबार मेरे हाथ
में पकड़ा कर सभी खबरों को सुनना
और मुझे बताना
नानी के घर जाते हुये
पैसेंजर गाड़ी में बिठाकर
दशहरी आम भर कर देना
एक सुराही उसमें रखना
और फिर हमारे लौटने तक
हमारे लिए सामान जोड़ कर रखना

सब अलहदा था ।

मुसीबत आ जाने पर
सभी लोगों के ताने सुन कर
भी हमारी पढ़ाई ना छुड़वाना

कितना अलहदा था

पंजाब केसरी से कवियायें
उतार कर
मुझे लिखवाना
मुझ से बुलवाना
और दूर मंच से खड़े हो कर
मेरे लिए ताली बजाना

कितना अलहदा था

आपकी दुकान पर
मेरा खाना देने आना
आपका सोना
और मेरा आपकी दुकान संभालना
और फिर बदले में
शाम को
5 रु की कोका कोला से
मेरी पार्टी करवाना

कितना अलग था

सहेली को जन्मदिन का उपहार
देने के लिए
मेरा आपके गल्ले से
5 रु चुराना
और वही पैन की दुकान पर आकर
मेरा हाथ थाम घर ले आना
और मां की डांट से बचाना
सबसे अलहदा था

मां की मदद करने को
हमारे मना करने पर भी
सुबह सुबह उठ कर
बाकी कपड़ों के साथ
हमार अंतःवस्त्र तक को धो कर सुखाना
और मुस्कुराना

कितना अलहदा था

साइकल पर हम चार को बिठाना
और दशहरे का मेला दिखाना
कितना अलहदा था ।

हमारे रिसल्ट आने पर
पुरे मोहल्ले में गुलाबजामुन बांट आना
हर ट्रीप पर भेजना
और मां से चोरी
पैसे मेरे बैग में छिपाना

कितना अलहदा था

अपने भाई के पैदा होने की खबर देने
मेरा बहन के साथ आपकी दुकान पर आना
और आपका भीगी आंखों से
दुकान की चाबियां
मेरे भाई के सिराहदीं
चुपके से रख जाना

कितना अलहदा था

मरते दम तक
भाई के जन्मदिन पर
तुझे सूरज कहूं या चंदा
गाना गाना और रोना

कितना अलहदा था

बाजार के
सब फुर्ट ,थैलों में भर भर कर लाना
पहले हमें खिलाना
फिर खुद खाना
और
सालों बिमार होने पर

उसी भाई का
आपको
गोद में लिए फिरना
नहलाना धुलाना
सुलाना
जगाना ,मल ,मुत्र धोना
जेब में पैसे रखना
और आपको अपना बच्चा बनाना

कितना अलहदा था

और
दुनिया से जाने से पहले
ना बोल सकने
ना उठ सकने
लगभग कोमा के हालात मे
होते हुये
मेरे घर आने की जिद करना
मेरा आपका सर गोद में रख
सभी मंदिरों में घुमाना
आपको फुर्टी पिलाना
आपका मुझे 101रु देना
मेरा आंख भर आना
आपका भी रोना

और फिर उसी रात
आपका इस दुनिया से
शारिरिक रूप से चले जाना

कितना अलहदा था

मुझे अखबाऱों में छपते देखना चाहते थे ना आप
आज आपकी बेटी नहीं
आप लगभग हर अखबार में छप रहे हो
मेरी आने वाली हर किताब आपके नाम

आज मेरी डायरी के हर पन्ने का लफ्ज़ आपसे है
+ (खुशबू हो तुम फूल नहीं हो
जो मुरझाऔगे
जब जब मौसम लहरायेगे
तुम आ जाओगे )

सोनिया अक्स

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