एक प्रेम ऐसा भी…
“सात समुंदर पार से राजकुमार आएगा तुझे ब्याहने.. फिर, सफेद से घोड़े पर बैठा कर ले जाएगा मेरी प्यारी बिटिया को”– दादी यही कहकर बचपन में खाना खिलाया करती थी।
“दादी उस राजकुमार का क्या नाम होगा..?” बड़ी- बड़ी आँखें निकालकर हलक में भोजन का एक कौर निगलती हुई पूछा करती थी चार साल की नन्ही उमा।
“तुझे कौन सा नाम पसंद है?”– दादी कौर मुंह में डालती हुई पूछतीं।
“अ..अ..अ..मधु”– नन्हीं उमा चहकती हुई कहती।
“अरे,यह तो लड़की का नाम है..”दादी कहतीं।
“नहीं मधु मेला दोछ्त है दादी, मेले छाथ गेंद खेलता है..” आँखें नचाती हुई उमा कहती।
“हाँ, तो ठीक है..वही तुझे ब्याह ले जाएगा… चल, जल्दी से पहले खाना खत्म कर, मेरी पूजा बाकी है अभी.. छुट्टी कर मेरी..”
और उमा जल्दी-जल्दी खाना खत्म कर दौड़ पड़ती बाहर बच्चों में खेलने के लिए। अब मधु उसे एक खास दोस्त नजर आने लगा था।
नन्हीं उमा की माँ दो साल पहले ही गुजर चुकी थी। वह अपनी दादी को ही माँ समझती थी। पिता पहले तो दूसरे विवाह के लिए तैयार नहीं थे, परंतु, धीरे-धीरे परिवार और समाज के दबाव में आकर उन्होंने दूसरी शादी कर ली थी। नई मां यूं तो स्वभाव से अच्छी थी,लेकिन,उमा की देखरेख से ज्यादा उन्हें किट्टी और शॉपिंग भाती थी। उमा के खान-पान का ध्यान दादी को ही रखना पड़ता था। पिता भी अपनी नई पत्नी के साथ ज्यादा वक्त बिताया करते थे। लिहाजा, उमा अपनी सारी बातें दादी से ही किया करती थी।
समय बीता। उमा की दो और बहनें आयीं- खूब गोरी, खूब सुंदर।उमा ने ही नाम रखा-रिंकू और मिंकू।अपनी नयी गोरी बहनों के सामने उमा को अपना साँवला रंग बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। वह अक्सर दादी से पूछती-” दादी में रिंकू और मिंकू जैसी गोरी कब हो जाऊँगी..?”
“अरे, तू तो ऐसी ही इतनी सुंदर है, गोरी होकर क्या करेगी..?” दादी कहतीं।
“नहीं, मुझे भी गोरा होना है.. बना दो न”..उमा मचलती।
“दूध भात खाएगी तो एकदम गोरी हो जाएगी”- दादी कहती और उस दिन उमा दूध में चावल मिलाकर एक पूरा कटोरा खा जाती थी।
धीरे-धीरे समय गुजरा और उमा बाईस वर्ष की हो गई। बगल में रहने वाला और साथ खेलने वाला उमा से तीन वर्ष बड़ा दोस्त, मधु ग्रेजुएशन करके मल्टीनेशनल में नौकरी करने लगा था। मधु पढ़ाई में तो अच्छा था ही, रंग रूप और शरीर से भी खूबसूरत नौजवान दिखता था। बगल में रहता था तो अक्सर दादी के पास घूमते टहलते आ जाया करता था। बचपन की बातें उमा के मन में बरगद का पेड़ बन कर मन के पूरे आंगन पर छा गई थीं। वह बचपन से ही मन ही मन मधु को अपना जीवन-साथी मान चुकी थी। यौवन में कदम रखते ही आँखों में लज्जा और धड़कनों में शहनाई की गूंज बसने लगी थी। अब वह मधु से लड़कपन की तरह न तो झगड़ा कर पाती थी, न ही खुलकर बातें कर पाती थी। यौवन ने आते ही मन की बातें मन में छुपा कर रखने की कला सिखा दी थी। अब उमा का रूप भी खिल गया था और आँखें मधु के मधुर सपने देखने लगीं थीं। एक नजर में वह आकर्षक भी लगती थी, इसीलिए अक्सर वह आईने में अपना चेहरा देख कर साथ में मधु के खड़े होने की कल्पना किया करती थी। परंतु, अपने साँवले रंग का मलाल उसे अब भी था। अक्सर अपनी बहनों के सामने खुद को हीन जैसी समझने लगती थी।मधु आता तो सज सँवरकर उसके सामने जाया करती। मधु आता तो था उमा की दादी से मिलने के बहाने पर उसकी नजर को रिंकू भा गई थी। उसकी नजरें अक्सर उमा की छोटी बहन रिंकू को ढूंढा करती थीं। इससे पहले कि मधु के प्रेम में डूबी उमा मधु की नजरों की चोरी पकड़ पाती मधु ने उमा के सामने ही एक दिन रिंकू को प्रपोज कर डाला। रिंकू बड़ी मॉडर्न थी उसने सीधा हाँ कहा और शादी की बात करने हाथ पकड़कर माँ के पास ले गई। उमा की दादी को जब पता चला तो उन्होंने ऐतराज जताया कि उमा बड़ी बहन है,पहले उसकी शादी करेंगे फिर रिंकू की शादी होगी। लेकिन, उमा के पिता और माता नहीं माने।उन्होंने दादी को समझाया-“आजकल यह सब कहाँ देखा जाता है? घर बैठे इतना अच्छा लड़का मिल रहा है..खुद ही सामने से कह रहा है तो शादी टालना बेवकूफी होगी।उमा की जब शादी होगी, तब होगी… उसके लिए रिंकू की शादी क्यों टाली जाए..?”
उमा के सामने ही उसके बचपन से संजोया प्रेम-घरौंदा ताश के पत्तों की तरह भरभरा कर गिर पड़ा और वह कुछ नहीं कर पायी। सारी रात रोती रही परंतु किसी के पास उसके आँसू देखने की फुर्सत नहीं थी। सब शादी में मशगूल हो चुके थे।देखते ही देखते उसी के सामने मधु रिंकू को विदा करा कर ले गया। कुछ दिनों तक तो उमा खुद से नजरें चुराती रही। गुमसुम सी बैठी रहती.. आईना देखना बंद कर दिया.. सजने सँवरने का मन नहीं करता था.. गोरे होने की चाहत भी जाती रही। उमा ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह जीवन भर विवाह नहीं करेगी। अब जब उसकी शादी की बात चलती तो वह साफ मना कर देती थी। दादी की स्थिति भी धीरे-धीरे अब-तब की सी हो गई थी। शरीर किसी तरह आत्मा को ढो रहा था।
समय गुजरा और मिंकू भी ससुराल विदा हो गई। उमा ने किसी तरह खुद को सँभाला और दादी की देखरेख के बहाने स्वयं को व्यस्त रखने लगी।वह पढ़ाई में अच्छी रही थी, नेट भी कर चुकी थी.. लिहाजा, शहर के ही एक कॉलेज में प्राध्यापिका नियुक्त हो गई। पिता और माँ अक्सर उसे समझाते थे कि दोनों बहनों के बच्चे भी हो गए हैं, अब तो अपने विवाह की सोचो पर, उमा साफ मना कर देती थी।
पिता रिटायर हो गए थे और घर अब उमा की कमाई से ही चलने लगा था। पिता की पेंशन तो बीमार दादी के इलाज में ही चली जाती थी।बाकी घर के सारे खर्चे उमा ही करती थी। इसी बीच मधु के माता-पिता भी घर बेच कर अपने बेटे के साथ रहने दूसरे शहर चले गए थे। पहले जब मधु और रिंकू आते-जाते थे, तो उमा सबसे नजरें चुराकर मधु को एक नजर देख लिया करती थी और एक ठंडी आह भरकर खुद को समझा लिया करती थी। परंतु, जबसे मधु के माता-पिता घर बेचकर मधु के पास रहने चले गए, मधु का आना लगभग बंद ही हो गया। रिंकू भी अब अकेली ही कभी कभार आ जाया करती थी।”बच्चों की पढ़ाई, मां-पिताजी की देखभाल, मधु के टुअर्स.. कहाँ आने का समय मिलता है मम्मी..?” मां की शिकायत करने पर रिंकू कहती थी। रही-सही कसर मोबाइल की वीडियो कॉलिंग ने पूरी कर दी थी। माँ-बेटी की बातचीत वीडियो कॉल पर हो जाया करती थी तो फिर मधु को पत्नी को लेकर यहाँ आने की जरूरत ही क्या थी..? मधु याद आता तो उमा ठंडी आहें भर कर रह जाती थी। बचपन के दोस्त ने कभी भी उमा की सुध नहीं ली। उसे तो शायद पता भी नहीं था कि उमा उसे चाहती भी है। और एक उमा थी कि बस अभी भी उसी बचपन की दुनिया को सपने की तरह जी रही थी। मन ही मन मधु से लड़ती, उसे मनाती, उसके पसंदीदा रंग के कपड़े पहनती..। उसके जीवन में बस उसी मधु की एक मिठास रह गई थी।
उसकी हालत देखकर दादी बहुत परेशान होती थी। माँ-पिताजी ने तो अपनी तरफ से कुछ कहना ही छोड़ दिया था।कोई समझ नहीं पा रहा था कि उमा विवाह के लिए क्यों तैयार नहीं होती है। पिता कभी-कभी खुद को छोटी बहनों की शादी पहले कर देने के दोषी मानते लेकिन, उनके कुछ कहने पर उमा उन्हें समझाती-” आप खुद को दोषी क्यों समझ रहे हैं? विवाह न करने का फैसला मेरे स्वयं का है.. यदि इसके लिए कोई उत्तरदायी है तो स्वयं मैं हूँ.. और क्या जरूरी है विवाह करना..? मैं आप सब को छोड़कर कहीं नहीं जाने वाली..” उसकी इस बहस के आगे पिता खामोश हो जाते थे। लेकिन,दादी को समझाना मुश्किल था।वह दिन प्रतिदिन ज्यादा बीमार रहने लगी थीं।
एक दिन जब उमा कॉलेज से लौटकर दादी के पास बैठी तो दादी ने फिर विवाह की बात छेड़ दी-“बड़ी इच्छा है तेरा ब्याह देखकर आंखें मूँदूँ.. ..आखिर तू क्यों जिद कर बैठी है बेटा.. क्या बात है..?मुझसे कह ले… मैं तो किसी से नहीं कहूँगी.. अब तो मेरे जाने का समय है.. कम से कम चैन तो मिलेगा तेरी जिद के पीछे का कारण जानकर..।”
उमा ने समझ लिया कि अब न बताकर दादी को यूँ बेचैन रखना ठीक नहीं। उसने कहा-” दादी, आपको याद है, बचपन में आपने कहा था कि तुम्हें जो पसंद है उस नाम का राजकुमार मेरी जिंदगी में आएगा और मैंने मधु का नाम बताया था.. दादी,मैं मधु को उसी उम्र से प्यार करती रही हूँ और अब मैं उसकी जगह किसी भी अन्य को नहीं देख पाती हूँ। किसी अन्य से विवाह करके उसके साथ पति पत्नी के संबंध को मैं जस्टिस नहीं दे पाऊँगी.. मुझे पता है मधु अब मेरी छोटी बहन का पति है.. मैं अपनी बहन के पति से प्रेम नहीं करती लेकिन, अपने बचपन के साथी मधु से अपने आपको अलग नहीं करना चाहती.. प्रेम केवल पाने का ही नाम तो नहीं है न दादी, जिसे नहीं पा सकें, उससे भी तो प्रेम किया जा सकता है न.. जो राधा ने किया.. जो मीरा ने किया.. वह प्रेम ही तो है… क्या मैं आज के जमाने की राधा नहीं बन सकती? मेरे बचपन का साथी,मधु तो हमेशा मेरे साथ रहेगा.. आप यही चाहती हैं ना कि मैं सजकर रहूँ, सँवरकर रहूँ.. तो ठीक है, मैं आज से सब कुछ करूँगी,हर श्रृंगार करूँगी पर मेरी कल्पना के मधु के लिए…प्लीज दादी मुझे समझने की कोशिश कीजिये, मैं किसी और से विवाह नहीं करूँगी..अब आगे से मुझसे विवाह की बात न कहिएगा..” उमा आज सब कुछ कह देना चाह रही थी दादी से और निश्चल,निष्प्राण दादी पथराई आँखों से बस उसी को एकटक देखे जा रही थीं। उनकी दुलारी उमा अब राधा और मीरा का स्वरूप बन चुकी थी।
अर्चना अनुप्रिया
दिल्ली, भारत