उम्मीदें अभी बाकी हैं
जितनी तेजी से मानव सभ्यता का विकास हुआ है, उतनी ही तेजी से प्रकृति और प्रदत प्राकृतिक संसाधनों का दोहन। शोध और अध्ययन भी अनवरत जारी हैं और सामने आने वाले निष्कर्ष कई बार चिंता और डर से युक्त परिस्थिति पैदा कर रहे हैैं। वैश्विक तापमान में वृद्धि एक बड़ी समस्या बनकर सामने आई है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि वैश्विक तापमान पूर्व औद्योगिक स्तरों से करीब 4 डिग्री सेल्सियस अधिक पहुंच जाता है तो पृथ्वी पर इतना पानी बहने लगेगा, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। ऐसी स्थिति में अंटार्कटिक बर्फ के एक तिहाई से अधिक हिस्से के ढहने का खतरा पैदा होगा। इस अध्ययन की प्रमुख एला गिलबर्ट का कहना है कि बर्फ का खिसकना ऐसा होगा जैसे पानी से भरी किसी बोतल से ढक्कन का हटाना। इससे आने वाले दशकों में प्रायद्वीप अथवा बर्फ के समीप स्थित इलाके ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के तटीय क्षेत्रों के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। अध्ययन बताते हैं कि वैश्विक तापमान को 4 डिग्री सेल्सियस के बजाय 2 डिग्री सेल्सियस तक ही सीमित कर लिया जाए तो आधी से ज्यादा पैदा होने वाले खतरों में कमी आ जाएगी।
एक ओर पानी ही पानी तो दूसरी ओर भूजल, नदियों और झीलों के दूषित पानी से वैश्विक आबादी के 3 अरब लोगों पर बीमारियों का खतरा मंडरा रहा है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और उसके सहयोगियों की रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के 70 करोड़ से ज्यादा आबादी की स्थिति पानी को लेकर चिंताजनक है और 2030 तक जल स्रोतों को स्वच्छ करने के लिए दोगुनी गति से प्रयास करने होंगे, तभी हम दुनिया भर के लोगों को पीने योग्य जल उपलब्ध करा पाने में सक्षम हो सकेंगे। यूएनडीपी की कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन के अनुसार हमारी धरती तिहरे संकट से गुजर रही है- जलवायु परिवर्तन, बायोडायवर्सिटी का खत्म होना और बढ़ता प्रदूषण, जिसकी बड़ी कीमत समुद्र, नदियों और झीलों को चुकानी पड़ रही है।
अगर भारत की बात की जाए तो इसके भौगोलिक क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से के सूखाग्रस्त होने और 12% क्षेत्र में बाढ़ की आशंका बनी रहती है। प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय जर्नल ‘वाटर पॉलिसी’ में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक बांग्लादेश ,नेपाल, भारत और पाकिस्तान के हिमालयी क्षेत्र के आठ शहरों की जलापूर्ति में 20 से 70% की गिरावट आई है। विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि मौजूदा हिसाब से साल 2050 तक मांग और आपूर्ति का अंतर दोगुना हो सकता है। यह वही टाइमलाइन है जब तीव्र शहरीकरण के चलते माना जाता है कि आधे से ज्यादा भारतीय शहरों में रह रहे होंगे।
अपने देश में आबादी की बसावट के विस्तार ,ठोस कचरा फेंकने एवं अन्य कारणों से उत्तर प्रदेश , बिहार , उत्तराखंड, झारखंड एवं पश्चिम बंगाल इन पांच राज्यों के 578 जलाशयों में से 28 फीसदी सूख गए हैं। इन जलाशयों में तालाब, कुएं और बावड़ी आदि शामिल है। उम्मीद की किरण के रूप में सरकार ने ‘ राष्ट्रीय जल मिशन’ के तहत बारिश की बूंदों को सहेजने के लिए अप्रैल से जून 2021 के बीच “कैच द रेन….वेयर इट फॉल्स, वेन इट फॉल्स” (बारिश की बूंदों को सहेजें: जहां वे गिरे, जब वे गिरे) नामक देशव्यापी अभियान शुरू किया गया है। इस अभियान में सरकार के सात मंत्रालय हिस्सा लेंगे। इसमें आई आई टी ,आई आई एम सहित विभिन्न राज्य सरकारों के विभाग ,रेलवे ,सशस्त्र सेना ,केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल ,विश्वविद्यालय सहित शिक्षण संस्थान आदि सहयोग करेंगे। इस अभियान के तहत प्रारंभिक कदम के रूप में नेहरू युवा केंद्र संगठन के सहयोग से तीन महीने का जागरूकता कार्यक्रम देश के 623 जिलों के 31150 गांवों में चलाया जाएगा। जिला मुख्यालयों में वर्षा केंद्र स्थापित करने ,जल संचयन प्रणाली की स्थापना करने ,जल निकायों से गाद की सफाई ,भूजल संचयन, कृषि, उद्योग एवं पेयजल में पानी को बचाने के तरीकों के रूप में ज्ञान केंद्रों की स्थापना आदि पर विशिष्ट बल दिया गया है।
डरावनी स्थिति यह है कि दुनिया के करीब 120 ऐसे देश है, जहां पानी के लिए हाय -तौबा मचने वाली है ।अपने देश में भी करीब 21 शहरों को पानी का ज्यादा संकट झेलना पड़ेगा। वर्ल्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार साल 2050 तक दुनिया में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता कम हो जाएगी। ऐसे में अगर आज पानी को बचाना है तो रुख घर ,गांव और वनरहित धरती की तरफ ही करना होगा। यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि धरती और वर्षा ही पानी का प्रबंधन करती है। लिहाजा अगर कुछ संभव है तो यही कि हम शीघ्रता और प्रतिबद्धता के साथ पानी की उपलब्धता को नैतिकता के साथ जोड़ें, जैसा कि हमारे गांव में होता है ,जहां पानी मात्र पनपता नहीं, बल्कि पूजा भी जाता है और उसे प्रकृति के प्रसाद के रूप में देखा जाता है। हम जब तक पानी को नए सिरे से नहीं पूजेंगे, तब तक हम पानी के महत्व को समझ नहीं पाएंगे। वन रहित क्षेत्रों को जल संग्रहण क्षेत्रों में बदलना होगा जैसा कि 2010 में आसन गंगा की वापसी के लिए जन भागीदारी के आधार पर किया गया था और जम्मू कश्मीर की 145 ग्राम सभाओं के सरपंचों ने मनरेगा के माध्यम से चिनाब नदी की सहायक धाराओं को पानी तो दिया ही, अपने गांव के जल संकट को भी दूर कर दिया। बिहार में जल संसाधन के बेहतर उपयोग के उद्देश्य से उच्च कोटि के फिजिकल मॉडलिंग सेंटर की स्थापना की गई है जिसमें नदियों के जल संचयन और प्रवाह का अध्ययन किया जाएगा। नदियों के हाइड्रोलिक गुणों के अध्ययन के लिए यह पुणे के बाद भारत का दूसरा उत्कृष्ट संस्थान होगा जिससे राज्य सरकार के कोसी नदी से संबंधित मॉडलिंग स्टडी में पुणे को जाने वाला करोड़ों रुपया तो बचेगा ही, बल्कि बाढ़ प्रबंधन और सिंचाई की योजनाओं के लिए जरूरी अध्ययन को कम समय में पूरा करवाया जा सकेगा।
पर्यावरणीय चिंता के विषयों में एक ओर झारखंड के दलमा पहाड़ियों में लगने वाली आग और उत्तराखंड के जंगलों में दहकी आग ने दहकते जंगलों की व्यथा गाथा को सुनने के लिए मजबूर कर दिया है, क्योंकि इन जंगलों के तबाह होने का सबसे बड़ा कारण दावानल है। दुनिया के अन्य हिस्सों के जंगलों में भी लगने वाले आग कई दिनों तक समाचारों की सुर्खियां बने थे। ये दावानल वन संपदा और वनप्राणियों की हजारों प्रजातियों को नष्ट कर देते हैं ,उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड से पहाड़ों को तपा देते हैं , ग्लेशियर को पिघलने के लिए वातावरण प्रदान करते हैं,प्रदूषण बढ़ाकर पारिस्थितिकी तंत्र को गड़बड़ा देते हैं।अध्ययन कहता है कि दुनिया में यदि जंगलों के खत्म होने की यही रफ्तार रही तो 2100 तक समूची दुनिया से जंगलों का पूरी तरह से सफाया हो जाएगा। एक तो वनरक्षा के दायित्व का निर्वाह सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए तो दूसरी ओर हमारी वन नीति बाधक ना हो उस रिश्ते में जो गांववासी, वनवासियों को वनों से सीधे रूप से जोड़े हुए था।
वन भूमि के संरक्षण की दिशा में नेपाल की नंदा देवी कुंवर एक प्रतिमान स्थापित करती हैं। गरीबी के कारण नंदा के पति के भारत आकर चौकीदारी का काम करने के कारण नंदा ‘मधुमालती सामुदायिक वन’ (कैलाली)के करीब एक झोपड़ी में परिवार के साथ रहने लगती हैं। धीरे-धीरे वह सामुदायिक वन प्रबंधन समिति की सक्रिय सदस्य बन जाती हैं। वास्तव में वन नंदा देवी जैसे लोगों की जिंदगी में हमेशा उम्मीद बनाए रखते हैं। वनाश्रित परिवार न सिर्फ इन जंगलों से मवेशियों के लिए चारा और जरूरत की लकड़ियां पाते हैं ,बल्कि इनसे हासिल मौसमी फल बेचकर घर परिवार पालते रहते हैं ।इसलिए वनों के साथ इनका रिश्ता काफी प्रगाढ़ होता है। नंदा देवी मधुमालती वन प्रबंधन समिति की अध्यक्ष बन जाती हैं और बड़े यत्न से वे कई बड़े कामों में लग जाती हैं। जैसे- उन्होंने खाली जगह पर खूब सारे पौधे लगाए, नई- नई प्रजाति के पक्षियों और जानवरों का बसेरा बनवाया, लोहे की बाड़ लगाकर वन क्षेत्र को संरक्षित करने का फैसला किया। दूसरी ओर अतिक्रमणकारियों और लकड़ी तस्करों की नजर भी इस सामुदायिक वन क्षेत्र पर थी और एक सुबह जब कुछ लोग जंगल की जमीन अपने खेत में मिलाने की कोशिश कर रहे थे, नंदा ने उनका साहस पूर्ण विरोध किया।
अतिक्रमणकारियों ने धारदार हथियारों से उन पर हमला बोल दिया और परिणाम हुआ कि नंदा के दोनों हाथों में एक हाथ को डॉक्टर ऑपरेशन के बावजूद बचा न सके। वन के प्रति नंदा की यह निष्ठा और उनके साथ हुए हादसे की खबर नेपाल भर में फैल गई। सरकार ही उनके साथ नहीं खड़ी हुई बल्कि ऑर्किड की एक दुर्लभ किस्म की खोज करने वाले वनस्पति वैज्ञानिकों की सिफारिश पर इसका नाम ‘ओंडोचिलस नंदेई ‘ रखा गया और उस वन क्षेत्र का नाम भी ‘मधुमालती नंदा देवी सामुदायिक वन’ कर दिया गया ।कई सम्मानों से पुरस्कृत नंदा के योगदान को विश्व बैंक ने भी सराहा।
जरूरत है वनउत्पादों से एवं वनों से ऐसे ही ग्रामीणांचलों को जोड़ देने की ताकि वे इसे अपनी व्यक्तिगत संपत्ति की तरह रक्षित करें ,संरक्षित रखें। इस दिशा में झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों की महिला किसानों को लाह एवं लाह की खेती के जरिए बेहतर आजीविका की ओर अग्रसर कर इसी तरह की सकारात्मक बदलाव को लाने की कोशिश की जा रही है। इस पहल से राज्य के 73 हजार से ज्यादा ग्रामीण परिवारों को लाह की वैज्ञानिक खेती से जोड़ा गया है जिनमें अधिकतर अति गरीब एवं सुदूरवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले ग्रामीण परिवार हैं। वर्ष 2020 में करीब दो हजार मैट्रिक टन लाह का उत्पादन ग्रामीण महिलाओं के द्वारा किया गया। वनोपज उद्यमी बनाकर इन महिलाओं को जहां पारंपरिक पेशे से जोड़ा जा रहा है, वहीं दूसरी ओर स्थानीय वनों के प्रति संवेदनशील भी बनाया जा रहा है। इसी तरह ग्रामीण विकास विभाग के तहत झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी अंतर्गत महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना ग्रामीण महिलाओं के लिए इमली संग्रहण एवं प्रसंस्करण का कार्य कर अच्छी आमदनी उपलब्ध कराने में सहायक बन रहा है। राज्य के वनक्षेत्रों में इमली के पेड़ों की अधिकता के कारण खूंटी के शिलदा गांव की सुशीला पिछले वर्ष एक टन इमली के संग्रहण से ₹40000 की आमदनी प्राप्त कर प्रसन्नता पूर्वक कहती हैं कि जंगलों में मुफ्त में उपलब्ध इमली से इतनी कमाई हो सकती है, ऐसा कभी सोचा भी न था। अब जहां वनोपज जीवन निर्वाह से इस तरह जुड़ेंगे तो भला कैसे न भावनात्मक लगाव होगा ग्रामीण अंचल को इनसे।
एक ओर जापानी और अमेरिकी शोधकर्ताओं का अध्ययन यह चेतावनी देता है कि आने वाले वक्त में रहने के लिए किसी और ग्रह की खोज करने का संकट होगा क्योंकि ऑक्सीजन के स्तर में जिस तरह गिरावट हो रही है ,एक अरब साल बाद पृथ्वी पर जीवन का सफाया हो जाएगा। दूसरी ओर अनेक ऐसे संस्थागत और व्यक्तिगत कार्य पर्यावरण प्रेम के दास्तान के नए- नए अध्याय से हमारा परिचय कराते हैं। झारखंड के रामगढ़ के उपेंद्र पांडे और उनकी पत्नी सोना की कहानी अनेक लोगों को प्रेरणा दे सकती है। 2013 में उपेंद्र पांडे और उनकी पत्नी किसी कार्यवश दिल्ली गए और वहां के प्रदूषण और दमघोंटू माहौल से खासे परेशान हुए ।वापस रामगढ़ लौटकर उन्होंने यह विचार किया कि क्यों ना पर्यावरण को बचाने के लिए कुछ किया जाए ताकि उनका शहर प्रदूषण मुक्त रह सके । इसी सोच ने उन्हें कुछ अलग करने के लिए प्रेरित किया। इनके पास अपना एक उद्यान था जिसमें उन्होंने हजारों किस्म के पौधे लगा रखे हैं ।उन्होंने अपने आसपास के लोगों से कहा कि वे उन्हें घर का प्लास्टिक और पॉलिथीन आदि लाकर दे तो बदले में वे उन्हें अपने गार्डन में उगाए गए पौधे उपहार में देंगे। घरेलू सहायिका से शुरू हुए इस अभियान ने बहुत जल्दी बहुत लोगों को जोड़ दिया । अपने 10000 स्क्वायर फुट की जगह वाले उद्यान में वह सुबह- शाम माली या स्वयं या कोचिंग के छात्रों (उपेंद्र कोचिंग इंस्टिट्यूट चलाते हैं और आजीविका के लिए खेती-बाड़ी और अन्य रोजगारों पर भी निर्भर हैं) के श्रमदान से एक खूबसूरत गार्डन तैयार कर लोगों को पेड़ पौधों के प्रति जागरूक भी कर रहे हैं और प्लास्टिक या पॉलिथीन लेकर वे उसे रीसाइक्लिंग करने वाले या प्लास्टिक खरीदने वाले को देकर शहर को पॉलीथिन मुक्त भी कर रहे हैं। इतना ही नहीं मजबूत पॉलिथीन की थैलियों में भी वे पौधे लगा देते हैं। उपेंद्र रामगढ़ के एक सरकारी हाई स्कूल ‘गांधी मेमोरियल स्कूल’ में भी पेड़ -पौधे लगाने का काम कर रहे हैं। कई अन्य स्कूलों के प्रधानाचार्य ने भी उनसे संपर्क किया है कि वे उनके विद्यालय में भी पौधे लगाए। फेसबुक पर वह अपना एक पेज ‘पॉलिथीन डोनेट मिशन’ भी चला रहे हैं ताकि लोग इस बारे में ज्यादा से ज्यादा जागरूक हो सकें।
संस्थागत सराहनीय कार्यों में एक नजर बीसीसीएल के धनबाद, झारखंड के सिजुआ क्षेत्र में पथरीले पहाड़ को सीडबॉल की मदद से हरा-भरा बना देने की पहल पर भी डाली जानी चाहिए, जिसकी कोल इंडिया ने भी सराहना की है और अपने ट्विटर हैंडल पर तस्वीर भी जारी की है। 10 हेक्टेयर में फैले ओबी डंप को अर्थात् पत्थरों के पहाड़ को हरे भरे क्षेत्र के रूप में बदल देना प्रदूषण के खिलाफ बहुत बड़ी लड़ाई साबित हुई है। कोयला कंपनियों के लिए नजीर बने इस क्षेत्र में पहले घास उगाए गए, फिर पौधारोपण किया गया। ऐसे परिवर्तन आसानी से नहीं होते, इसके पीछे संस्था की दृढ़ इच्छाशक्ति और दशकों की मेहनत है।
राजकीय स्तर पर विभिन्न झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा वृक्षारोपण कार्यक्रम का आयोजन करना भी पर्यावरण संरक्षण की ओर एक जागरूक एवं प्रशंसनीय कदम है। आवश्यकता इस बात की है कि लगाए गए वृक्ष की देखरेख भी सही ढंग से हो, वे पौध से वृक्ष तक का सफर सफलतापूर्वक कर सके।
हरियाली को बचाने की कवायद में जुटे दिल्ली के ‘पीपल बाबा’ भी एक मिसाल बन चुके हैं। वास्तविक नाम स्वामी प्रेम परिवर्तन, पिता फौज में डॉक्टर।प्रकृति से प्रेम प्रकृति प्रेमी नानी की देन , जो 5 साल की उम्र से ही बालक में हरियाली का संस्कार बो रही थीं, उन्हें खेती- किसानी से जुड़ी ढेरों कहानियां सुनाया करती थीं। जीवन में हरियाली के प्रति रुझान पैदा करने में शिक्षिका मिसेज विलियम्स जो कि श्रीलंकाई महिला थी और जिनकी पैदाइश ही जंगलों में हुई थी, का गहरा प्रभाव पड़ा। वे हमेशा कहा करती कि डॉक्टर -इंजीनियर तो बहुत बन जाएंगे ,लेकिन प्रकृति के बारे में कौन सोचेगा। इन दो महिलाओं का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वृक्षारोपण ही जीवन का उद्देश्य बन गया। इन्होंने सबसे ज्यादा पीपल और नीम के पेड़ लगाए हैं ।कोरोनाकाल में भी उनका यह काम रुका नहीं, बल्कि लगभग 8000 नए पेड़ उन्होंने लगाए ।दिल्ली ,एनसीआर, उत्तर प्रदेश ,उत्तराखंड, पंजाब, राजस्थान आदि कई जगहों पर उन्होंने पीपल, नीम, जामुन, शीशम, कचनार, बबूल ,दून, बेर ,अर्जुन, अनार जैसे पेड़ -पौधे लगाए हैं। मैगसेसे विजेता माइक पांडे ने इनसे मिलकर इनकी कामों की सराहना की, तो 2010 में इन्हें ‘अनसंग हीरोज ‘नाम से एक अवार्ड समारोह में पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। इन्होंने “गिव मी ट्रीज” नाम से ट्रस्ट भी बनाया है ,जहां यह किसी से पैसा नहीं लेते,लेकिन कृषि के सामान लेते हैं। साथ में यह प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चला रहे हैं। इनके कार्य में स्कूल ,यूनिवर्सिटी, कॉलेज के अलावा सेना, बीएसएफ ,सीआरपीएफ ने भी बहुत मदद की है। पीपल बाबा कहते हैं-” मैं इस मिशन में ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ना चाहता हूं। हर व्यक्ति बाहर जाकर पेड़ नहीं लगा सकता, लेकिन अपने घर में ही हरियाली उगाए। मैं बीज, खाद मुफ्त दूंगा।”
एक और अद्भुत व्यक्तित्व-पद्म भूषण से सम्मानित सालूमरदा थिमक्का ,जिन्हें:“वृक्षमाता” की उपाधि प्राप्त है।कन्नड़ भाषा में सालूमरादा का अर्थ होता है “वृक्षों की पंक्ति”।प्रकृति और पेड़ों के प्रति अत्यधिक लगाव रखने वाली ,बरगद के 385 पेड़ों सहित 8000 से ज्यादा पेड़ों को लगाने वाली कर्नाटक की प्रसिद्द पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता 107 वर्षीय “सालूमरदा थिमक्का ” के नाम पर लॉस एंजिल्स और ओकलैंड, कैलिफोर्निया में स्थित एक अमेरिकी पर्यावरण संगठन ने अपना नाम Thimmakka’s Resources for Environmental Education (थिम्मक्का रिसोर्सेज फॉर एनवायर्नमेंटल एजुकेशन) रखा है। विवाहोपरांत संतान की प्राप्ति न होने पर इन्होंने बच्चों के बदले कर्नाटक में हल्दीलाल और कुदुर के बीच 4 किलोमीटर राजमार्ग के किनारे लगभग 385 बरगद के वृक्ष लगाए। अनेक पुरस्कारों से सम्मानित थिमक्का को भारत में कई वनीकरण कार्यक्रमों के लिए आमंत्रित किया जाता है। वह अपने गांव में आयोजित होने वाले वार्षिक मेले के लिए बारिश के पानी को संग्रहित करने के लिए एक टैंक का निर्माण करने जैसी अन्य सामाजिक गतिविधियों में भी शामिल रही हैं। उसे अपने पति की याद में अपने गांव में एक अस्पताल बनाने का भी सपना है और इस उद्देश्य के लिए एक ट्रस्ट की स्थापना की गई है। 2016 में, साल्लुमरदा थिमक्का को ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन(BBC) द्वारा दुनिया की सबसे प्रभावशाली और प्रेरणादायक महिलाओं में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया गया था।
पर्यावरण संरक्षण का भगीरथ प्रयास करने वालों में एक विशिष्ट नाम और हैं- तेलंगाना के बुजुर्ग दरिपल्ली रमैया, जिन्हें लोग ‘ट्री मैन’ कहते हैं। उन्होंने अपना जीवन पूरी तरह वृक्षों के लिए समर्पित कर दिया है। एक करोड़ से अधिक पौधे रोपकर वह अपनी इस वृक्ष-साधना के लिए केंद्र सरकार से पद्मश्री का सम्मान भी पा चुके हैं। कभी लोग उन्हें सनकी-पागल कहते थे, आज उनके सामने श्रद्धा से झुक जाते हैं। उन्होंने अपनी जिम्मेदारी सिर्फ वृक्ष लगाने तक ही सीमित नहीं रखी हैं, बल्कि वे स्वयं पेड़-पौधों की देख-रेख भी करते हैं। वह पेड़ों को बच्चे की तरह पालते है।दरिपल्ली रमैया पेड़-पौधे लगाने वाले एक जुनूनी व्यक्ति भर नहीं हैं,बल्कि वे वृक्षों का चलता-फिरता विश्वकोष हैं। वे पौधों के विभिन्न प्रजातियों, उनके उपयोग और लाभ आदि के विषय में विस्तृत जानकारी रखते हैं। गाँव के बाहर स्थित पुरानी पुस्तकों की दुकानों में पेड़-पौधों से संबंधित कोई भी किताब आती है, तो रमैया उसको जरूर पढ़ते हैं। उनके पास राज्य में पाये जाने वाले 600 से ज्यादा वृक्षों के बीजों का अनूठा संग्रह भी हैं।’मेरे लिए प्रकृति ही भगवान है’कहने वाले रमैया गर्दन के चारों ओर एक बोर्ड पहने रहते हैं जिस पर लिखा रहता है- ‘पेड़ों की बचत’।टीन की टोपी पहने रमैया लोगो को हरियाली और वृक्षारोपण के प्रति जागरुक करते रहते हैं। रमैया ने अपनी तीन एकड़ जमीन इसलिए बेच दी थी जिससे वे उन पैसों से बीज और पौधे खरीद सकें।
अपनी धरती पर पेड़ पौधों के लिए जुनूनी लोगों की कहानियां लिखनी अगर शुरू की जाए तो एक लंबी फेहरिस्त तैयार हो जाएगी। उत्तराखंड के विशेश्वर डी सकलानी , जो 9 जनवरी ,2019 को पंचतत्व में विलीन हो गए, ने भी अपने निजी प्रयास से 50 लाख से अधिक पौधों को रोपा ।उन्हें 1986 ईस्वी का इंदिरा प्रियदर्शनी अवार्ड दिया गया था। इसी तरह राजस्थान के टोंक जिले के लांबा गांव के विष्णु लांबा और उनकी संस्था कल्पतरू पृथ्वी की सेवा में दिन रात लगे हुए हैं। विष्णु लांबा ने 22 राज्यों का भ्रमण कर लगभग 56 से अधिक क्रांतिकारियों के परिवारों को खोजा और उनका राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के द्वारा सम्मान करवाया। इतना ही नहीं उन्होंने उनकी जन्मस्थली और शहीद स्थल पर वृक्षारोपण किया बीहड़ों की कुख्यात दस्युओं को पर्यावरण संरक्षण से जोड़ा। अब तक लगभग 8.5 लाख पौधे यह लगा चुके हैं और दस लाखसे अधिक पौधे बांट चुके हैं।
वर्तमान समय में कोरोना महामारी जैसे वैश्विक संकट ने प्रकृति द्वारा निशुल्क प्रदत ऑक्सीजन सेवा के महत्व को बखूबी समझाया है। जरूरत है पृथ्वी और पर्यावरण को बचाने की और पृथ्वी को बचाने की ये संभावनाएं तब तक बची रहेंगी जब तक पृथ्वी के प्रति प्रेम जुनून बनकर प्रकृति प्रेमियों में मौजूद रहेगा। यह वर्तमान का दायित्व है कि इस जुनून को भविष्य के हाथों में सफलतापूर्वक हस्तांतरित किया जाए। न केवल वर्तमान पीढ़ी अपनी जीवनशैली और दिनचर्या में सुधार करें, पर्यावरण के प्रति अपना रवैया संवेदनशील बनाए अपितु छोटे-छोटे बच्चों में भी हम प्रकृतिजीविता के संस्कारों का रोपण करें। जब तक हम अन्न की बर्बादी पर बेचैन होते रहेंगे, बिजली पानी के दुरुपयोग को रोकने के लिए प्रयासरत रहेंगे, जब तक वृक्षों-पशुओं या अन्य सजीवो में ब्रह्म की उपस्थिति को समझते रहेंगे, जब तक प्रकृति प्रदत्त जीवन उपयोगी तत्वों को ईश्वरीय तत्व का प्रतिरूप समझ उनका संरक्षण और पूजन करते रहेंगे, तब तक इस पृथ्वी को बचाने की संभावनाएं जीती रहेंगी। इन संभावनाओं की दुनिया में भारत की एक विशिष्ट भूमिका है क्योंकि पर्यावरण हमारे त्यौहर, रीति-रिवाज से जुड़कर धर्म और संस्कृति को बांधता हुआ प्रतिदिन के जीवन से जुड़ा हुआ है। हमारे सामाजिक- धार्मिक-सांस्कृतिक जीवन का आधार है पर्यावरण और संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन के क्षेत्र में भारत की विशेष भूमिका की महत्ता को स्वीकार किया है।
रीता रानी
जमशेदपुर ,झारखंड