बिन पानी सब सून
(जल संचय: एक परिचर्चा)
“रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून’- पानी रोमांस भी है, रोमांच भी है। पानी के बिना जीवन की कोई कहानी संभव नही है। मंगल ग्रह पर जीवन ढूँढ़ने निकले
वैज्ञानिक भी पानी की ही तलाश कर रहे हैं। पानी यानि जीवन की अमूल्य धरोहर और जीवन का जादू। पानी प्रेरणा का स्त्रोत है। पानी जितना समझौते वाला कोई नहीं – जहाँ रखो उसी आकार में ढल जाता है। एक बूँद पानी न जाने कितने इतिहास लिख सकती है। इसी जल के संचय और संरक्षण में क्या शामिल है? आइए नीतियों से शुरुआत करते हैं।
क्या है भारत की जलनीति?
भारत की पहली जलनीति बनी 1987 में। फिर 2002 में उसमें संशोधन किया गया। जल के महत्वपूर्ण योगदान – सिंचाई, बढ़ती आबादी के कारण पानी की ज्यादा खपत के कारण पानी की उपयोगिता के लिए राज्य और केन्द्र सरकार पानी की खपत कम करना और पानी को बचाना ऐसे विषयों को नीति में शामिल किया गया। पीने के पानी को प्राथमिकता दी गई और उसके बाद पानी सिंचाई, तफरीह, पानी से बिजली निकालने पर जोर दिया गया। तभी पानी को संरक्षित करने के लिए छोटे बाँध बनाने पर जोर दिया गया। भूजल को भी संरक्षित करने पर जोर दिया गया। इस नीति में पानी को बचाने और उसकी उपयोगिता को समझने में लोगों की भागीदारी पर भी जोर दिया गया। बाद में 2012 में इसे और परिष्कृत किया गया। और अभी तो मान्य प्रधानमंत्री ने आह्वान किया है ‘जल संचय-कैच द रेन’। ऐसे, तीन नीतियाँ भी शायद लोगों की मानसिकता ना बदल सकी। बहते नल, फटे पाइप, बर्बाद होता पानी एक अलग ही कहानी कहती है। वर्ष 2030 तक तो शायद पानी की और किल्लत बढ़ जाएगी। अगर यही हाल रहा तो, “चुल्लू भर पानी में डूब मरो-ऐसे मुहावरे भी बंद हो जाएंगे। आवश्यकता है कि हम नीतियों के अनुसार चलें। पानी बचाने की मुहिम को एक आंदोलन बनाएँ।
कहाँ हुई चूक?
हमने नहीं पहचाना कि संकट हमारे सामने खड़ा है। चुनौतियाँ बहुत हैं जैसे कि सिंचाई में अधिक पानी की खपत, नदियों का सूख जाना, पानी की गुणवता में कमी। अगर हम पुरानी सभ्यता को देंखें तो सभी शहर-गाँव नदियों के किनारे ही बसे हैं। धरती से ज्यादा अन्न उगाने के चक्कर में हमने ऐसी फसलें लगा दीं, जो उस क्षेत्र के लिए थीं ही नहीं। जैसे पंजाब में धान और महाराष्ट्र में गन्ना। अनुपयुक्त फसलों के लिए धरती से पानी निकाला और पानी और गहराई में उतरता गया। बहुत शहरों और गाँवों में छह सौ फीट से लेकर एक हजार फीट तक पानी मिलना आज आम बात है। देश में 80% से अधिक फसलें भूजल पर आश्रित हैं। और हमने तालाबों को भी अपनी अंधी दौड़ में लील लिया। वर्ष 2017 के सर्वेक्षण के अनुसार तीन वर्षों के अंतराल में छोटे तालाबों की संख्या 6 लाख से घटकर 5 लाख हो गई है। ये दिल दहलाने वाले आँकड़े बस यही बताते हैं कि पानी को संरक्षित करने वाले साधन जैसे तालाब, तलैया, कुएँ कम हो गए। पानी ना हरा रहा, ना नीला, सब गायब ही हो गया। चूक ये हुई कि हमने पानी को खत्म होने वाला संसाधन समझा ही नहीं। सरकारों के नियम भी कागजों पर ही रहे।
अब आगे क्या करें?
जून महीने में टी.वी. पर अक्सर पानी की किल्लत और परेशानियों की मार झेलती जनता दिखाई पड़ती है। जब समय है, हम पानी का संचय नहीं करते। वर्षा के जल को छतों के माध्यम से जमा करना, हर खेत में छोटा तालाब बनाना, नदियों की मिट्टी को हटाकर उन्हें जल संचय के उपयुक्त बनाना-ये सारे उपाय कारगर तो हैं लेकिन लोग परवाह नहीं करते| सबको पानी चाहिए-क्या पेड़ पौधे, क्या पशु और क्या मनुष्य। पानी बचाना हमारी जिम्मेदारी है। हमारी छोटी समझदारी भी हमारी रक्षा कर सकती है। जहाँ संभव हो, पानी बचाना हमारा नया धर्म हो सकता है। प्रचार प्रसार से निकलकर काम करना होगा।
जल संचय के उपाय
पानी के दुरुपयोग को रोकना ही होगा। तालाब बनें, छतों पर जल वर्षा का भण्डार बने, गंदे पानी को साफ कर उसे फिर से उपयोग किया जाए। जल जीवन का आधार है। और सबसे ज्यादा जरूरी है एक नई जागृति का। हर गली, मोहल्ले, कारखाने, स्कूल, कॉलेज इस प्रयास का एक हिस्सा बनें। बारिश की हर दूँद को बचाना ही होगा। वर्षा जल संग्रहण, वर्षा के जल को एकत्र करने की विधि है। छोटे बाँध और जलाशय बनाए जाएँ। पता तो सबों को है लेकिन पानी की आवाज जैसे सब अनसुनी कर रहे हैं। पानी हम उगा नहीं सकते, उसे बचा ही सकते हैं। पानी बचाने के अहसास को जन जागृति और जन आंदोलन से जोड़ना हम सबका कर्त्तव्य है। पानी और मिट्टी से ही तो पर्यावरण बनता है। शीतल पानी का महत्व तो वही जानता है जो रेगिस्तान की तपिश झेल चुका है। कुदरत के इस वरदान को संरक्षित रखना अगली पीढ़ी के लिए हमारी जिम्मेदारी है।
डॉ. अमिता प्रसाद
दिल्ली