मुहिम
रेस्तराँ की चौड़ी खिड़कियों से भूरी पहाड़ी दिख रही थी। पेड़ों से विहीन ये पहाड़ियाँ मनुष्य के लालच को आईना दिखा रही थी। जंगल कटने से अल्मोड़ा जैसी जगह में भी पानी की किल्लत हो गई थी। बाथरूम में “पर्यावरण की रक्षा करें” का कार्ड था-कम पानी इस्तेमाल करें। ये आने वाली भयावहता को चेताने के लिए काफी था।
रेस्तराँ अभी खाली था। दूर कोने में बढ़ी हुई दाढ़ी और बिखरे बालों वाला वह आदमी लैपटॉप पर लगा हुआ था-आसपास की गतिविधियों से बिल्कुल अनजान। कॉफी की चुस्की लेते हुए देवलीना उसे देख रही थी। शायद उसे अहसास हुआ होगा। किसी की चुभती निगाहों का। उसने ऊपर देखा। देवलीना ने आँखें हटा लीं। एक कौतुहल से भर गई थी देवलीना। अब उसके टेबल पर भीड़ बढ़ गई थी। कुछ इधर-उधर से टुकड़ों में बातें छनकर कानों में आ रही थीं। ‘मेरी फोटो देखना।’ ‘फ्रेम में नहीं है।’ ‘डेफ्थ होना चाहिए था।’ ‘फोटो में लाइट कहाँ है?
इशारों में वेटर को बुलाया। ओह तो ये है अभिजीत पांडा-नामी गिरामी पर्यावरण फोटोग्राफर अल्मोड़ा की पहाड़ियों में अपना घर बना लिया है। फोटोग्राफी के माध्यम से युवाओं को पहाड़ों, नदियों के बारे में जागरूक करते हैं। देवलीना बात करना चाहती थी। लेकिन यूँ टपकना अच्छा नहीं लगा उसे। लोग बुरा मान जाते हैं। ऐसे फेस बुक पर अपनी जिंदगी खोलना आज की पीढ़ी को खूब आता है।
पिछली शाम की तरह ही वह घिरा था लोगों से। सब उसके कमेंट का इंतजार कर रहे थे। आपको देख रहा हूँ इसी कोने में। वह उसके पास कूर्सी खिसका कर बैठ गया है। अपने हनीमून पर यहाँ आया था। तब शायद पेड़ ज्यादा थे, पहाड़ी हवा ठंडी थी, ज्यादातर घरों में पंखे नहीं थे। प्रिया को यहाँ आना अच्छा लगता था। उसे फोटोग्राफी का शौक था-ऐसे ही हल्का फुल्का। तब मुझे दुनियाँ में पैसे के सिवा कुछ भी नहीं दिखता था-बैंकर था न। वह काफी दुःखी हो जाती थी पेड़ों के कटने से। दूर जंगलों में चली जाती थी-गाँव की औरतों की ढेर सारी फोटो लेकर आती थी। सिर पर जंगल की घास, लकड़ियों के गठठर ले जाती औरतें, लड़कियाँ । पानी की बाल्टी उठाती लड़कियाँ गाँवों की पंगडंडियाँ जो उनका बोझ उठाती थी। उसकी बातें एक कान से सुनकर दूसरे कान से मैं निकाल देता था। अपनी समसस््याएँ क्या कम थी? रोज का स्टॉक एक्सचेंज पूरी चुनौतियों के साथ आता था। उसमें ये जंगल-झाड़ कहाँ से घुसते भला?
देवलीना अब उसकी कहानी में मशगूल हो चुकी थी। फिर क्या हुआ होगा? “प्रिया को ब्लड कैंसर हो गया। यहाँ आने की जिद करने लगी। यहीं वह एक ही महीने में छोड़कर चली गई अपने कैमरे और ढेर सारी फोटो के साथ। उसके जाने के बाद मैं वापस शहर नहीं गया। उसके पेड़ों, जंगलों, नदियों, झरनों को बचाने के लिए मैंने फोटोग्राफी को ही अपना लिया।एक नेशनल कम्पीटिशन में कुछ ब्लैक और व्हाइट फोटो भेज दिए। हर फोटो कुछ कहता है–और शायद मेरी कहानी लोगों को पसंद आ गई। पिछले चार-पाँच सालों में ये फोटोग्राफी का ग्रुप बनाया है। पहाड़ों की रूमानियत से लोग खींचे चले आते हैं। आँखों से नही तो कम से कम लेंस से ही देखें कि हमने कितनी नदियाँ, झरने, पेड खो दिए हैं। आपको बता दूँ कि लेंस ने बड़े वारियर बना दिए हैं। वो धीमें से मुस्कुराया।
अनायास ही देवलीना ने पूछा — क्या इस मुहिम में मैं आपके साथ हो सकती हूँ?
डॉ. अमिता प्रसाद
दिल्ली