अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला देते हुए केंद्र सरकार को तीन महीने के भीतर मंदिर निर्माण के लिये एक ट्रस्ट स्थापित करने, मंदिर निर्माण की योजना बनाने तथा संपत्ति का प्रबंधन करने का आदेश दिया।

अयोध्या विवाद एक प्रमुख राजनीतिक, ऐतिहासिक और सामाजिक-धार्मिक मुद्दा था। यह विवाद उत्तर प्रदेश के शहर अयोध्या के एक भूखंड पर केंद्रित था।यह विवाद पारंपरिक रूप से हिंदू देवता राम की जन्मभूमि और इसी स्थल पर बाबरी मस्जिद की अवस्थिति से संबंधित था। हिंदू वर्ग का मानना था कि मस्जिद निर्माण से पहले एक हिंदू मंदिर को ध्वस्त किया गया था।

6 दिसंबर, 1992 को एक राजनीतिक रैली के दौरान इस भूखंड पर स्थित बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया और इस घटना ने सांप्रदायिक दंगों को जन्म दिया।अयोध्या में धार्मिक हिंसा की पहली घटना 1850 के दशक में दर्ज की गई जो हनुमान गढ़ी के निकट घटित हुई थी। इस दौरान बाबरी मस्जिद पर हमला किया गया था।
इसके बाद से ही स्थानीय समूहों द्वारा यह मांग की जाने लगी कि इस स्थल पर उन्हें कब्ज़ा दिया जाने चाहिये और साथ ही इस स्थल पर एक मंदिर बनाने की अनुमति दी जानी चाहिये, इस मांग को सभी औपनिवेशिक सरकारों द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था।

मंदिर के स्थान पर मस्ज़िद का निर्माण

बाबर भारत का पहला मुगल सम्राट और मुगल साम्राज्य का संस्थापक था। ऐसा माना जाता है कि बाबर के एक सेनापति मीर बाक़ी ने सम्राट के आदेश पर वर्ष 1528 में बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया था।
इस विश्वास को वर्ष 1813-14 के बाद तब लोकप्रियता हासिल हुई, जब ईस्ट इंडिया कंपनी के सर्वेक्षक फ्रांसिस बुकानन ने बताया कि उसे मस्जिद की दीवार पर एक शिलालेख मिला है जो बाबरी मस्जिद के निर्माण से जुड़ा है।उसने स्थानीय पारंपरिक कथा का भी उल्लेख किया, जिसके अनुसार औरंगजेब (1658-1707) ने राम को समर्पित एक मंदिर को ध्वस्त करने के बाद मस्जिद का निर्माण कराया था।

खुदाई में मिले साक्ष्य

अपने निर्णय में, सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (ASI) की रिपोर्ट का हवाला दिया। इस रिपोर्ट के अनुसार, बाबरी मस्जिद खाली ज़मीन पर नहीं बनाई गई थी और मस्जिद के निर्माण से पहले वहाँ पर मंदिर जैसी संरचना होने के प्रमाण भी मिले हैं।भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट को वैध मानते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि खुदाई में जो ढाँचा पाया गया वह “एक इस्लामिक ढाँचा नहीं था”।

न्यायपालिका का हस्तक्षेप वर्ष 2011 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय:

सुन्नी वक्फ बोर्ड द्वारा विवादित स्थल पर कब्ज़े के लिये एक मुकदमा दायर किया गया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पीठ ने वर्ष 2002 में मामले की सुनवाई शुरू की, जो वर्ष 2010 में पूरी हुई।30 सितंबर, 2010 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय के फैसले को टालने की याचिका खारिज किये जाने के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने विवादित भूमि को तीन भागों में विभाजित करने का निर्णय दिया।2:1 के बहुमत के साथ दिये गए इस निर्णय के अनुसार, विवादित 2.77 एकड़ भूमि को तीन हिस्सों में विभाजित किया जाना था, इसमें से एक-तिहाई सुन्नी वक्फ बोर्ड को, एक-तिहाई निर्मोही अखाड़े को और शेष एक तिहाई हिस्सा राम लला के मंदिर निर्माण हेतु दिया जाना था जिसका प्रतिनिधित्त्व हिंदू महासभा द्वारा किया गया था।

अंतिम निर्णय
समग्र विवादित भूमि (2.77 एकड़) हिंदुओं को मिलेगी।
विवादित 2.77 एकड़ भूमि का कब्ज़ा केंद्र सरकार के रिसीवर (मुकद्दमे के अधीन संपत्ति का सरकारी प्रबंधकर्त्ता) के पास रहेगा।

मुस्लिमों को वैकल्पिक रूप से विवादित ढाँचे के आसपास केंद्र सरकार द्वारा अधिगृहित 67 एकड़ भूमि या किसी अन्य प्रमुख स्थान पर पाँच एकड़ जमीन दी जाएगी।
“उल्लेखनीय है कि केंद्र ने वर्ष 1993 में विवादित रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद परिसर की 2.77 एकड़ भूमि सहित समग्र 67.73 एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर लिया था।”

मंदिर निर्माण के लिये 3 महीने के अंदर एक ट्रस्ट बनाया जाएगा। न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि निर्मोही अखाड़ा भगवान राम का शेबैती या उपासक नहीं है लेकिन वह ट्रस्ट का सदस्य बन सकता है।उपासना स्थल अधिनियम के दायरे से बाहर था यह मामला उक्त विवाद की पृष्ठभूमि में पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार ने सितंबर 1991 में उपासना स्थलों की उस स्थिति को बनाए रखने के लिये एक विशेष कानून ‘उपासना स्थल अधिनियम 1991’ अधिनियमित किया जो स्थिति 15 अगस्त, 1947 को थी।कानून ने अयोध्या के विवादित ढाँचे को इसके दायरे से बाहर रखा, क्योंकि यह लंबे समय से विवाद का विषय बना था।इसका उद्देश्य दोनों पक्षों के बीच संभावित समझौता वार्ता का अवसर प्रदान करना भी था।उपासना स्थल अधिनियम,1994,यह अधिनियम बाबरी मस्ज़िद (वर्ष 1992) के विध्वंस से एक वर्ष पहले सितंबर 1991 में पारित किया गया था।
इस अधिनियम की धारा 3 के तहत किसी पूजा स्थल या उसके एक खंड को अलग धार्मिक संप्रदाय के पूजा स्थल में बदलने पर प्रतिबंध लगाया गया है।यह अधिनियम राज्य को एक सकारात्मक दायित्व भी प्रदान करता है कि वह स्वतंत्रता के समय मौजूद प्रत्येक पूजा स्थल की धार्मिक विशेषता को बनाए रखे।
इस अधिनियम के प्रावधान उन प्राचीन एवं ऐतिहासिक स्मारकों तथा पुरातात्त्विक स्थलों और अवशेषों पर लागू नहीं होंगे जिन्हें प्राचीन स्मारक तथा पुरातात्त्विक स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 द्वारा संरक्षित किया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अधिनियम की प्रशंसा अपने निर्णय में कहा कि धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक मूल्य को संरक्षित करने के लिये पूजा स्थल की स्थिति को बदलने की अनुमति नहीं दी गई थी।राज्य ने कानून बनाकर संवैधानिक प्रतिबद्धता को लागू किया है और सभी धर्मों एवं धर्मनिरपेक्षता की समानता को बनाए रखने के लिये अपने संवैधानिक दायित्वों का संचालन किया है, जो संविधान की मूल विशेषताओं का एक हिस्सा है।न्यायालय के अनुसार, उपासना स्थल अधिनियम धर्मनिरपेक्षता के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को लागू करने के लिये एक प्रतिष्ठाजनक कार्य है।सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 142 का प्रयोग सर्वोच्च न्यायालय ने निर्मोही अखाड़े को मंदिर निर्माण हेतु बनने वाले ट्रस्ट में शामिल करने तथा मुस्लिम वर्ग को वैकल्पिक 5 एकड़ भूमि देने के लिये इस अनुच्छेद के तहत प्राप्त शक्तियों का प्रयोग किया।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 142 (1) के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय अपनी अधिकारिता का प्रयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकता है या ऐसा आदेश कर सकता है जो उसके समक्ष लंबित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिये आवश्यक हो।
यह पहली बार था जब न्यायालय ने एक अचल संपत्ति को लेकर नागरिक विवाद (जिसमें निजी पक्षकार भी शामिल थे) के मामले में इस शक्ति का प्रयोग किया किया।

निर्णय का महत्त्व

सांप्रदायिक राजनीति का अंत:

अयोध्या सांप्रदायिक राजनीति और चुनाव से पहले ध्रुवीकरण का केंद्र रहा है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने निश्चित रूप से एक सांप्रदायिक राजनीति को समाप्त कर दिया है।

द्वेष पर सद्भाव की जीत:

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को सभी पक्षों द्वारा स्वीकार किया जाना, निर्णय के बाद शांति और सामंजस्य को बनाए रखना आदि द्वेष पर सद्भाव की जीत को दर्शाता है।

राजनीतिक विचारों, धर्म और मान्यताओं से ऊपर है कानून:

निर्णय में यह भी कहा गया कि 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद का विध्वंस किया जाना “कानून के शासन का उल्लंघन” और “सार्वजनिक पूजा के स्थल को छतिग्रस्त करने का कार्य सुनियोजित” था।
हिंदुओं को विवादित भूमि देने और अयोध्या में मस्जिद के निर्माण के लिये अलग से पाँच एकड़ ज़मीन देने के निर्णय के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने काशी और मथुरा में उन स्थलों की यथास्थिति को बदलने के लिये नए सिरे से मुकदमे दायर करने का मार्ग बंद कर दिया, जहाँ पूजा स्थल को लेकर कलह की स्थिति देखी गई। न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णय में 11 जुलाई, 1991 को लागू उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम के अधिदेशों को लागू करने पर ज़ोर दिया गया।
“संविधान विभिन्न धर्मों की आस्था और विश्वास के बीच अंतर नहीं करता है। उसके समक्ष सभी प्रकार के विश्वास, पूजा और प्रार्थनाएँ समान हैं।”आने वाले समय में भारत की जनसांख्यिकीय और सांस्कृतिक जटिलता को देखते हुए, यह निर्णय एक अमूल्य कानूनी आलेख सिद्ध हो सकता है जो “न्यायता” (Justness) को बरकरार रखता है और एक विवादस्पद तथा भावनात्मक मामले में निष्पक्ष समाधान प्रदान करता है।

निष्कर्ष

स्वभावतः यह विवाद धार्मिक दृष्टिकोण का था और भविष्य में इस तरह के विवाद उत्पन्न न हों इसके लिये संप्रदायिकता की समस्या का हल ढूँढने की आवश्यकता है।यह फैसला विवादित ढाँचे पर अधिकार से संबंधित कई वर्षों से चली आ रही एक कानूनी लड़ाई को समाप्त करने का प्रयास करता है।
यह कानूनी जीत वास्तव में धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों और बहुलवादी लोकाचार पर आधारित है। इसे धर्मनिरपेक्षता की जीत के रूप में भी देखा जा सकता है।

डॉ0 मुकेश कुमार मालवीय
प्रोफेसर
विधि संकाय, काशी हिंदू विश्वविद्यालय
वाराणसी, भारत

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Price Goldner
9 months ago

Your insights on this topic are spot on. Couldn’t agree more.