रोशनी : इधर-उधर से

रोशनी : इधर-उधर से

हमारे देश भारत में इतनी विविधताएँ हैं कि सबको शब्दों में समेटना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। अब देश के ही कितने नाम हैं – जम्बूद्वीप, भारतवर्ष, इंडिया, हिन्दुस्तान, हिंद और सबके साथ ही कितनी कहानियाँ जुड़ी हैं। दरअसल भारत आस्था का देश है और किवदंतियों का भी। जितने पर्व – त्यौहार, उतनी ही कहानियाँ। प्रकाश पर्व दीवाली कहीं नए साल की शुरुआत है, कहीं लक्ष्मी की पूजा है, कहीं अच्छे स्वास्थ्य की कामना है, कहीं उत्साह है, कहीं अंतर्मन की जगमगाहट है। दीवाली पूरी तरह से तिन खोजा, उन पाइयाँ है।

दीवाली मेरा बहुत पसंदीदा त्यौहार है। बिहार में दीवाली पाँच दिनों तक मनायी जाती है। धनतेरस से लेकर भाई दूज तक । बचपन में दीवाली का बहुत इंतजार होता था। एक तो पुराने कपड़े निकाले जाते। घर की सफाई होती। नए परदे, नए सोफे कवर लगाए जाते। अलमारियों से, बिस्तरों के नीचे से कूडा-कचरा, जाले निकाले जाते और कमरों में रंग रोगन भी होता। तब बाल्टी में सफेद चूना लेकर आता था रंगवाला और उसी रंग में पीला, नीला, गुलाबी अलग-अलग रंगों को मिलाकर अलग–अलग कमरो का रंग – रोगन हो जाता था। नए रंगों में नहाए कमरे में अपनी शान में बैठे हुए हम किसी बादशाह से कम नहीं लगते थे।

और साथ में बनता था घरौंदा। ये मिट्टी का घरौंदा शायद केवल बिहार में ही बनाया जाता है। आसपास के सभी घरों में एक अनकही स्पर्धा रहती थी। घरौंदे की सजावट, उसका रंग — रोगन हम बडी तनन्‍्मयता से करते थे। और इन सबमें हमारी माँ बहुत साथ देती थी। एक बार दीवाली के दो दिन पहले भारी बरसात हो गई और हमारा मिट्टी का घरौंदा उस बरसात की भेंट चढ़ गया। माँ ने रातों-रात एक गत्ते के कार्टन को काटकर खिड़कियाँ और झरोखों वाला घरौंदा बना दिया। सुबह छोटी बहन का घरौंदे का चक्कर लगाते हुए नाचना पचास वर्ष के बाद भी अच्छी तरह याद है। उस बार पूरे मुहल्ले में कागज वाला घरौंदा खूब चर्चा का विषय रहा।

धनतेरस में नए बर्त्तन आते, चाँदी के सिक्के खरीदे जाते और फिर रात में दीया निकाला जाता था। गोबर का दीया घर के गेट के बाहर चावल अक्षत के ऊपर रखा जाता था। हम दीवाली को हमेशा धन या लक्ष्मी, गणेशपूजन का त्यौहार समझते रहे थे। तो लगता था कि यह दीया कुबेर को घर का रास्ता दिखाने के लिए है। यह बहुत बाद में पता चला कि धनतेरस में वैद्य धन्वन्तरि की पूजा होती है। नरक चर्तुदशी को महाकाली की पूजा होती है। घर के चारों दिशाओं में दीए को घुमाकर घर के बाहर रखा जाता है। मान्यता है कि यह यमराज की प्रसन्नता के लिए है ताकि वो परविर को आर्शीवाद दें और घर के अंदर ना आएँ। हिन्दू धर्म ने खूब परम्पराएँ बना रखी हैं और उनको कहानियों से जोड़ रखा है। घर की गृहणी से लेकर विद्वान तक इनकी मीमांसा करते हैं और नए अर्थ निकालते हैं। ये धन्वान्तरि आरोग्य के रक्षक हैं और इस पूजा से घर में आरोग्य बना रहता है। “नमो भगवते धन्वन्तरे सर्वरोग निवारणय श्री औषध चक्र नारायण स्वाहा” इस मंत्र के साथ धनतेरस में आरोग्य वृद्धि के लिए पूजा होती है। धनतेरस में नए बर्त्तन, सोने — चाँदी के जेवर और सिक्‍के खरीदने की भी परम्परा है। चमचमाते बर्त्तन, दीवाली में उपयोग के लिए दीए, पटाखे, दीवाली की मिठाइयाँ, मठरी, नमकीन, निमकी, शक्कर पारा और तरह – तरह के लड्डू | बिहार में एक और छोटा सा और भी विधान है – मिट्टी के बने छोटे बर्तनों कुलिया, चुकिया धान के लावा और चीनी की मिठाई से भरना। चीनी की मिठाई में से बने तरह-तरह के जानवर खरीद कर लाते थे हम। बिल्ली, बंदर, शेर और मोर। लड्डू लावा और चीनी की मिठाई पूजा के बाद बाँटे जाते थे। दिए, रंगोली और रंग – बिरंगे पटाखों से सजी दीवाली का सालभर इंतजार रहता थ। सुंदर और जगमगाती कपड़ों में सजे धजे हम भी दीयों से कम नहीं जगमगाते थे। तब विज्ञापन नहीं थे लेकिन प्रेम और उत्साह में कोई कमी नहीं होती थी।

इतने वर्षों में कभी — कभी भारत से बाहर भी दीवाली मनाई है। एक दीए से भी अपने घर का और मन का अंधेरा दूर किया है। एक बार वो इकलौते दीए की दीवाली मैंने जापान के टोकियो शहर के एक होटल के कमरे में मनाया था। वो दीया मैं घर से लेकर गई थी। तब व्हाट्सएप्प और विडियो का जमाना नहीं था! तो एक छोटे टेबल पर टिमटिमाते दीए ने मुझे अपने घर पहुँचा दिया था। उस छोटे दीए के प्रकाश ने मेरे अंर्तमन को पूरी तरह से प्रकाशित कर दिया था। उस छोटे दीए की लौ ने मुझे अमिट सीख दी कि खुशियाँ मन से होती है, किसी बनावट से नहीं । रंगीन बलवों की झालर मन के अंधेरे को दूर नहीं कर सकती। अगर बाहर अंधकार हो तो बाहर से ही रोशनी लानी पड़ती है।

नौकरी के कारण बिहार से मैं पहुँच गई कर्नाटक। अब उत्तर और दक्षिण भारत के रीति-रिवाजों में बहुत फर्क है। दक्षिण भारत में दीवाली जानी जाती है दीपावली के नाम से। ना धनतेरस की गहमागहमी, ना दीवाली की भागदौड़ वाली खरीदारी। हॉ, घरों की सफाई और रंग रोगन वहाँ भी होती है। दीपावली के पहले नरक चतुदर्शी मनाई जाती है। दीपावली के रात इक्का-दुक्का दिया जल जाता है।

मेरी पहली दीवाली थी आज से तैतीस साल पहले मैसूर के पास एक छोटे शहर हुन्सूर में। बिहार की परम्परा के अनुसार आठ ईंटे जोड़कर एक मिट्टी का घरौंदा बनाया। मेरी इस कलाकारी को हमारे घर का रसोईया बड़े ही विस्मय से देख रहा था। उसने शायद इतना लिलिपुटियन घर नहीं देखा था। उस घरौंदे को रंगकर उसके सामने फूलों की रंगोली बनाई। दक्षिण भारत में विविध प्रकार की रंगोली बनाई जाती है। उस रसोइए की पत्नी ने मेरे उत्साह के रंग में रंगकर दक्षिण भारतीय प्रकार की रंगोली बना दी। उसके रंगोली को देखकर मुझे अपनी कलाकारी पर शंका हो गई। रात को मुंडेरों पर, छत पर, सामने मैंने दीए जलाए। धर के बाहर एक छोटी भीड़ जमा हो गई थी — उस जगमग दृश्य को देखने के लिए। तब सोशल मीडिया नहीं था – नहीं तो मैं सोशल मीडिया क्वीन बन ही जाती।

कर्नाटक में अब बहुत बदलाव दिखने लगे हैं। लोग दिन की जगह रात को पटाखे चलाने लगे हैं। दीए भी जलाने लगे हैं। उत्तर और दक्षिण भारत के बीच की दूरियाँ कम होने लगी हैं। भला दीवाली के उत्साह से कोई कैसे अछूता रह सकता है?

कर्नाटक में नरक चतुदर्शी जो कि हमारे यहाँ छोटी दीवाली है, मनाई जाती है। लोग उस दिन मंदिर जाते हैं। कृष्ण के नरकासुर के संहार को मनाते हैं। दीवाली के अगले दिन कार्त्तिक महीने की शुरुआत है और इसे बादी प्रतिपदा या बाली पदयामी भी हः कहते हैं। यह नए वर्ष की शुरुआत भी है। गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक में हमारे यहाँ की तरह ही ‘शुभ’ ‘लाभ’ लिखकर पहले व्यापारी लाल रंग की किताबें लिखते थे। अब तो जी. एस. टी. के मारे हर तीन महीने पर नया हिसाब लिखना होता है। कहते हैं कि इस दिन महाराज बाली एक दिन के लिए अपनी प्रजा से मिलने आते हैं और उनके स्वागत में रंगोली, मिठाईयाँ, बंदनवार लगाए जाते हैं। जानवरों को भी खूब सजाया जाता है। पीले, लाल रंगों से उनके सींगो को सजाया जाता है। लोग ‘तेलस्नान’ से दिन की शुरुआत करते हैं। बाली महाराज और उनकी पत्नी की पूजा करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो झूमते रंगीन बैल, गाय बहुत ही सुंदर छटा प्रस्तुत करते हैं। उत्तरी भारत में गोवर्धन और अन्नकूट पूजा भी दीवाली के अगले दिन मनाई जाती है। कारण जो भी हो पूरा परिवेश ही एक मस्ती में झूमता नजर आता है। दीवाली पर्व है खरीदारी का, साज-सजावट का और जगमगाते दीयों का। काश हम मन के कोनों को भी शायद उतनी ही तत्परता से साफ कर पाते।

दीवाली हो या दीपावली हर वर्ष एक गौरवपूर्ण संदेश देता है — अपने आसपास के संकट और कलुषित विचारों की सफाई। बिहार और कर्नाटक में भले ही त्यौहार मनाने की विधियाँ अलग हो, उत्साह सब जगह एक है।

त्यौहारों की खूबी है कि वो एक प्राणदायी उत्साह देती हैं- मन को आगे जाने की प्रेरणा देती है। परिवारों को हम बाँधते हैं परम्परा के इसी डोर में। दीए की जगमगाहट मन – प्राण को एक नई आशा देती है। दीवाली / दीपावली व्यक्तिगत त्यौहार है। आप ये त्यौहार अकेले भी मना सकते हो। जबकि होली सामाजिक पर्व है — उसमें आपको लोगों की आवश्यकता है। दीवाली खुशियों का त्यौहार है — राम के विजय के बाद अयोध्या आगमन का। बाली के अपने प्रजा को देखने का। “शुभम्‌ करोति कल्याणम्‌, आरोग्यम्‌ धन सम्पदा, शत्रु बुद्धि विनाशय, दीप ज्योति नमस्तुते” | घर – घर में ये प्रार्थना गूंजति है। लक्ष्मी से धन की, सुंदर सुखद वैभव की और गणेश से शुभ की कामना करते हैं। दीवाली साज सजावट और लेने देने का त्यौहार है। भले ही त्यौहारों में व्यावहरिकता आ गई हो, कोविड के कारण इस वर्ष थोड़ा दिल मायूस है लेकिन दिल के कोने में प्रकाश का दीया टिमटिमा रहा है। अंधकार पर प्रकाश की जय – सारी कहानियाँ, सारे रीति – रिवाज, सारे रस्म, परम्पराएँ यही कहती है। हे प्रभू, हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो – प्रकाश ज्ञान का, प्रकाश प्रेम का, प्रकाश भाईचारे का।

डॉ. अमिता प्रसाद
कर्नाटक

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