झूठ झूठ और झूठ-झूठ के माध्यम से सच की तलाश
ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है कि कोई कवि या कवयित्री एक ही विषय को लेकर एक पूरा संग्रह ही रच डाले। दिव्या माथुर इस माने में एक अपवाद मानी जा सकती हैं, जिन्होंने ‘ख़याल तेरा’, ‘रेत का लिखा’, ‘11 सितम्बर – सपनों की राख तले’ जैसे एक ही विषय पर आधारित संग्रहों के बाद एक नया संग्रह प्रकाशित किया है, ‘झूठ, झूठ और झूठ’।
कविता की वक्रता को बरक़रार रखते हुए वे सरल शब्दों में अपनी बात अपने पाठक तक पहुँचा देती हैं। दिव्या थिसॉरस लेकर झूठ के भिन्न-भिन्न अर्थ बताने का काम नहीं करती हैं बल्कि झूठ के वजूद को ख़ुद महसूस करती हैं और अपने पाठकों के साथ बाँटती हैं । झूठ केवल एक भाव मात्र नहीं है; दिव्या कविताओं में झूठ एक हाड़-मांस के ठोस चरित्र के रूप में उभर कर आता है जिसे न केवल महसूस किया जा सकता है, बल्कि साक्षात देखा जा सकता है: “कौओं की/काँव काँव के बीच/मैना का/एक सुरीला स्वर यूँ उगा/जैसे कीचड़ में खिला कमल/जैसे झूठ के ग़र्त में सच की ज्योति / या सीप से निकला मोती!”
दिव्या जीवन के हर पहलू, हर क्षेत्र में झूठ को देखती हैं, पहचानती हैं और अपने पाठक के साथ बाँटती हैं। वह जानती हैं कि सबसे कठिन है पहला झूठ बोलना। एक बार झूठ बोल दिया तो फिर कहीं कोई झिझक बाक़ी नहीं रह जाती: “जली हुई रुई की बत्ती/बड़ी आसानी से जल जाती है/नई बत्ती जलने में बड़ी देर लगाती है। आसान हो जाता है रफ़्ता रफ़्ता/है बस पहला झूठ ही मुश्किल से निकलता।” दिव्या इस सच से भी वाक़िफ़ हैं कि हम सब उस समय हमारे जीवन का सबसे बड़ा झूठ बोलते हैं जब हम कहते हैं कि हम झूठ नहीं बोलते: “अपने झूठ का ढिंढोरा/हम ख़ुद ही पीटते हैं / ये सोचकर कि हमसे सच्चा कोई नहीं/डंके की चोट पर झूठ बोलते हैं।” और झूठ का वर्चस्व: “शैतान का पिता है झूठ / लम्बा चौड़ा और मज़बूत / सच है गांधी जैसा कृश्काय / बदन पे धोती लटकाए।” और “झूठ है दामाद सा / जिसकी ख़्वाहिशें कभी पूरी नहीं होतीं।”
दिव्या के इस संग्रह की कविताएँ छोटी-छोटी कविताएँ हैं जो बड़ी बात कहती हैं। ये कुछ ख़्याल हैं झूठ के बारे में जिनके माध्यम से दिव्या हमें सच के दर्शन करवाती हैं। कहा जा सकता है कि यह कविता संग्रह झूठ, झूठ और झूठ के माध्यम से सच की तलाश यात्रा है, जिसमें दिव्या पूर्ण रूप से सफल हैं। हिन्दी कविता क्षेत्र में इस कविता संग्रह का खुले दिल से स्वागत है।
तेजेन्द्र शर्मा
लेखक, कथा-यूके के संस्थापक और पुरवाई के संपादक