प्रवासी महिला साहित्यकार और स्त्री चेतना
हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो मान्यता मिली है उसका एक मूल कारण है प्रवासी भारतीय लेखक, जो एक लम्बे समय से भारत की भाषा, कला और संस्कृति को विदेशों में फैलाने का महत्वपूर्ण प्रयास करते आ रहे हैं। समय तेज़ी से बदल रहा है, ज़ाहिर है कि हमारे साहित्य में भी यह बदलाव, व्याकुलता और बेचैनी छलक रही है जो हिन्दी साहित्य को अपनी मौलिकता से समृध्द कर रही है हालांकि यहाँ बहुत से विद्वान् आज भी यह मानते है कि प्रवासी साहित्य नौस्टेलजिया का ही साहित्य है जैसा कि एक बार स्वर्गीय राजेन्द्र यादव कह गए थे। बिना किसी अध्यनन मनन के, प्रवासी साहित्य को नौस्टेलजिया का साहित्य मान लेना उन्हें आसान लगता है। इसका मुख्य कारण यह भी हो सकता है कि प्रवास में पुरुष लेखकों से कहीं अधिक लेखिकाएं हैं, और महिलाओं की लियाक़त और उपलब्धियों को नज़रअंदाज़ करना बहुत से लेखकों और विद्वानों की प्रवृत्ति रही है।
मैं यह भी मानती हूँ कि बहुत से हिंदी विद्वानों और लेखकों ने प्रवासी साहित्य का गहन अध्ययन किया बल्कि उसे स्थापित करने, उसे उसके मुक़ाम तक पहुंचाने में कोई क़सर नहीं छोड़ी, जिनमें शामिल हैं आदरणीय कमल किशोर गोयनका जी, अनिल शर्मा जोशी जी, रेखा सेठी, इत्यादि, और बहुत सी संस्थाएं और कॉलेजों के हिंदी प्राध्यापक, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय प्रवासी समारोह आयोजित कर और बहुत से पत्र-पत्रिकाओं द्वारा प्रवासी विशेषांक प्रकाशित कर प्रवासी लेखन का प्रचार और प्रसार किया।
अपने को स्थापित करने में प्रवासी साहित्यकारों भी पीछे नहीं रहे, भारत से निकट सम्बन्ध बनाए रखना, अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और सालाना पुरस्कार समारोहों के आयोजन, अपनी पुस्तकों का अपने ख़र्चे पर प्रकाशन और लोकार्पण से लेकर सम्पादकों के नख़रे सहने आदि न जाने कितने अथक प्रयत्नों के बाद आज वे इस मुक़ाम पर पहुंचे हैं कि उन्हें कुछ मान्यता मिली है हालांकि बहुतों के लिए दिल्ली अभी भी दूर है किन्तु चेतना जब जगती है तो सब कुछ आसान होना शुरू हो जाता है।
इन्हीं प्रयासों के कारण प्रवासी साहित्य का रंग-रूप, उसकी चेतना और संवेदना भारत के हिन्दी पाठकों के लिये अब कोई एक नई वस्तु नहीं रही क्योंकि अब यह माना जाने लगा है कि यह एक नये भाव-बोध का साहित्य है, ऐसा साहित्य जो अपनी मौलिकता एवं नये साहित्य संसार से हिन्दी साहित्य को समृध्द करेगा।
प्रवासी साहित्य का रंग-रूप, उसकी चेतना और संवेदना भारत के हिन्दी पाठकों के लिये नई वस्तु है, यह एक नये भाव-बोध का साहित्य है, ऐसा साहित्य जो अपनी मौलिकता एवं नये साहित्य संसार से हिन्दी साहित्य को समृध्द करता है। प्रवासी साहित्य की बुनियाद भारत-प्रेम तथा स्वदेश-परदेश के द्वन्द पर टिकी है।
प्रवास की जद्दोजहद में जिन लेखिकाओं का लेखन छूट गया था, वे भी अब एक नए उत्साह के साथ लिखने/छपने लगीं किन्तु एक लम्बे अर्से तक प्रवासियों का साहित्य मूलतः भारतीय जीवन पर ही आधारित रहा क्योंकि विवाहोपरांत, विदेश में आकर वे अधिकतर ऐसे घैटोज़/बस्तियों में बसीं जहां पर विदेशी न के बराबर थे और संबंधों की व्यापकता के अभाव में उन्होंने वही लिखा जो वे भारत में भोग चुकी थीं या जो वे अपने आसपास देख रही थीं। सालों बाद, उनके लेखन में यदि कोई बदलाव आया भी तो ऐसा कि जैसे एक साथ दो नावों पर सवार होकर लिखना।
वर्तमान में जो लेखिकाएं अच्छा और लगातार लिख रही हैं, उनमें शामिल हैं ब्रिटेन से डॉ अचला शर्मा, शैल अग्रवाल, उषा राजे सक्सेना, नीना पॉल, तोषी अमृता, अरुण सब्बरवाल, कादम्बरी मेहरा, उषा वर्मा और ज़किया ज़ुबैरी और दिव्या माथुर; अमेरिका से डॉ उषा प्रियंवदा, डॉ सुषम बेदी, सुधा ओम ढींगरा, पुष्पा सक्सेना, इला प्रसाद, अंशु जौहरी, अनिलप्रभा कुमार, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, कैनेडा से डॉ स्नेह ठाकुर, डेनमार्क से अर्चना पैन्यूली; और संयुक्त अरब अमीरात से पूर्णिमा वर्मन।
प्रवासी साहित्य की बुनियाद बहुत सालों तक भारत-प्रेम तथा स्वदेश-परदेश के द्वन्द पर टिकी रही किन्तु कुछ सालों से देखने में आया है कि इन लेखिकाओं न केवल नई संवेदना, नया परिवेश, नयी जीवन दृष्टि तथा नये सरोकारों को दर्शाया बल्कि उनकी यह समावेशिता अब वृध्दि, समृध्दि और विश्वास का वातावरण पैदा कर चुकी है। मैं यह दावे के साथ इसलिए कह सकती हूं क्योंकि मैंने प्रवासी महिलाओं की कहानियों के अब तक चार कहानी संग्रह सम्पादित किए हैं: औडिस्सी, आशा, देसी गर्ल्स और इक सफ़र साथ साथ और इन संग्रहों की कहानियां।मेरे पिछले कहानी संग्रह, ‘इक सफ़र साथ साथ’ में ब्रिटेन, अमेरिका, कैनेडा, योरोप, स्कैंडिनेविया, चीन और अरब आदि देशों की 32 लेखिकाओं की कहानियाँ संकलित हैं, जो विभिन्न पृष्ठभूमियों से आती हैं, जिनके व्यवसाय अलग हैं किन्तु उन्होंने प्रवासी अनुभवों और चुनौतियों की एक वास्तविक टेपेस्ट्री पेश की है, विषयों का एक लंबा चौड़ा स्पेक्ट्रम है – आत्मपरीक्षण-विषयक से लेकर विश्लेषणात्मक अभिव्यक्ति तक, व्यंग्यात्मक, सूक्ष्म प्रहसन से लेकर निहायत ऊटपटांग, प्रतिवाद से आस्था तक एवं सहस्राब्दी के बदलते सामाजित ढाँचो तक, कुछ नहीं छूटा है। कहानियां व्यापक रूप से लेखिकाओं के संघर्ष को जोड़ती हैं।मुख्यधारा प्राधान्यता एवं आलोचनात्मक स्तुति के चलते, यह संग्रह साहित्यिक अथवा समाज शास्त्रियों के लिए दिलचस्प हो सकता है।
मेरे विचार में, अच्छे प्रवासी लेखकों को यदि मुख्यधारा में शामिल कर लिया जाए तो उनका साहित्य निश्चय ही हिन्दी में नई संवेदना, नया परिवेश, नयी जीवन दृष्टि तथा नये सरोकारों का न केवल द्वार खोलेगा। यह समावेशिता वृध्दि, समृध्दि और विश्वास का वातावरण पैदा करेगी।
प्रवासी लेखन में जहां तक चुनौतियों का सम्बन्ध है, उसमें सबसे प्रथम है – बिना परिवेश के साहित्यिक विकास करना। आजकल इंटरनेट से पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध हैं, फेसबुक के माध्यम से संपर्क सुलभ हैं किन्तु अपनी विशिष्टता बनाए रखना आवश्यक है। हमें अपने को पश्चिम का अंधानुकरण करने और भारत के साहित्यिक आंदोलनों का पिछलग्गू बनने से रोकना होगा। भारत में साहित्य में राजनीतिक प्रतिबद्धताएं बहुत हैं – लेफ्ट, राईट, जातिवादी सरोकार, गुटबाज़ी, प्रवासी साहित्य को इस साहित्यिक राजनीति से दूर रहना होगा।
दिव्या माथुर