ज़िंदगी के रहस्य समेटे है “तिलिस्म”
साहित्यकार की सफलता इस बात में होती है कि वह अपने प्लॉट का चयन कितने विवेकपूर्ण ढंग से करता है, अपने कथा परिवेश का कितना सजीव वर्णन करता है, अपने पात्रों को कितना जीवंत बनाता है, और अपने उद्देश्य को अभिव्यक्त करने में कितना प्रभावी होता है। अगर हम इन कसौटियों पर दिव्या माथुर के प्रकाशनाधीन उपन्यास “तिलिस्म” की बात करें, तो हमें ये सारे विशेषताएँ उसमें दिखाई देती हैं।
“तिलिस्म” का कथानक भारत की राजधानी दिल्ली के एक पिछड़े हुए इलाके, शाहदरा से प्रारंभ होता है, जिसमें एक दरिद्र परिवार का बच्चा अपने जीवन से संघर्ष करता हुआ संयोग से, धनी परिवार द्वारा गोद ले लिया जाता है, और फिर परिवार के एक परिचित उसे अपना दामाद बनाकर लंदन ले जाते हैं। इस तरह यह कई परिवेशों और देशों में फैली हुई कथा है।
दिव्या माथुर का यह उपन्यास मुख्य रूप से एक स्त्री के नज़र से पुरुषों के मनोविज्ञान को चित्रित करता है। अपनी इस यात्रा के दौरान नायक, उपेन्द्र कितनी तरह की समस्याओं से गुजरता है, कितनी तरह के अनुभव प्राप्त करता है, जीवन के उतार-चढ़ाव देखता है, कितनी तरह से सेक्स की दृष्टि से आकर्षित होता है, इसमें ठगा जाता है, और रिक्त रहता है। ये सब बातें इस उपन्यास में पुरुष की मनोविज्ञान को बहुत बारीकी से समझते हुए लेखिका ने प्रस्तुत किए हैं, और वे अपना अमिट प्रभाव छोड़ती है।
इस वृहद आकार के उपन्यास में उपेन्द्र एक ही जीवन में न जाने कितने है जीवन जी लेता है, और उसके माध्यम से जीवन के रहस्य खोलता चला जाता है। जिस तरह से लेखिका ने विभिन्न स्थितियों का वर्णन किया है, जिसमें शाहदरा की गंदी गलियाँ, गरीब परिवार का संघर्ष, पुरुष की शारीरिक भूख, इसके बाद समृद्ध परिवार कि विलासिता, विदेशों की चकाचौंध, अपने ही लोगों द्वारा किए जाने वाले षड्यंत्र और शोषण, घनिष्ठ संबंधों में अविश्वास, अज्ञात दिशा से आने वाले सहायता, इन सबका वर्णन उपन्यास में बहुत प्रामाणिकता और प्रभावात्मकता के साथ किया गया है।
लेखिका की भाषा बहुत समृद्ध और अभिव्यक्ति बहुत सशक्त है। लेखिका ने सायास उसी परिवेश की भाषा पात्रों के संवाद प्रस्तुत किए हैं, जिसमें वे रहते है। पिछड़े हुए इलाके की बोली, पंजाबी भाषा, समृद्ध लोगों की परिष्कृत भाषा, अंग्रेज़ी, उर्दू आदि के रूप इसमें दिखाई देते हैं, जो इस उपन्यास की विषयवस्तु और अर्थ को और अधिक विश्वसनीयता प्रदान करते हैं।
“तिलिस्म” महाकाव्य काव्यात्मक उपन्यास है, जिसमें एक पुरुष विभिन्न संबंधों, और विशेष रूप से विभिन्न स्त्री संबंधों के बीच से अपना जीवन बिताता है, और अंततः वह वापस अपने अम्मी के पास पहुँच जाता है, जो उसके जीवन का आधार बनी रहती है।
दिव्या जी ने उपन्यास के अध्यायों को शीर्षक देकर उन्हें कहानी जैसा रोचक बन दिया है, जो कथा के अर्थ को समझने में मदद भी करते हैं, जैसे – महापाप, ‘बचाओ, बचाओ’, जीवन का सबसे सुन्दर दिन, क्या कहूँ, किस से कहूँ?, मुहल्ले के सारे मुसल्ले हमारे रिश्तेदार, आदि।
दिव्या जी की रचना प्रक्रिया की विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि वे अपनी रचनाओं पर बहुत श्रम करती हैं, और उसके अनेक-अनेक संशोधन करती हैं, जब तक कि वे संतुष्ट नहीं हो जातीं, जो मुश्किल से ही होता है। वे अपने करीबी लोगों से अपनी रचनाओं पर चर्चा भी करती हैं, और उनके सुझावों पर विचार भी करती हैं। उदाहरण के लिए, मैंने देखा है कि उन्होंने “तिलिस्म” उपन्यास पर काम करते हुए, उसके अंत को इतना बदल दिया कि पूरे उपन्यास का अर्थ ही अलग हो गया। उपन्यास कला, भाषा और अभिव्यक्ति, पात्र और चरित्र चित्रण, देश काल वातावरण, और उद्देश्य आदि सभी के निष्कर्ष पर यह “तिलिस्म” सफल और पठनीय उपन्यास साबित होता है।
प्रो. राजेश कुमार,
सदस्य, केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल, शिक्षा विभाग, भारत सरकार,
लेखक, भाषाविद और संपादक।