दिव्या माथुर: मेमेन्तो मोरी
ब्रिटेन में रहने वाली प्रवासी भारतीय हिन्दी लेखक सुश्री दिव्या माथुर से हमारी पहली मुलाक़ात सितम्बर 1999 में हुई थी, जब मैं मास्को विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफ़ेसर बोरिस जाखारयिन के साथ छठे विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने के लिए लन्दन गई थी। दिव्या जी ने बड़ी हार्दिकता के साथ लन्दन में हमारा स्वागत किया था और बड़ी विनम्रता के साथ हमारे सामने यह प्रस्ताव रखा था कि हम लोग अगर चाहें तो अपने लन्दन प्रवास के दौरान उनके घर में रुक सकते हैं । तब हम क़रीब एक हफ़्ता लन्दन में रहे थे। इस एक हफ़्ते के अरसे में हम दिव्या जी के साथ पूरी तरह से घुल-मिल गए थे। उस एक हफ़्ते में हम उनकी मेहमाननवाज़ी और दोस्ताना अंदाज़ के क़ायल हो गए। पूरे सप्ताह उन्होंने हमें ज़रा भी तकलीफ़ नहीं होने दी। उस वर्ष लन्दन में हमें जिन दूसरे भारतीय लेखकों से मिलने का सौभाग्य मिला था, उनमें अचला शर्मा, उषा राजे सक्सेना, कीर्ति चौधरी, कैलाश बुधवार, डा. कृष्ण कुमार और डा. पद्मेश गुप्त के नाम उल्लेखनीय हैं।
लन्दन में रहकर हमने भारतीय आप्रवासी परिवारों के रहन-सहन का जायजा लिया। हमने देखा कि कैसे विदेश में रहने के बावजूद भारतीय लोगों ने अपनी भावी पीढ़ियों के लिए अपनी रीति-रिवाजों, अपनी परम्पराओं, अपने भारतीय इतिहास, भारत की संस्कृति और अपनी मूल भाषाओं या मातृभाषाओं को सुरक्षित रखा हुआ है और उन्हें आनेवाली पीढ़ियों को सौंपा जा रहा है। बच्चों को भारतीय संस्कारों में ही दीक्षित किया जा रहा है। अपनी मातृभूमि, अपने भारत से दूर रहने के बावजूद सभी भारतीय आप्रवासी भारत के साथ नाभिनालबद्ध हैं।
बाद में दिव्या जी की कहानियाँ पढ़कर हमें उन सामाजिक, पारिवारिक, मनोवैज्ञानिक समस्याओं के बारे में भी जानकारी मिली, जिनका सामना विदेश में यानी ब्रिटेन में रहते हुए इन आप्रवासी भारतीय परिवारों को लगातार करना पड़ता है। विदेश में रहकर भी भारतीय आप्रवासी अपनी भारतीय मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाते।
इसके क़रीब पाँच साल बाद जुलाई 2004 में हमने मास्को में भारतीय भाषाओं और संस्कृति का अध्ययन करने वाले अन्तरराष्ट्रीय संगठन इकोसाल की ओर से एक अन्तरराष्ट्रीय कांफ़्रेंस कराई थी। लन्दन से इस कांफ़्रेंस में भाग लेने के लिए बहुत सारे लोग आए थे। जय वर्मा अपने पति के साथ आई थीं। उषा राजे सक्सेना भी इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए मास्को आई थीं। इनके अलावा दिव्या माथुर अपने बेटे के साथ मास्को आई थीं। यह हमारी दूसरी मुलाक़ात थी। इस मुलाक़ात में हम एक-दूसरे के और क़रीब हो गए थे और एक-दूसरे को ज़्यादा गहराई से जानने लगे थे।
तब तक हमने उनकी कहानियाँ पढ़ ली थीं और उनकी कुछ कहानियों को मास्को विश्वविद्यालय के बीए हिन्दी के कोर्स में पढ़ाने भी लगे थे। उनकी एक कहानी है – अन्तिम तीन दिन। यह कहानी हिन्दी पढ़ने वाले हमारे रूसी छात्रों को बेहद पसन्द है। हर छात्र इस कहानी को अपने ढंग से समझता है। लातिनी में इस कहानी के मुख्य विषय को ‘मेमेन्तो मोरी’ कहा जाता है यानी अपनी मौत का दिन याद रखो। संक्षेप में बताएँ तो इस कहानी की नायिका को अचानक यह मालूम होता है कि उसके जीवन के, बस, तीन दिन और बाक़ी हैं। हर युग में विभिन्न उम्र के लोगों को विभिन्न स्थितियों से होकर गुज़रना पड़ता है, जिनमें से एक स्थिति ’मौत’ के दिन’ की भी होती है। और जब किसी को अचानक मौत सामने खड़ी दिखाई देने लगती है, तो तरह-तरह के ख़याल उसके मन में उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं, जैसे मेरी योजनाओं और परियोजनाओं का क्या होगा, मेरे पास जो सामान है, उसका क्या होगा, भविष्य में क्या लोग मुझे याद रखेंगे ? क्या मेरी मौत को भी लोग, ख़ासकर क़रीबी लोग एक सहज मृत्यु मानकर स्वीकार कर लेंगे। इसी तरह के सवाल ’अन्तिम तीन दिन’ कहानी की नायिका के मन में भी सिर उठाते हैं — क्या मैंने अपना जीवन ठीक ढंग से जीया है? कुछ ऐसे सवाल भी हैं, जो सम्भवतः सिर्फ़ औरतों के मन में ही उठते हैं, जैसे — जब मेरे नातेदार, मित्र-सम्बन्धी और क़रीबी लोग मुझे अन्तिम रूप से विदा देने के लिए आएँगे, तब मैं कैसी लगूँगी? कुछ ऐसे सवाल भी हैं, जो सिर्फ़ हिन्दुओं के मन में उठते हैं। हिन्दू पुराणों में कुल चौरासी लाख योनियाँ बताई गई हैं। अब मरने के बाद मेरा पुनर्जन्म किस योनि में होगा? कहानी का अन्त बड़ा मज़ेदार है: नायिका को पता लगता है कि भारत में किसी को उसकी मदद की ज़रूरत है और वह तुरन्त भारत जाने का फ़ैसला कर लेती है। कुल मिलाकर मौत का यह विचार नायिका के लिए एक दुःस्वप्न बन जाता है और वह जीवन का सच्चा और वास्तविक मूल्यांकन करने लगती है। फ़ारसी के कवि उमर ख़ैयाम के ये शब्द याद आते हैं — जो मरने वाला है, वो जानता है कि वो जीवित है।
यह कहानी पढ़ने के बाद हमारे रूसी छात्र दिव्या माथुर की दूसरी कहानियाँ भी पढ़ना चाहते हैं और उनका रूसी भाषा में अनुवाद करना चाहते हैं। दिव्या माथुर की कहानियों की भाषा बेहद सहज और सरल है। हमारे यहाँ अभी तक सिर्फ़ बीए के तीसरे वर्ष के छात्र ही दिव्या माथुर की कहानियाँ पढ़ते रहे हैं। अब हम बीए के दूसरे वर्ष के छात्रों को भी उनकी कहानियाँ पढ़ाना चाहते हैं। ये कहानियाँ भारत का अध्ययन करने वाले छात्रों के लिए विशेष महत्त्व रखती हैं क्योंकि इनमें न सिर्फ़ भारतीय आप्रवासियों के जीवन की उन समस्याओं को उठाया गया है, जिनसे उन्हें क़दम-क़दम पर जूझना पड़ता है, बल्कि इनमें वे समस्याएँ भी उभरकर सामने आती हैं, जिनका सामना हर मनुष्य को कहीं न कहीं करना पड़ता है, चाहे उसकी राष्ट्रीयता, जाति, रंग और भाषा कोई भी क्यों न हो। दिव्या माथुर की रचनाओं में जो मनोवैज्ञानिक संघर्ष उभरकर आता है, वही पाठक के लिए थाती बन जाता है और उसे हमेशा के लिए बाँध लेता है।
कमाल की बात है कि साहित्य रचने के अतिरिक्त दिव्या माथुर सामाजिक गतिविधियों के लिए भी समय निकाल लेती हैं। वे `वातायन’ संस्था की संस्थापक हैं; भारत और डायस्पोरा दोनों के लेखकों और की बेहतर समझ के लिए नियमित शनिवार की बैठकों का बहुत महत्व है।
अन्त में हम कहानीकार, कवि और रचनाकार के रूप में दिव्या माथुर के यशस्वी होने की कामना करते हैं और यह अभिलाषा व्यक्त करते हैं कि वे आनेवाले कई दशकों तक पाठकों की प्रिय रचनाकार बनी रहें और अपनी नई-नई रचनाएँ उन्हें उपहार में देती रहें।
ल्युदमीला खोख्लोवा
एसोसिएट प्रोफेसर,
भारतीय भाषाशास्त्र विभाग,
एशियाई और अफ्रीकी अध्ययन संस्थान,
मॉस्को स्टेट यूनिवर्सिटी
मॉस्को,रूस