पंगा: जीवन का व्यर्थता बोध
‘यह हीनता, अपर्याप्तता और असुरक्षा की भावनाएँ हैं जो व्यक्ति के अस्तित्व के लक्ष्य को निर्धारित करती हैं।’ – एल्फ़्रेड एडलर
‘नया ज्ञानोदय’ के जुलाई २००८ में प्रकाशित दिव्या माथुर की कहानी ‘पंगा’ पहले भी पढ़ी थी, अच्छी लगी थी। दोबारा पढ़ते हुए उसके कुछ अनछूए पहलुओं पर ध्यान गया। यह एक स्त्री की कहानी जो दिखाती है कि वह बहुत बिंदास, निडर और मस्तमौला स्त्री है मगर असल में वह एक तनावग्रस्त स्त्री है। पूरी कहानी में उसका तनाव, उसका डर, अपराधबोध, उसका अकेलापन बिखरा पड़ा है। क्या यह तनाव प्रवासी परिवेश के कारण है? पन्ना को जानने-समझने के लिए उसके द्वारा बोले गए वाक्य और उसके व्यवहार का विश्लेषण आवश्यक है। दिव्या माथुर ने जाने-अनजाने में एक ऐसा पात्र खड़ा कर दिया है जो तमाम बहुत सारी स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करता है। समाज की उन सारी स्त्रियों को प्रतिबिंबित करता है जो भीतर से अकेलेपन, तनाव, भय, और अपराधबोध से भरी हुई हैं। जिनकी इच्छाएँ-कामनाएँ-अभिलाषाएँ अधूरी हैं, अतृप्त हैं। इसके लिए कहानीकार को बधाई देनी चाहिए। उन्होंने सूक्ष्म निरीक्षण-अवलोकन द्वारा प्राप्त अनुभवों को शब्दों में पिरो कर मनोवैज्ञानिक रूप से एक जटिल पात्र का सृजन किया है और पाठकों एवं समीक्षकों को विश्लेषण का मसाला दिया है।
पन्ना एक ऐसी स्त्री जो वयस में काफ़ी बड़ी है। इसका पता कहानी के काफ़ी आगे बढ़ने पर होता है। वह स्वयं कह रही है, ‘सरकारी स्कूल की शिक्षायाप्ता, एक मिडिल क्लास की मिडल ऐजेड अवकाश प्राप्त अध्यापिका, जिसने एक मिडल क्लास सरकारी नौकर से विवाह किया, दो बच्चे पैदा किए; जो उसे जब-तब सुनाने में संकोच तक नहीं करते कि वे पैदा हुए कि उन्हें अपनी सैक्स की भूख बुझानी थी, जिसका पति अब एक जवान पड़ोसन के साथ खुल्लमखुल्ला रहने लगा था, जिस औरत ने बच्चों को वे सब सुविधाएँ दीं जो वह स्वयं कभी भोग नहीं पाई. जो तीन कमरों के मकान में अकेली रह रही है, रिटायर होने के बाद जिसे पेंशन के अतिरिक्त यातायात पास, स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएँ मुफ़्त में मिलने लगी हैं, बच्चों को अब उसकी आवश्यकता नहीं रही, जो समय बिताने के लिए एक चैरिटी के लिए काम करती है और सोचती है कि इस जीवन का औचित्य आखीर है क्या?’
इस एक लम्बे वाक्य में पन्ना अपना – प्रमुख या ऐसा कहिए कि एकमात्र पात्र का – इतिहास-भूगोल सब बता देती हैं। इस एक वाक्य से पता चलता है कि यह स्त्री उम्रदराज है। पति, बच्चों से इसके संबंध मधुर नहीं हैं। यह मध्यमवर्गीय परिवार की उपज है और अभी भी मध्यमवर्गीय परिवार का अंग है। मगर मध्यवर्गीय परिवार का होते हुए भी इस स्त्री के पारिवारिक मूल्य मध्यवर्गीय नहीं हैं वरना बच्चे कभी न कह पाते कि वे सैक्स की भूख मिटाने की उपज हैं। मध्यवर्गीय परिवार में सदस्य भीतर- भीतर भले ही एक दूसरे को नापसंद करते हों परंतु ऊपर से सम्मान प्रदर्शित करते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि प्रवासी परिवेश, प्रवासी कहानी होने के कारण परिवार में सदस्यों का व्यवहार देसवाली लोगों से भिन्न हो। जाहिर है मध्यवर्गीय परिवार की परिभाषा यहाँ भिन्न है। पति इस उम्र में आकर पड़ोस की स्त्री के साथ रह रहा है, पन्ना के साथ नहीं। पन्ना के मन में इस बात को लेकर अवश्य बहुत कुंठा है।
स्कूल शिक्षिका के रूप में काम करते हुए इसने अपनी जिंदगी व्यतीत की है, वह भी किसी प्राइवेट स्कूल में नहीं बल्कि सरकारी स्कूल में। जाहिर है कि उसका वेतन सरकारी स्कूल में होने के कारण निजी स्कूलों की तुलना में कम रहा होगा। और अब रिटायरमेंट के बाद सरकारी सुविधाओं का उपभोग करते हुए समय काटने के लिए एक चैरिटी संस्था में काम करती है। इतनी उम्र निकल जाने और इतने अनुभव के बाद भी पन्ना के लिए जिंदगी का मकसद स्पष्ट नहीं हुआ है। अभी भी यह जिन्दगी का औचित्य क्या है इस पर सोच रही है। अच्छी बात है कि यह सोच तो रही है, अक्सर तो जिंदगी समाप्त हो जाती है और लोग इस ओर ध्यान भी नहीं दे पाते हैं। पन्ना को इस बात का गुमान है कि उसने परिवार पर अहसान किए हैं। खुद की इच्छाओं को दबा कर भी बच्चों की इच्छाएँ पूरी की हैं। यह परिवार के लिए किया गया त्याग और समर्पण नहीं है, मन की कुंठा है क्योंकि उसके मन में मलाल है कि उसने वे सुविधाएँ नहीं भोगी हैं जो उसने अपनी मेहनत से अपने बच्चों को मुहैय्या कराई हैं।
हिन्दी की मनोवैज्ञानिक आलोचना अक्सर बस फ़्रॉयड पर ही ठहर जाती है बहुत हुआ तो युंग और एडलर को छू लेंगी। इन तीन विद्वानों के अलावा भी मनोविज्ञान के बहुत से विद्वान हुए हैं जिन्होंने मनुष्य पर बहुत शोध कार्य किया है और मनुष्य को समझने की दिशा में कई सिद्धांत दिए हैं। विक्टर फ़्रैंकल उनमें से एक हैं। विक्टर फ़्रैंकल ने ‘लोगो थेरेपी’ का विकास किया है जिसे ‘द थर्ड वियेना स्कूल ऑफ़ साइकोथेरपी’ भी कहते हैं। विक्टर फ़्रैंकल की ‘लोगो थेरेपी’ के अनुसार मनुष्य को जीवित रहने के लिए किसी मकसद की जरूरत होती है। जब तक उसे जीवन का अर्थ नहीं मिल जाता है वह जीवन का मूल्य नहीं समझता है। फ़्रैंकल मनोचिकित्सक के रूप में प्रशिक्षित थे और उन्हें काफ़ी समय यातना शिविर में बिताना पड़ा था। यातना शिविर से लौटने के बाद उन्होंने मनोविज्ञान में ‘लोगोलॉजी’ का सिद्धांत जोड़ा। उन्होंने व्यक्ति के मनोविज्ञान को समझने के साधन पर चिंतन-मनन किया, प्रयोग किए और तब अपने सिद्धांत का प्रतिपादन किया। ‘लोगो थेरेपी’ मनुष्य के भविष्य पर दृष्टि रखती है। वह उन सब बातों, कार्यों और अर्थवत्ता पर ध्यान केंद्रित करती है, जो व्यक्ति को अपने भविष्य में पूरे करने हैं। ऐसे कार्य जो केवल वही व्यक्ति पूरे कर सकता है। जिस दिन व्यक्ति को यह बात ज्ञात हो जाती है कि कुछ ऐसे कार्य हैं जो केवल वह और वह ही कर सकता है, उसे अपने जीवन का अर्थ मिल जाता है। उसे अपने जीने का उद्देश्य मिल जाता है। उसे जीने की कला हाथ लग जाती है।
व्यक्ति को अपने अस्तित्व के ‘क्यों’ का कारण मिल जाता है, जिसके मिलते ही वह किसी भी कष्ट को सहने की क्षमता अपने भीतर पाता है, कैसा भी कष्ट हो वह उसे सह कर जीवित रहता है और अपने कार्य को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ता रहता है। इस सिद्धांत का इस पर भी विश्वास है कि एक व्यक्ति ने जो अनुभव किया है उसकी अनुभूतियों को कोई शक्ति उससे छीन नहीं सकती है। ‘पंगा’ कहानी को लोगोलॉजी के आधार पर मूल्यांकित करें तो पातें है कि पन्ना के सामने पहले भले ही एक उद्देश्य – बच्चों की परवरिश का उद्देश्य – रहा हो लेकिन अब जबकि बच्चे बड़े हो चुके हैं उसे अपनी जिंदगी व्यर्थ लग रही है। एकल परिवार की यह त्रासदी है। उसमें भी एकल भग्न परिवार और भी त्रासद दृश्य उत्पन्न करता है। आधुनिकता का यह खामियाजा बहुत सारे लोगों को भुगतना पड़ रहा है। आज पारिवारिक संबंध भी अर्थ पर टिके हैं, उनकी जड़ों में प्रेम, आदर, सम्मान, त्याग, सहानुभूति, दया जैसे मानवीय गुणों का अभाव है। परिवार मात्र नाम के लिए ही परिवार हैं। वह क्यों जीवित है, उसके जीवन का क्या उद्देश्य है इस पर बहुत कम व्यक्ति ध्यान देते हैं और इसी कारण वे सार्थक जीवन व्यतीत करने से चूक जाते हैं। बस जीए चले जाना ही जिंदगी नहीं है।
इसी व्यर्थता बोध से घबरा कर पन्ना सड़क पर निकल पड़ती है, बहाना है अस्पताल जाना है डॉक्टर से मिलना है। वह खुद को भुलावा देती है कि उसके माथे पर जो गिल्टी निकल आई है इसी के कारण वह चिढ़चिढ़ी हो गई है। सड़क पर वह अपनी पुरानी फ़ियेट कार लेकर निकली है। वह एक युवती की भाँति अनुभव कर रही है और सड़क पर अपने आसपास चलती कारों के नम्बर को लेकर मनबहलाव के लिए खेल खेलती चल रही है। वह नम्बरों को मिला कर शब्द बनाती है और उस शब्द के आधार पर कार चालक के व्यक्तित्व का विश्लेषण करती चलती है। वह जो भी शब्द बनाती है या नंबर प्लेट के अक्षरों तथा अंकों को जोड़ कर जो भी शब्द बनते हैं वे सारे के सारे नकारात्मक हैं, और यदि नकारात्मक नहीं हैं तो भी किसी न किसी तरीके से पन्ना चालक के चरित्र के विषय में कोई न कोई ओछी बात सोच लेती है, जैसे सलेटी रंग की एक रोवर कार के नम्बर प्लेट से वह ‘लिज़िट’ शब्द बनाती है मगर उसके लिए कहती है, ‘लोमड़ की औलाद, लिज़िट माई फ़ुट, जरूर कोई अवैध व्यापार करता होगा।’ एक अनजान व्यक्ति के विषय में ऐसी बेजा धारणा बनाना पन्ना की मानसिक स्थिति को दर्शाता है। यहाँ स्वयं लेखिका कहती है, “इस खेल में स्वभाविक है कि कोई पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो। पन्ना भी अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर आगे-पीछे चल रहे ड्राइवरों को भला-बुरा कहती है, कभी-कभी तो गालियों पर भी उतर आती है। कभी इतराती कि वह भी किसी से कम नहीं तो कभी किसी की पॉश कार या एक अच्छी-सी तख्ती को देखकर तनावग्रस्त भी हो जाती। आस-पास के ड्राइवरों की नंबर प्लेट्स के आधार पर उनकी हैसियत और मन:स्थितियों का अंदाज लगाने में उसका अच्छा-खासा समय बीत जाता।”
पूरी कहानी स्वालाप है। बिना किसी दूसरे की उपस्थिति के भी पन्ना लगातार बोलती रहती है। काफ़ी कुछ अपने मन की भड़ास को निकालते हुए। पन्ना की एक विशेषता है वह चुप नहीं रह सकती है। उसे निरंतर बडबड़ाने की आदत है। दिव्या माथुर की कहानियों में ऐसी स्त्रियाँ अन्यत्र भी मिलती हैं। ‘ठुल्ला किलब’ की स्त्रियाँ ऐसे ही निरंतर बोलती हैं। जो भी सामने आ जाए उस पर टिप्पणी करती रहती हैं। पन्ना भी यही कर रही है। इस पर अवश्य शोध होना चाहिए, इस पर विमर्श होना चाहिए कि कौन स्त्रियाँ ऐसा करती हैं? स्त्रियाँ ऐसा क्यों करती हैं? इस अबाध गति से बोलने के पीछे क्या राज है? इनके मन में गहरे झाँक कर देखा जाए तो यह भी इनकी हीनता बोध और भय को छिपाने की एक तरकीब है। ये स्त्रियाँ बहुत अकेली हैं, इन्होंने अपनी सारी युवावस्था पति और बच्चों की देखरेख में लगा दी। उन्हीं की नींद सोई और उन्हीं के लिए जागीं और अब जब बच्चे बड़े हो चुके हैं, पति या तो गुजर चुके हैं अथवा किसी अन्य स्त्री में रूचि लेने लगे हैं। तो ये स्वयं को बेकार पा रही हैं, उपेक्षित अनुभव करती हैं। इनके सामने कोई सार्थक लक्ष्य नहीं होता है। भविष्य इन्हें डराता है, इनके सामने उम्र की ढ़लान मुँह बाए खड़ी होती है। व्यक्ति का मन अपने अकेलेपन, उपेक्षित हो जाने, प्रेम विहीनता के भय को स्वयं से भी छिपाने के लिए कैसे-कैसे छल करता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे ‘डिफ़ैंस मैकेनिज्म’ कहते हैं।
फ़्रायड अपने मनोविश्लेषण में कहते हैं कि व्यक्ति अपनी शारीरिक माँगों और इच्छाओं तथा समाज सम्मत व्यवहार करने की जद्दोजहद में तनावग्रस्त रहता है। तनाव से समायोजन तथा ‘स्व-भावना’ की सुरक्षा के लिए अचेतन मन बहुत सारे विकृत विचारों का सहारा लेता है। यथार्थ को देखने की ये अचेतन विकृतियाँ ‘डिफ़ैंस मैकनिज्म’ कहलाती हैं। व्यक्ति क्यों अतार्किक विचार-व्यवहार करता है इसे समझने और व्याख्यायित करने में ‘डिफ़ैंस मैकनिज्म’ से हमें सहायता मिलती है। फ़्रायड के इस कार्य को उनकी बेटी अन्ना फ़्रायड, जो स्वयं भी मनोवैज्ञानिक थीं, ने आगे बढ़ाया है। ‘नकार’ (डिनायल), ‘प्रक्षेपण’ (प्रोजेक्शन), ‘विस्थापन’ (डिस्प्लेसमेंट), ‘तार्किकता’ (रेशन्लाइजेशन), ‘मुआवजा’ या ‘स्थानापन्नता’ (कॉम्पनसेशन या सब्सीट्यूटशन) आदि विभिन्न प्रकार के डिफ़ैंस मैकेनिज्म का प्रयोग व्यक्ति करता है। पन्ना का अचेतन भी समय-समय पर इनका प्रयोग करता है। उसके व्यवहार का अध्ययन भी अचेतन मन द्वारा तनाव समायोजन की इस तकनीकि द्वारा किया जा रहा है।
लंदन की सड़क जिस पर एक से एक कीमती कारें दौड़ रहीं हैं। दूसरों की चमकती नई-नई कारें पन्ना के मन में ईर्ष्या उत्पन्न करती हैं। वह सारे समय खुद को हीन और उच्च भावना से लिप्त रखती है। व्यक्तिगत मनोविज्ञान के प्रवक्ता एल्फ़्रेड एडलर के अनुसार मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या और उसके सारे संघर्ष उसकी हीन-भावना और उच्च-भावना के कारण हैं। उसकी हीनता और उच्चता की ग्रथियों पर उसका व्यवहार आधारित होता हैं। एडलर फ़्रायड के मनोविश्लेषण के सिद्धांत और व्यक्तित्व विकास में सैक्स की प्रमुखता से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि बच्चा जब असहायावस्था में होता है तब वह अपने से अधिक शक्तिशाली लोगों से निरंतर अपनी तुलना करता रहता है। उसे अन्य लोग खासकर वयस्क लोग अपनी तुलना में उच्च नजर आते हैं। तुलना में वह खुद को कमतर पाता है। इस तरह वह हीन भावना से ग्रसित होता है।
सारी जिंदगी मनुष्य स्वयं में उच्च भावना की खोज करता है। उच्च भावना की यही खोज उसके समस्त कार्यों के पीछे का प्रेरक होती है। यही उसके समस्त व्यवहार और क्रियाकलापों का संचालन बल होता है। एडलर का कहना है कि मनुष्य की सारी समस्याएँ उसकी आत्म-छवि (सेल्फ़ इमेज), इसी हीन और उच्च भावना की छवि का परिणाम हैं। अन्ना फ़्रायड की भाँति उनका भी मानना है कि मनुष्य अपनी हीन भावना को छिपाने के लिए ‘डिफ़ैंस मैकेनिज्म’ का सहारा लेता है। वह जिस क्षेत्र में खुद को कमतर पाता है उसकी पूर्ति के लिए किसी अन्य क्षेत्र में आगे बढ़ता है, किसी अन्य क्षेत्र में उन्नति करके अपनी हीनता की भावना की क्षतिपूर्ति करने की चेष्टा करता है। पन्ना भी कार चला कर सोचती है कि वह कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल कर रही है। मगर इस कार्य से वह पूरी तरह संतुष्ट नहीं है। उसे निरंतर सब चीजों और सब लोगों से परेशानी है।
पन्ना को केवल तेज रफ़्तार से चलती कारें ही परेशान नहीं कर रही हैं बल्कि जब कोई कार धीमी गति से चल रही है अथवा पन्ना को ऐसा लगता है कि किसी कार की गति धीमी है तब भी उसका बड़बड़ाना जारी रहता है। उसे लगता है कि जब लाल बत्ती हरी होती है, ‘तो किसी ‘लेजी स्टुपिड ईडियट’ की वजह से केवल तीन या चार कारें ही निकल पाती हैं। ‘यदि सब फ़ुर्ती से काम लें तो बत्ती के हरा होते ही कम से कम दस कारें निकल सकती हैं किंतु नहीं। अरे, ऑटोमैटिक कार क्यों नहीं ले लेते? आदमियों को तो कोई खिलौना चाहिए, फ़िर वह चाहे गियर बॉक्स ही क्यों न हो।’ पन्ना को बुड़बुड़ करने के लिए बस कोई सबब चाहिए।’ इसके बाद वह स्वचालित कार की विशेषताओं पर बोलना शुरु कर देती है। वह याद करती है कि इस विषय में उसे अपने बेटे की तर्कपूर्ण बात भी नहीं रुचती है। वह सोचती है कि वह माथे की गिल्टी के कारण चिढ़ी रहती है और आजकल बात-बेबात बच्चों के सामने भी गाली देने लगती है। इससे वाक्य से पता चलता है कि वह पहले भी गाली देती थी भले ही बच्चों के सामने नहीं। वह बात-बेबात सबके विषय में अपनी राय कायम करती चलती है। उसे लगता है कि लोग कंजूस हैं, पैसे बचाना चाहते हैं इसीलिए मँहगी ऑटोमैटिक कार नहीं खरीदते हैं। इसी तरह पन्ना का विश्वास है कि पुरुष कार का मनमाफ़िक नंबर लेने के लिए काफ़ी रकम खर्च कर सकता है जबकि ‘एक महिला दस बार सोचेगी कि नंबरप्लेट पर पैसे खर्च करने से अच्छा क्या हो सकता है।’
पन्ना को अहंकार है कि उसने एक बार में ड्राइविंग टैस्ट पास कर लिया है। लंदन में यह एक बहुत कठिन कार्य है और उसके बेटे-बहु ने भी एक बार में सफ़लता नहीं पाई थी। अब यह हाल है कि वह हर छोटे-बड़े काम के लिए अपनी कार का प्रयोग करती है। यदि कभी कोई उसे कार से न जाने की सलाह देता है तो वह झल्ला पड़ती है। उसका मानना है, ‘आई फ़ील सेफ़ इन माई कार।’ उसे अपनी कार में सुरक्षा और आजादी का एहसास होता है। ऐसा क्यों है? असल में कार उसके लिए अपनेपन की निशानी है। अब जबकि बच्चे और पति को उसकी जरूरत नहीं है वह कार में अपनी सार्थकता खोज रही है। कार पर उसका पूरा नियंत्रण है कार उसके लिए मात्र भौतिक संपत्ति ही नहीं वरन एक साथी की तरह है। कार से वह जहाँ चाहे जा सकती है। इसके चलते उसकी कुछ अन्य स्त्रियों से मित्रता भी हो गई है। वह उनको कार से यहाँ-वहाँ ले जाती है मगर वह कोई काम मुफ़्त में नहीं करती है। कार में यदि किसी को कहीं ले जाती है तो बदले में उनसे उसे कुछ न कुछ मिलता है और इसे वह अपना अधिकार समझती है। उसकी सहेलियाँ कार की सवारी के एवज में उसे अचार, चिवड़ा और चपाती बना बना कर देती हैं। वह इस बात में अपने जीवन की सार्थकता मान कर खुश और गर्वित है।
आज भीड़ के कारण देर हो रही है इसलिए उसे कार लाने का अफ़सोस भी है। लम्बा रास्ता अकेले काटना अच्छा नहीं लग रहा है। पहले उसने सोचा था कि रास्ता काटने के लिए अपनी सहेली पुष्पा को ले चले पर वह उससे भी ज्यादा बोलने वाली है और पन्ना को ज्यादा बोलने वालों से परेशानी होती है। इससे उसके सोचने में बाधा पड़ती है। वह खुद कभी नहीं सोचती है कि उसके इतना बोलने से किसी और को भी परेशानी हो सकती है, उनके सोचने में बाधा पड़ सकती है। उसका अपना बेटा आदित्य उसकी निरंतर बोलने की आदत से परेशान रहता है। इससे यह भी पता चलता है कि वह कितनी आत्मकेंद्रित है। वह आजकल बहुत निडर होती जा रही है ऐसा वह सोचती है और मौका मिलते ही ट्रैफ़िक के नियम तोड़ती है। प्रश्न उठता है क्या वह वास्तव में निडर है? वह हैंडब्रेक बिना रिलीज किए अक्सर गलती से एक्सिलेटर दबा देती है और डरती है कहीं इस बात का पता चलने पर ‘उसका लाइसेंस ही न जब्त हो जाए। हैंडब्रेक लगाकर वह ब्रेक्स पर से अपना पाँव भी नहीं हटाती है ताकि जब ट्रैफ़िक हिले तो वह जल्दी से निकले। हालाँकि इस प्रक्रिया में उसके हाथ और पाँव दोनों अकड़ के रह जाते हैं।’
उसे लाइसेंस जब्त होने की बहुत चिंता है जिसे उसने इतने जतन से एक बार में पाया है, उसे वह किसी कीमत पर गँवाना नहीं चाहती है। उसे सदैव डर लगा रहता है कि उसे जुर्माना न भरना पड़े, उसका लाइसेंस न छिन जाए अत: वह चाहकर भी कार कहीं नहीं छोड़ती है। उसे लगता है, ‘पार्किंग परिचर भूखे शेर की तरह घूमते रहते हैं कि कब कोई शिकार मिले और वे उस पर टूट पड़ें। वे भी क्या करें, उनकी तो रोजी-रोटी इसी जुर्माने के कमीशन पर चलती है।’ साथ ही वह देखती है, ‘यहाँ कारों का रुकना निषिद्ध है किंतु छोटी-बड़ी वैंस और ट्रक्स यहाँ सदा खड़े रहते हैं। पन्ना ने सुना है कि ये स्टुपिड दुकानदार सेब और संतरों से पुलिस वालों के मुँह बंद कर देते हैं।’ इशारे-इशारे में कहानीकार बता देती है कि भ्रष्टाचार सब जगह है। पन्ना काफ़ी समय से ब्रिटेन में रह रही है मगर अभी भी सारे समय लंदन की तुलना भारत से करती रहती है। कई बार उसे लंदन की सभ्यता-संस्कृति बेहतर लगती है, जैसे, ‘ट्रैफ़िक जहाँ का तहाँ खड़ा था। पन्ना ने सोचा कि ऐसी परिस्थितियों में इटली अथवा भारत के किसी भी शहर में भोंपुओं की आवाज़ से अब तक कानों के पर्दे फ़ट गए होते।’ अचला शर्मा भी अपनी एक कहानी ‘रेसिस्ट’ में लंदनवासियों के इंतजार करने के धैर्य की प्रशंसा की है।
पन्ना चली जा रही थी कि उसकी कार की बगल से एक फ़ोर्ड फ़ोक्स कार निकलती है जिसकी नम्बर प्लेट से वह ‘पागल’ शब्द बनाती है। कहती है, ‘यह स्टुपिड ईडिएट तो सचमुच ही पागल है।’ उसकी बिना इस्री की हुई पोशाक देखकर वह अनुमान लगाती है, ‘वैंबली में उसकी फ़ल-सब्जी की दुकान होगी। यद्यपि गुज्जु ऐसा रिस्क लेते नहीं किंतु कोई जरूरी काम होगा बेचारे को। उसकी दुकान पर पुलिस ने छापा मारा होगा या फ़िर दुकान के आगे बढ़ाए गए छप्परनुमा वर्तन को गिरा दिया गया होगा।’ पन्ना जब भी किसी अन्य के विषय में सोचती है उसे कमतर आँकती है और नकारात्मक ही सोचती है। हालाँकि कुछ हुआ नहीं पर वह उसको स्टुपिड ईडियट कहती है और मन ही मन धमकी देती है। वह सदा भन्नाई रहती है। इतनी उतावली रहती है कि दुर्घटना की संभावना सदा बनी रहती है। वह उन्हें सबक सिखाने के विचार से उनके नम्बर भी अपनी डायरी में नोट करती जाती है। साथ ही सोचती है कि इन सब में उसे आर्थिक लाभ हो सकता है मगर उसका समय बरबाद होगा। साथ ही बीमा कम्पनी से माथा-पच्ची भी करनी होगी और फ़िर क्या गारंटी है कि उसे गवाह मिल ही जाएँगे। वह अपने नुकसान की बात सोचती है मगर दूसरे के नुकसान की उसे तनिक भी चिंता नहीं है।
पन्ना को किसी पर विश्वास नहीं है। अविश्वास उसके भीतर गहरा पैठा हुआ है। उसे लगता है, ‘अस्पतालों में यहाँ बच्चों और युवाओं के इलाज को प्राथमिकता दी जाती है।’ वह खुद ही आगे जोड़ती है कि बूढ़ों को ढोते रहने का औचित्य भी क्या है? उसकी सहेलियों का भी विचार है कि महीनों अप्वाइंटामेंट का कारण भी यही है। यहाँ हिन्दी के दो प्रचलित मुहावरों को तोड़-मरोड़ कर एक बनाते हुए प्रयोग किया गया है। मुहावरे हैं, न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी तथा मैंस के आगे बीन बजाए, भैंस बैठी पगुराय। यहाँ प्रयोग किया गया है ‘न होगी भैंस न बजेगी बाँसुरी।’ इसी तरह कुछ आगे चलकर एक अंग्रेजी मुहावरे का तर्जुम्मा प्रयोग किया गया है जबकि वहाँ आराम से हिन्दी के मुहावरे का उपयोग हो सकता था।
पन्ना की मानसिकता का पता चलता है जब उससे पीछे वाले एक ड्राइवर ने दो बार हॉर्न बजा दिया तो उसके सामने वाली कार में बैठे एक गोरे ने गुस्से में बाहर निकल कर अपना हाथ दिखाते हुए पीछे वाले ड्राइवर की ओर बढ़ना शुरु किया। पन्ना सामने वाली कार का नंबर देखती है और उससे शब्द बनाती है, पी-६एन आई एस (‘पीनस’ यनि कि लिंग)। वाक्य इस तरह है, ‘जैसे ही दोबारा उसने अपना हॉर्न दबाया, पन्ना के आगे वाली कार का गोरा ड्राइवर अपनी हाइउनडाई एटोज़, जिसका नंबर था पी-६एन आई एस (‘पीनस’ यानि कि लिंग) से बाहर निकल आया और गुस्से में अपने दोनों हाथ हबा में उठाए उसकी ओर बढ़ा। उस नेमप्लेट को देखकर पन्ना के गाल शर्म से लाल हो गए। कोई ऐसा नंबर कैसे ले सकता है। जरूर कोई सनकी व्यक्ति होगा।’ सनकी तो पन्ना है क्योंकि जो खेल वह खेल रही है जो शब्द वह बनाती है उनका अनुमान भी दूसरों को नहीं है। मात्र ‘पीनस’ शब्द देख-पढ़ कर उसके गाल लाल हो जाते हैं। उसकी यह प्रतिक्रिया दिखाती है कि वह यौन कुंठा से ग्रसित है। इसमें कोई शक नहीं है। काफ़ी कुछ होता है इस बीच पर वह इस शब्द से उबर नहीं पाती है और उसे चिंता है कि घर लौट कर वह अपने बेटे-बहु को यह शब्द कैसे बताएगी? वह चाहती है कि बेटा-बहु उसकी बात का विश्वास करें। इतना ही नहीं वह चाहती है कि बेटा आदित्य ‘गूगल सर्च’ करे और जान ले कि यह नंबर किसी के पास है। ‘अब पन्ना मन ही मन परेशान थी कि ‘पीनस’ वाली बात वह आदित्य और आशिमा को कैसे बता पाएगी? कोई भी उसका यकीन नहीं करेगा। आदित्य यदि ‘गूगल सर्च’ करे तो उन सभी नेमप्लेट्स के नाम देख सकता है जो खरीदे जा सकते हैं। यदि ‘पीनस’ नहीं मिला तो इसका अर्थ यही होगा न कि यह नंबर किसी के पास है।’ लगता है पन्ना इस शब्द से ऑब्सेस्ड है वरना इतनी बार यह शब्द क्यों प्रयोग किया जाता? कहानी में एक बार नहीं तीन बार इस शब्द का प्रयोग हुआ है। खासकर यह सोचने की बात है क्योंकि बाद में इस बात पर सिर खपाने को वह खुद बेकार मानती है और तय करती है कि ‘कुछ बातें खुद तक ही रहने देनी चाहिए, अपने या अपनी सहेलियों के मनोरंजन के लिए।’ क्या यह दिखाता नहीं है कि पन्ना की यौन इच्छाएँ-अपेक्षाएँ अधूरी हैं, उनका सही शमन नहीं हुआ है? क्योंकि पन्ना एक किशोरी नहीं है वह एक रिटायर्ड स्त्री है। वह शादीशुदा, बाल बच्चेदार स्त्री है।
पन्ना डरकर झूठ-मूठ मोबाइल पर बात करने लगती है और इशारे से बताना चाहती है कि यह वह नहीं थी जिसने हॉर्न बजाया था। इशारे में भी वह ‘स्टुपिड, ईडियट’ जैसे अपशब्दों का प्रयोग करती है, ‘यू स्टुपिड ईडियट, आई वाज़ नॉट दि वन हू होंक्ड, इट वाज़ दि अदर ड्राइवर बीहाइंड मी।’ मगर वह व्यक्ति एक गंदा इशारा करता है। यह बेहूदा इशारा इंग्लैंड में एक सामान्य बात है, फ़िर भी पन्ना का खून खौल उठता है। उसके मुँह से बुरी-बुरी गालियाँ फ़र्राटे से निकलने लगती हैं। वह स्वयं उसी ड्राइवर के स्तर पर उतर आती है। मगर अपनी खराब जबान का दोष वह वहाँ की आबोहवा को देती है जहाँ लोगों को पेट भरने के लिए १६-१६ घंटे काम करना पड़ता है। लोग सुबह शाम ट्रैफ़िक से जूझते हैं और बात-बात पर मारपीट पर उतर आते हैं। वह इसे जायज़ भी मानती है। हर व्यक्ति के लिए वह ‘स्टुपिड ईडियट’ शब्द का प्रयोग करती है, यह उसका तकिया कलाम है।
बात बढ़ जाती है तो कुछ लोग बीच-बचाव करने आ जाते हैं इससे पन्ना का हौंसला बढ़ जाता है। बीच-बचाव के लिए आसपास के दुकानदार आते हैं जो अधिकतर अरब हैं और एक एशियन औरत को देख कर उसका पक्ष भी लेते हैं। इतने सारे दूसरी नस्ल के लोग देख गोरा झट अपनी कार में बैठ कर फ़ुर्र होना चाहता है। मगर तभी ट्रैफ़िक की बत्ती लाल हो जाती है। इस बार उसे चिढ़ाने के लिए औरों के साथ-साथ पन्ना भी खूब जोर से हॉर्न बजाती है, उसे ऐसा करके बड़ी राहत मिलती है। उसके चिढ़े हुए मन को तसल्ली मिलती है। फ़िर वह गोरे से ध्यान हटा कर दूसरी बातों में लगाती है। इंग्लैंड में नस्लवाद है या यूँ कहा जाए कि नस्लवाद पूरी दुनिया में है। पन्ना किसी भी गोरे को देखते ही उसे बुरा मान बैठती है। वह स्वयं भूरी नस्ल की है अत: अश्वेतों को अपने से असभ्य मानती है। उन्हें खुद से कमतर मानती है। थोड़ा आगे जाने पर पन्ना की कार का पहिया एक गड्ढ़े में फ़ँस जाता है और वह अपनी आदत के अनुसार काउंसिल को कोसने लगती है। वह सोचती है कि वे लोग इतना टैक्स भरते हैं तब भी रोड का यह हाल है। अपने पड़ोसी से हुई बातचीत वह याद करती है। लंदन में ओलिम्पिक्स होने वाले हैं, वे लोग बात करते हैं कि जब काउंसिल से रोजमर्रा का ट्रैफ़िक नहीं संभलता है तो खेल के दौरान कैसे संभलेगा। उसके पड़ोसी ने अपने नाम के अनुसार अपनी कार की नंबर प्लेट (सी-११ एम ए एन) ‘चमन’ लगा रखी है। इसी बातचीत से यह भी पता चलता है कि लोग जुर्माना भरने से बचने के लिए दूसरे देश में अपना रजिस्ट्रेशन करवाते हैं। मगर पन्ना को ऐसा करने में डर लगता है वरना वह भी करवाने से न चूकती। खतरा न हो तो पन्ना को नियम तोड़ने में कोई गुरेज नहीं है वह नियम तोड़ती है। सत्ता से जनता सदा नाखुश रहती है। इंग्लैंड में भी सत्ता और पैसे का खेल चलता है।
पन्ना रोड पर है कि एक गोरा ‘पॉवर’ नाम की नंबर प्लेट के साथ उसके पास आ जाता है। वह उसे रास्ता नहीं देना चाहती है। उसे लगता है कि वह गोरा और धनी है तो क्या हुआ वह उसे आगे नहीं जाने देगी। पन्ना सड़क पर एकछत्र राज चाहती है और उसे इस व्यक्ति की हरकत अनाधिकार चेष्टा लगती है। वह उसके विषय में बोलना शुरु करती है, ‘अमीर माँ-बाप का बेटा होगा, जो जीवन भर अपने से नीचे वाले लोगों को रौंदता अपनी ही चलाता आया होगा। ये लैमबुगीनी शायद उसके पच्चीसवें जन्मदिन का तोहफ़ा हो। अपर क्लास में पैदा हुआ, प्राइवेट स्कूल में पढ़ा-बढ़ा, ऊँचे ओहदेवाले लोगों के बच्चों के साथ उठा-बैठा, ऊँचे लोगों से संबंध रहे, शौक के लिए धंधे खोले, बंद किए और आज भी वह हवा से बातें करता जा रहा था।’ लेखिका ने मध्यवर्गीय व्यक्ति खासकर स्त्री की मानसिकता की बड़ी सटीक तस्वीर खींची है। उसकी मानसिकता उच्च वर्ग के व्यक्ति में कोई अच्छाई देखने से हर तरह से साफ़ इंकार करती है। मध्यमवर्गीय मानसिकता के व्यक्ति को अपनी और अपने लोगों की महानता का मुगालता होता है। वह अपनी हीनता, आत्म विश्वास की कमी को हर हाल में दूसरों को नीचा सिद्ध करके दूर करना चाहता है। गलत उपमा देकर, झूठ गढ़ कर भी खुद को ऊपर रखना उसकी फ़ितरत होती है। खुद गलती करके दोष वह दूसरों के सिर मढ़ता है। सामने वाला दंबंग हो तो वह दब जाएगा और कहीं खुदा न खास्ता सामने वाला कमतर हुआ तो वह उस पर सवार हो जाएगा। इस कहानी में ऐसे प्रसंग कई बार आए हैं जब पन्ना या तो सामने वाले को दबाने का प्रयास करती है अथवा खुद दबती है। यह सारा व्यवहार वह सामने वाले की हैसियत का अंदाजा लगा कर करती है। डिफ़ैंस मैकेनिज्म का हिस्सा है यह व्यवहार। जानबूझ कर उसने वर्षों से कार चलाते रहने के बावजूद अभी तक अपनी कार से ‘एल’ प्लेट नहीं उतारी है। इसका फ़ायदा उसे मिलता है, अनाड़ी समझ कर लोग उसकी गलतियों को माफ़ कर देते हैं। वह गलती करती है मगर गलती के खामियाजे को भुगतने से बचने के उपाय सोचती-करती रहती है।
पन्ना अपनी धुन में बड़बड़ाती चली जा रही थी कि किसी ने ‘यू स्टुपिड बिच’ कहते हुए उसका ध्यान भंग किया। उसे यह कार और इस कार का नंबर बढ़िया लगता है। जब वह दूसरों को पीछे छोड़ देती है तो उसे बड़ी शाँति मिलती है मगर सड़क पर सदा ऐसा नहीं होता है। अक्सर लोग आपसे आगे भी निकल जाते है। पन्ना के साथ भी ऐसा ही होता है और तब वह चिढ़चिढ़ा उठती है। सिग्नल पर कारें रुकी हुई हैं, पन्ना को यह देखकर आश्चर्य होता है कि लालबत्ती पर खड़ी कार में बैठी कोई स्त्री मेकअप कर रही है। हरी बत्ती हो जाती है तो भी वह मेकअप करने में तल्लीन रहती है। पन्ना की प्रतिक्रिया सोची जा सकती है। उसे दया आती है क्योंकि वह जानती है कि ब्रिटेन में लोगों को इतना काम करना पड़ता है कि उन्हें नहाने-खाने की भी फ़ुरसत नहीं मिलती है। एक काली स्त्री को जब पन्ना घूरती रहती है तो वह उसे उसकी असभ्यता के लिए बुरा भला कहती है। पन्ना भी उससे बदजबानी करती है। थोड़ा आगे बढ़ने पर पन्ना को एक सुर्ख फ़िरोजी रंग की वॉक्सवैगन मिलती है। जिसके नंबर को जोड़ने पर पन्ना ‘काफ़िर’ शब्द बनाती है। चूंकि इस कार में अश्वेत लोग थे अत: पन्ना की निगाह में उन्हें कमतर होना ही था। वह उनके मुस्कुराने को भी बुरे अर्थ में लेती है।
कहानी यहाँ से एक मोड़ लेती है। अभी तक पन्ना सोच रही थी कि परिस्थिति उसके नियंत्रण में है मगर अब परिस्थिति का नियंत्रण उसे उसके हाथ से छूटता नजर आता है। ये अश्वेत तीन लड़के और एक लड़की शायद पिए हुए थे, वे बेवजह मुस्कुरा रहे थे। दोनों कारों में टकराहट शुरु हो जाती है। पन्ना को वे लोग मनुष्य नहीं लगते, ‘शिव के भूत-प्रेत से वे अफ़्रीकन यात्री जोर-जोर से एक कष्टकारी ( यह शब्द थोड़ा खटकता है) हँसी हँस रहे थे।’ चूंकि वे अफ़्रीकन थे अत: पन्ना का नस्लवादी मन उन्हें मनुष्य नहीं स्वीकारता है। वह उन्हें भूत-प्रेत के रूप में देखती है। काफ़िर मानती है। सारे रास्ते वह दूसरी कारों को अपने से पीछे रखने के प्रयास में है पर जब ये लोग उसके बराबर आते हैं या उससे आगे जाते हैं तो यह पन्ना से सहन नहीं होता है। जब यह खेल थोड़ी देर तक चलता रहता है तो पन्ना भयभीत हो जाती है। ‘काफ़िर थे कि उसकी दुम पर मैगनेट की तरह चिपके थे। गोरों से अधिक पन्ना को सदा अफ़्रीकियों से अधिक भय लगता है। आदित्य और आशिमा के विचार में गोरे अन्य किसी जाति से कहीं अधिक निर्दयी होते हैं, विशेषत: ब्रिटिश नेशनल पार्टी के सदस्य जो जातिवाद के लिए बदनाम हैं।’ उन अफ़्रीकन लोगों के लिए यह मात्र खेल ही था क्योंकि वे होश में नहीं थे। कोढ़ में खाज, पन्ना की कार का पेट्रोल समाप्ति पर है।
वह परेशान होकर पुलिस को फ़ोन करती है। पन्ना के साथ सारी मुसीबतें एक साथ आती हैं। पुलिस से बात पूरी होने के पहले ही उसकी मोबाइल की बैटरी चुक जाती है। बेटे के बार-बार याद दिलाने पर भी वह अक्सर बैटरी चार्ज करना भूल जाती है। आज भी यही हुआ है। बचने के लिए वह एक पतली गली में मुड़ जाती है मगर वहाँ जाकर घबरा जाती है। सड़क पर कोई पहचान चिह्न नहीं है वह फ़िर सरकारी महकमे को कोसती है। बहु ने नेवीगेटर सिस्टम नहीं खरीद कर दिया है, यह भी उसे खलता है। उसने खुद भी नहीं खरीदा क्योंकि पैसे खर्च करना उसके स्वभाव में नहीं है। वह कंजूसी की अपनी आदत को अपनी जातीय विशेषता मानती है। वह गुजराती है और उसकी मान्यता है कि गुजराती कंजूस होते हैं। खासकर गुजराती स्त्री। वह खुद ही सोच लेती है कि वे अफ़्रीकन किसी और ओर मुड़ जाएँगे मगर ऐसा होता नहीं है। वह जब पब्लिक बूथ से फ़ोन करने की सोचती है तो पाती है कि उसके पास खुदरा पैसे नहीं हैं तभी उसे याद आता है कि पुलिस को मुफ़्त में फ़ोन किया जा सकता है। वह दूसरी कार वालों को रोक कर उनसे मिन्नत करती है कि वे उसके लिए पुलिस को फ़ोन कर दें। ऐसा वह घबराहट पर काबू पाने के लिए और सुरक्षा की दृष्टि से करती है। वह खुद पब्लिक बूथ से बात कर सकती थी मगर दूसरों से सहारा लेना चाहती है। एक गोरा रुकता तो है मगर वह बात नहीं समझता है और चला जाता है।
उसे डर है कि यदि वे लोग जान जाएँगे कि वह हिंदुस्तानी है तो शायद सताएँगे इसलिए वह शॉल-बिंदी हटा कर, अपनी हिंदुस्तानी पहचान मिटा कर फ़ोन करने जाती है। मगर तभी वे अफ़्रीकन कार वाले उसके पास से हँसते हुए निकलते हैं। वह बहुत डर जाती है और अपनी कार में आ बैठती है मगर मुसीबत उसका पीछा नहीं छोड़ती है। वह अपनी चाबी फ़ोन बॉक्स में छोड़ आई है। अब यदि चाबी लेने जाती है तो आ बैल मुझे मार वाली उक्ति चरितार्थ होगी। उस कार में जो लड़की थी उसने हाथ में एक मोटा बैटनुमा बेंत ले रखा था। पन्ना ने टीवी और फ़िल्मों में गुंडे बदमाशों को सोंटे से मारपीट करते कई बार देखा है। उसे लगता है कि आज उसकी मौत इसी तरह होगी। तभी एक रॉल्स रॉयस कार पास से गुजरती है जिसकी नंबर प्लेट को ‘वेरी प्राइवेट’ के रूप में पन्ना पढ़ती है। उसे लगता है कि यह आदमी अवश्य कोई बड़ा आदमी है और उसकी रक्षा कर सकता है। वह अपनी हेडलाइट फ़्लैश करके उसका ध्यानाकर्षण करना चाहती है मगर असफ़ल रहती है। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस महँगी कार का ड्राइवर भी अफ़्रीकी होगा। वह गाड़ी रोक कर अपनी कार का निरीक्षण करने लगता है। पन्ना भी अपनी कार से बाहर निकल आती है। ‘तभी काफ़िर की कार नजदीक से गुजरी, जिसमें से लहराता हुआ एक बेंत पन्ना की ओर फ़ेंका गया। यदि पास खड़ा अफ़्रीकी व्यक्ति उसे अपनी ओर खींच कर जमीन पर बैठा नहीं लेता तो पन्ना बुरी तरह घायल हो सकती थी। बेंत सीधा पन्ना की कार पर जाकर लगा और उसकी खिड़की का शीशा चूर-चूर हो गया।’
आत्मकेंद्रित, पूर्वाग्रही पन्ना को अफ़्रीकी लोगों के अत्याचार से एक अफ़्रीकी व्यक्ति ही अपनी त्वरा बुद्धि से बचाता है। अच्छे-बुरे लोग सब जातियों, सब नस्लों और सब देशों में होते हैं, अच्छाई या बुराई किसी एक समुदाय की बपौती नहीं है। कहानी एक सकारात्मक नोट पर समाप्त होती है। ‘पंगा’ का शाब्दिक अर्थ’ लंगड़ा-लूला होता है मगर यहाँ इसका अर्थ ‘पंगा लेना’ मुहावरे के रूप में लिया गया है। कहानी में एक स्थान पर आदित्य कहता है, ‘वाए टेक पंगा मम, इफ़ समथिंग हैप्पंस, यू विल सफ़र फ़ॉर लाइफ़।’ इस रूप में कहानी का शीर्षक ‘पंगा’ अर्थपूर्ण है। यह कहानी दिखाती है कि प्रवासी भारतीय की मानसिकता विदेश में रहने पर भी अपनी संकुचित सोच से नहीं उबर पाती है। हम बिना जाने-समझे पूरी की पूरी जाति और नस्ल को अराजक, हिंसक मान लेते हैं। जबकि कोई भी व्यक्ति परिस्थितिवश ही ऐसा व्यवहार करने लगता है।
यह कहानी व्यक्ति के कोरे दंभ को भी प्रदर्शित करती है जिसके तहत हम दूसरों को नीच, पिछड़ा, असभ्य, उदंड और न जाने क्या-क्या मान बैठते हैं। स्वयं को श्रेष्ठ और अन्य को निकृष्ट मानने की प्रवृति से मानव जाति का कितना नुकसान हुआ है उससे हम सब भलीभाँति परिचित हैं। मगर यह कहानी नस्लवाद अथवा जातिवाद को उजागर करने के लिए नहीं पढ़ी जानी चाहिए। मेरी दृष्टि में इस कहानी का मनोवैज्ञानिक पहलू महत्वपूर्ण है। एक उम्र दराज, भीतर से असुरक्षित, और भयभीत स्त्री की मानसिकता की जाँच-पड़ताल के लिए यह कहानी आमंत्रित करती है। इसका अध्ययन इसी रूप में होना चाहिए। यह नारी विमर्श भी रचती है। एक स्त्री अपनी आजादी की घोषणा करने के लिए अपनी कार लेकर निकल पड़ती है। वह निकलती है खिलंदड़े अंदाज में पर शीघ्र ही उसकी असुरक्षा, उसकी आत्महीनता, उपेक्षित होने का दंश उसे दबोच लेता है। उसका निरंतर बोलते रहना उसे ऊपरी-दिखावटी साहस, छद्म हिम्मत का एहसास दिलाता है। क्या यह स्त्री अपना देश की सुरक्षित भूमि छोड़ कर नए देश में रहने से भयग्रस्त है?
दिव्या माथुर की इस कहानी ‘पंगा’ के नाम से उनका एक कहानी संग्रह है जिसके फ़्लैप पर अनिल जोशी की टिप्पणी के यह कहानी इस संग्रह की उपलब्धि है। इस कहानी के विषय में कहानीकार चित्रा मुद्गल का कहना है, ‘खिलंदड़ी टटकी जीवंत भाषा में रपटती संभलती।….कहानी ‘पंगा’ अपनी समाप्ति के बिंदु पर पहुँचकर सही मायनों में आरंभ होती है।’ दिव्या माथुर की यही बददिमाग पन्ना उनकी एक और कहानी ‘अंतिम तीन दिन’ में आध्यात्मिकता की ओर मुड़ जाती है और परमार्थ के कार्य में लग जाती है। क्या यह हारे को हरि नाम है? इस पर फ़िर कभी और…
ऊपर से देखने पर यह कहानी एक हल्की-फ़ुल्की कहानी लगती है, मगर यह कहानी मनोविज्ञान की दृष्टि से देखी जाने की माँग करती है। मनुष्य का अचेतन उसे तनाव, भय, अकेलेपन, निराशा-हताशा से समायोजन के लिए कैसे-कैसे उपाय करता है, अपराध-बोध के एवज में कौन-कौन से रूप धरता है यह इस कहानी में बखूबी देखने को मिलता है। इस रोडरेज कहानी में पन्ना सात-आठ बार दुर्घटना से बचती है और पहले की दुर्घटनाओं की याद भी करती रहती है। फ़्रायड अपने अचेतन की प्रमुखता की धारणा में कहते हैं कि जो व्यक्ति बार-बार दुर्घटना के लिए तत्पर रहता है वह दुर्घटना के लिए अपनी लापरवाही को जिम्मेदार कहता-बतलाता है। हर बार कोई न कोई सफ़ाई देता है। अक्सर ऐसा वह अपने स्वभाव पर परदा डालने के लिए करता है। वह अपनी दुर्घटना की तत्परता की आदत को हल्का दिखाने का प्रयास करता है। जबकि असल में हो सकता है कि यह व्यक्ति अचेतन रूप से खुद को नुकसान पहुँचाना चाहता है। इस तरह अपने अंदर अचेतन की किसी अपराध ग्रंथि के कारण वह स्वयं को सजा देना चाहता है। सोचने की बात है कि पन्ना के अचेतन में कौन-सी अपराध ग्रंथि छिपी हुई है? क्या उसे लगता है कि उसने जीवन सही ढँग से नहीं जीया? क्या उसके अंदर बच्चों की परवरिश करते समय हुई किसी चूक का अपराध-बोध है? क्या पति का अन्य स्त्री में रूचि लेना उसके भीतर अपराध-बोध उत्पन्न करता है? क्या उसे लगता है कि उसकी किसी गलती के कारण वह पति खो बैठी? क्या उसके भीतर यह ग्रंथि है कि वह एक सभ्य स्त्री होकर भी बात-बात पर चिढ़ी रहती है अपशब्दों का प्रयोग करती है? मनुष्य के व्यवहार में उसका अचेतन कौन-सी और कैसी भूमिका निभाएगा इसका विश्लेषण करना आसान कार्य नहीं है। इस कार्य का लेखाजोखा अत्यंत कठिन और जटिल कार्य है। व्यक्ति अपने कामों को सदैव उचित ठहराता है, अपने गलत कार्य का भी कोई न कोई औचित्य ढूँढ़ लेता है। वह सोचता और कहता है कि उसे अपने लक्ष्य, प्रेरणा और इच्छाएँ पूरी तरह मालूम हैं। वह अपनी प्रेरणा, लक्ष्य और इच्छाओं को तर्क द्वारा समाज सम्मत सिद्ध भी करता रहता है जबकि अचेतन कौन-सी करवट लेगा कौन-से खेल खेलेगा बताना मुश्किल है। पन्ना को अपने जीवन का उद्देश्य भी ज्ञात नहीं है।
इसी तरह पन्ना का बात-बात पर झल्लाना, उग्र होना भी उसकी हताशा-निराशा को प्रकट करता है। कुंठित व्यक्ति अपनी विफ़लता को उग्रता से दिखाता है या फ़िर तर्क द्वारा बराबर सही सिद्ध करने का प्रयास करता है। यदि सामने वाला कमजोर हुआ तो खिन्न व्यक्ति उग्र व्यवहार करता है और यदि सामने वाला ताकतवर हुआ तो व्यक्ति तर्कपूर्ण तरीके से स्वयं को सही सिद्ध करने की कोशिश करता है। इसे मनोविज्ञान की भाषा में ‘डिसप्लेस अग्रेशन’ कहते हैं। असल में वह सामने वाले पर आक्रमण करना चाहता है परंतु अपनी संभावित हानि के विचार से ऐसा करता नहीं है। पन्ना भी जब देखती है कि सामने वाला ड्राइवर उससे कमजोर है तो उसकी भाषा और व्यवहार उग्र हो उठते हैं। वह सामने वाले पर हावी होना चाहती है। लेकिन जब दूसरा व्यक्ति (ड्राइवर) किसी वजह से शारीरिक अथवा आर्थिक रूप से उससे उच्च होता है तो वह समझौते और तर्क पर उतर आती है। जरूरत पड़ने पर माफ़ी भी माँग लेती है।
इस कहानी में बाजार है, टीवी है बाहरी टीमटाम है, रोड है, रोडरेज है। मगर यह कहानी मात्र बाहर की यात्रा के विश्लेषण से पूरी तरह नहीं समझी जा सकती है। इसे अच्छी तरह समझने के लिए भीतर की, अचेतन की यात्रा करनी आवश्यक है। कहानी की अंदुरूनी परतें खोलने के लिए मनोविज्ञान का सहारा लेना जरूरी है। यह कहानी एक भारतीय मगर प्रवासी स्त्री की मानसिक बनावट और उसके व्यवहार को समझने में सहायता प्रदान करती है। उसके अचेतन के संघर्ष, उथल-पुथल, उसके भय, उसकी आकांक्षाओं-अभिलाषाओं, उसके तनाव और उस तनाव से समायोजन के लिए किए गए उसके जाने-अनजाने व्यवहार (डिफ़ैंस मैकेनिज्म) से पाठक को परिचित कराती है। स्त्री विमर्श रचती यह कहानी सोचने पर मजबूर करती है कि कौन-से पारिवारिक-सामाजिक कारण स्त्री को इस तरह का व्यवहार करने के लिए प्रेरित करते हैं? क्यों वह कार में सुरक्षा और आजादी खोजने को विवश हो जाती है? क्यों निरंतर बिना बात बोलती रहती है? क्यों वह इतनी नकारात्मक सोच लिए हुए है? दूसरों को स्टुपिड ईडियट कह कर क्या सिद्ध करना चाहती है? उसके अचेतन की कौन-सी ग्रंथियाँ उसे सदैव तुलना करने के लिए उकसाती हैं? सामने वाले को क्यों वह सदा अपने से हीन देखना चाहती है? मनोविज्ञान ही इन प्रश्नों के उत्तर सटीक ढ़ँग से दे सकता है। इन्हीं प्रश्नों को मनोविज्ञान की दृष्टि से इस आलेख में खोलने-समझने की चेष्टा की गई है। इन प्रश्नों के उत्तर मनोविज्ञान के साथ-साथ समाजशास्त्र को भी देने होंगे।
(संदर्भ:माथुर, दिव्या, पंगा तथा अन्य कहानियाँ, मेधा बुक्स, दिल्ली।)
डॉ. विजय शर्मा
जमशेदपुर, भारत