दिव्या जी को जितना मैंने जाना
मिलना मिलाना कहते हैं ईश्वर के हाथों का खेल है और जीवन के किस मोड़ पर किसी ऐसी शख्सियत से भेंट करवा दें कि लगे जैसे आपको तो बहुत पहले से जानते हैं| प्रवासी हिंदी साहित्य लेखन की प्रतिनिधि साहित्यकार जिनका रचना संसार बहुआयामी है, सुश्री दिव्या माथुर जी से पहली बार मिलना मेरे लिए किसी अपने से लम्बे समय के बाद मिलने जैसा ही रहा| रचनाएँ अपने लेखक को अपने पाठक के इतना नज़दीक ला देती हैं कि लगता है, यह तो मेरे अपने ही हैं| प्रवासी साहित्य और लेखन में एक ऐसा नाम जिसके बिना उसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती, ऐसी दिव्या जी से उनके साहित्य के अलावा ईमेल, फेसबुक आदि के माध्यम से परिचय पहले से रहा लेकिन आमने-सामने वाली पहली मुलाकात भोपाल में “विश्व रंग” के दौरान हुई। भले ही वह पहली मुलाकात प्रत्यक्ष रूप से रही हो पर कभी लगा ही नहीं कि मैं उन से पहले नहीं मिली। मैंने उनकी एक छवि अपने मन में गढ़ी थी और जब पहली बार सामने मिलीं तो जैसा सोचा था उससे और आगे ख़ास व्यक्तित्व के रूप में दिव्या जी से परिचय हुआ। महसूस हुआ कि शायद जिसका कद जितना बड़ा होता है, नम्रता भी उसी अनुपात में बढ़ती जाती है| वर्तमान में स्वप्रचार वाली पीढ़ी चारों ओर छाई हुई है और ऐसे दौर में जब हम दिव्या जी जैसे लोगों से मिलते हैं तो लगता है समाज को बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है|हिंदी साहित्य को इतना कुछ समर्पित करने वाली दिव्या जी हमेशा स्वयं को पीछे ही रखती हैं|यह गुण बहुत ख़ास और वर्तमान में न के बराबर लोगों में दिखाई देता है|विश्व रंग महोत्सव के दौरान उनके साथ प्रवासी कथा लेखन विषय पर संगोष्ठी चर्चा में मंच साझा करने का अवसर मिला और उनकी आत्मीयता और साथ पाने का सिलसिला भी|
उन्होंने अपने वातायन मंच के समूह से मुझे जोड़ा और धीरे-धीरे उनकी अन्य गतिविधियों के बारे में भी मैं अधिक रू ब रू होने लगी। सिंगापुर से लंदन की गोष्ठियों, गतिविधियों की सूचना के साथ ही दिव्या जी के व्यक्तित्व के अलग-अलग पहलुओं पर नज़रें टिकने लगीं| संदेशों के माध्यम से अब तो बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया था और बड़ी जल्दी ही दूसरी बार दिल्ली के हिंदी सम्मेलन में हम दोनों पुनः मिले, साथ ही इस बार इन्द्रप्रस्थ कॉलेज के अतिथिगृह में हम दोनों साथ रुके थे। उनके साथ चाय पीना और चाय पर चर्चा करना मुझे खूब भाया| भारतीय संस्कृति, राजनीति कई ऐसे विषय हैं जिन पर हम एक मत ही रहते हैं और यह मुझे उनके और करीब ले जाता है| मैं हमेशा सोचती थी कि दिव्या जी इतना सब कैसे कर लेती हैं। नियमबद्धता मुझे लगता है कि दिव्या जी की रग-रग में समायी हुई है और इसी कारण इतना कुछ उन्होंने लिखा है, जिया है, ब्रिटेन में हिंदी साहित्य को एक अलग मुक़ाम तक पहुँचाया है। दिल्ली सम्मलेन से लौटने के बाद महीना डेढ़- महीना भी नहीं बीता होगा कि कोविड का प्रकोप शुरू हो गया। ऐसा लगा जैसे अब दुनिया बिल्कुल थम जाएगी| जो जहाँ है वो वहीं सिमटकर रह जाएगा। मिलना-जुलना तो दूर की बात है, हम एक-दूसरे की शक्ल भी नहीं देख पाएँगे। कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी है और कोविड काल की सबसे बड़ी उपलब्धि अगर साहित्य जगत में देखी जाए तो ज़ूम के माध्यम से गोष्ठियों का आयोजन है। कब किसी ने सोचा था कि इतनी आसानी से पूरी दुनिया वैश्विक मंच बन भिन्न विषयों पर चर्चा करेगी| दिव्या जी ने वातायन मंच की ओर से ऑनलाइन मिलन का जो दौर शुरू किया वह लगातार अभी तक बरकरार है। और इस साप्ताहिक संगोष्ठी की संकल्पना ने दुनिया के भिन्न कोनों में बसे हुए हम प्रवासियों को इस प्रकार एक-दूसरे के सामने ला दिया, एक-,दूसरे से जोड़ दिया कि आज कई ऐसे लोग हैं जिनसे प्रत्यक्ष रूप से मुझे मिलने का अवसर नहीं मिला है लेकिन जब कभी बात होती है तो लगता है मैं तो उनको बरसों से जानती हूँ और इसका पूरा श्रेय मैं वातायन मंच, वैश्विक हिंदी परिवार आदि को देना चाहूँगी।
दिव्या जी का व्यक्तित्व ऐसा है कि वे सभी को जोड़ते हुए लेकर आगे बढ़ना चाहती हैं और इसी क्रम में उन्होंने सिंगापुर संगम हिंदी पत्रिका और संगम सिंगापुर हिंदी संस्था को वातायन संगोष्ठी के लोकगीत/गीत शृंखला में साथ लेकर चलना प्रारंभ किया। संकल्पना से लेकर संयोजन तक ज़्यादातर कार्य स्वयं उनके माध्यम से ही होता है पर कभी इस बात को हावी नहीं होने दिया कि वे ही सब कुछ करती हैं बल्कि उन्होंने जिस संस्था को भी साथ जोड़ा है, उसे उतना ही महत्त्व देती हैं। लोक गीत वह विधा है जो पसंद तो सबको आती है पर पीछे लौटकर देखना, ढूँढना, उस पर कार्य करना जिस प्रकार के समय की माँग करता है वह हर कोई नहीं कर पाता है। भारत की कई बोलियों पर केंद्रित संगीतमय कार्यक्रम चाहे भोजपुरी हो, अवधी हो या अन्य बोलियाँ या भाषाएँ हों सभी कार्यक्रम और विषय में विविधता, गायकों में भी विविधता उनके केंद्र में रहे हैं। जिसकी रचनाओं को वैश्विक संवेदनाओं की संवाहक कहा जाए वह भला ऑनलाइन संगोष्ठियों में विविधता, नियमितता, स्तरीय कार्यक्रमों की शृंखला को कैसे अनदेखा कर सकती हैं| उनके स्वभाव में बालकों सी उत्सुकता उनके हर कार्यक्रम को इतना बेहतर कर देती है| दिव्या जी के माध्यम से वातायान के मंच से पिछले ढ़ाई तीन वर्षों से लगातार चल रही गोष्ठियों में जैसा पहले भी कहा गया है सबसे बड़ी बात विविधता, कार्यक्रम का स्तर ऊँचा होना और नियमितता है| उनके आदर्श या पूर्णतावादी दृष्टिकोण के कारण विदेशों में सबसे प्रतिष्ठित मंच के रूप में वातायान की ख्याति है| कई बार स्वयं को उस संगोष्ठी का हिस्सा महसूस करते हुए भी सम्मान महसूस होता है।
प्रत्यक्ष मुलाकात से बहुत पहले दिव्या जी का सान्निध्य सिंगापुर संगम को मिला और सिंगापुर संगम पत्रिका के लिए उन्होंने अपनी कहानियाँ सहर्ष भेजीं और यह उस समय की बात है जब पत्रिका अपने नए रूप में थी। अगर वे चाहतीं तो कह सकती थीं कि उनकी रचनाएँ इस युवा पत्रिका को संभवत कुछ वर्षों बाद देना चाहेंगी लेकिन किसी भी प्रकार का दर्प दिव्या जी में नहीं है और यही उन्हें अन्य लोगों से अलग करता है।
दिव्या जी का साहित्य बहुकोणीय है| उनकी कई कहानियाँ प्रवासी जीवन की विडंबनाओं को दिखाती कई बार विदेश के प्रति मोह भंग भी उपस्थित करती हैं| रचनाओं के किरदारों के नाम कहीं भले अंग्रेज़ी मूल के हों जैसे एडम और ईव पर कथानक अपने क्रम में उन्हें हमारे आस-पास के समाज का ही महसूस करवाता है|स्त्री-पुरुष के संबंधों में द्वंद्व और उस उपजे द्वंद्व के परिणाम को भी उन्होंने खूब निखारा है|उनकी कहानियाँ, कविताएँ, उपन्यास प्रवासी साहित्य का स्तम्भ हैं|दिव्या जी बहु-पुरस्कृत लेखिका हैं, साहित्यकार, अनुवादक और सम्पादक के रूप में आठ कहानी-संग्रह, आठ कविता-संग्रह, एक उपन्यास, शाम भर बातें और छह सम्पादित संग्रह उनके प्रकाशित हैं। उनकी कई रचनाएँ भारतीय विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं, उन पर शोध कार्य किये जा रहे हैं और किसी भी रचनाकार के लिए ऐसी उपलब्धियां सबसे ख़ास होती हैं|हमारे दिल्ली प्रवास के समय भी मैंने देखा था कि कई विद्यार्थी उनसे अपने शोध के सिलसिले में बात करने को बेचैन थे|उनका साहित्य पढ़ते हुए भारत और विदेश को प्रवासी नज़रिए से समझने व सीखने का मौक़ा मिलता है| समाज को भीतर तक परत दर परत उघड़ने का अवसर उपस्थित होता है|
दिव्या जी से मिलना, उनको जानना मेरे लिए उन ख़ास घटनाओं में से है जिन पर बार-बार पीछे मुड़कर देखने की, हर्षित होने की इच्छा होती है|दिव्या जी आप इसी तरह सक्रिय रहें और हम सबको जोड़ती रहें|
डॉ. संध्या सिंह
हिंदी व तमिल भाषा अध्यक्ष
सेंटर फ़ॉर लैंग्विज स्टडीज़
नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर
सिंगापुर