पूर्व-पक्ष
दिव्या माथुर से मेरा परिचय लगभग ढाई दशक पूर्व हुआ और इसका श्रेय डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी को है जो उस समय ब्रिटेन के भारतीय उच्चायुक्त थे और हिंदी के प्रचार-प्रसार में सक्रिय थे। दिव्या के दूसरे काव्य संकलन ‘ख़याल तेरा’ का आमुख उन्होंने ही लिखा था इसलिए वह उनकी काव्य प्रतिभा से परिचित थे। इसी संदर्भ में उन्होंने मुझे दिव्या माथुर के काव्य-संग्रह ‘रेत का लिखा’ को प्रकाशित कराने की ज़िम्मेदारी सौंपी।
उनके काव्य संग्रह ‘रेत का लिखा’ की भूमिका में मैंने लिखा था कि दिव्या माथुर किसी एक विषय को केंद्र में रखकर उसके विविध पक्षों तथा रूपों को अपनी काव्यात्मक दृष्टि एवं संवेदना से आत्मसात् करके उन्हें जीवंत शब्दों में अभिव्यक्त करने की क्षमता रखती है; यह उनकी सर्जनात्मक कल्पना की घनीभूतता का प्रमाण है। उनके अन्य काव्य-संग्रहों में भी विषय तथा अनुभूतियों की इसी एकाग्रता का सौंदर्य मिलता है।
दिव्या माथुर की सर्जनात्मक प्रतिभा का उदय यद्यपि कविता से हुआ किंतु आज उनकी पहचान एक वरिष्ठ कहानीकार के रूप में अधिक है। उनकी पहली कहानी ‘प्रतीक्षा’ थी जो शायद 1965-66 में लिखी गई थी, जो एक बाल-विधवा की त्रासदी की मर्मस्पर्शी कहानी है, जिसमें बिज्जी के दर्दनाक जीवन का उद्घाटन करती है। लेखिका की आयु उस समय 14-15 वर्ष के आसपास होगी, अत: लेखिका की अनुभूति की गहनता तथा सामाजिक सरोकार की दृष्टि को समझा जा सकता है। दूसरी कहानी ‘वह काली’ थी जिसे दिल्ली विश्वविद्यालय की एक कहानी प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार मिला। लेखिका अपने शर्मीलेपन से पुरस्कार-समारोह में नहीं गई और कुछ समय बाद जब मुख्य अतिथि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना से भेंट हुई, जो लेखिका को ही ‘वह काली लडक़ी’ समझे बैठे थे तो वे बहुत प्रभावित हुए बिना न रह सके, उन्होंने दिव्या को लेखन जारी रखने की प्रेरणा दी। इसके बाद ‘सदा सुहागिन’ कॉलेज पत्रिका में छपी जो भारत-पाक युद्ध के समय एक गुमशुदा सैनिक की पत्नी पर होने वाले अत्याचार की कहानी है। फिर उनकी 1972-78 के दौरान ‘नवभारत टाइम्स में ‘आत्महत्या के पहले’ तथा ‘आक्रोश’ दो कहानियाँ प्रकाशित हुईं और उसके बाद अचानक वे एक लंबे समय के लिए लेखन के पटल से गायब हो गयीं।
दिव्या के पहले कहानी संग्रह ‘आक्रोश’ में उनकी भारत में लिखी गयी कहानियाँ सम्मिलित थीं, जो उनकी मौलिक गहन-दृष्टि और उनके भारतीय सरोकारों से परिचित कराती हैं। 2010 में ‘पंगा’ तथा 2011 में ‘2050’ कहानी संग्रहों के प्रकाशित होते ही दिव्या ने प्रवासी कहानीकारों में एक महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया। ‘वैलेंटाइंस डे’ कहानी है तो भारतीय चरित्रों की किंतु रंगमंच है लंदन, मदन की प्रेमिकाएँ उसके छैलेपन को जान गई हैं, बड़ी मुश्किल से एक पुरानी प्रेमिका उसके साथ शाम गुज़ारने को राज़ी हो जाती है किंतु यह ड्रामा वह अपनी सहेलियों के साथ मिल कर मदन को सबक सिखाने के लिए करती है। ‘नीली डायरी’ पुरुष की स्त्री को भोगने की चरमावस्था की कहानी है। रमन रिजवान पंद्रह सालों में अठानवें औरतों के साथ सो चुका है। संयोग से उसके पड़ोस में कपूर परिवार की स्त्रियाँ – अधेड़ रीमा, अल्हड़ बेटी ज़ारा तथा नई नवेली बहू स्नेहा – तीनों ही रमन के जाल में फँसने को तैयार हैं।’बचाव’ कहानी में इंग्लैंड भागकर गई भारतीय यौवना निंदिया अपने बौस के बलात्कार के प्रयास पर खौलता पानी डालकर भाग खड़ी होती है।
दिव्या माथुर की कहानियों में फैंटेसी की भी अद्भुत प्रवृत्ति है, जो यथार्थ न होकर भी जीवन के किसी अकल्पनीय पक्ष का उद्घाटन करता है। फैंटेसी रचनाकार की दुर्बलता नहीं है, उसकी कल्पनाशीलता का परिणाम है, वह पाठक को एक नए परिदृश्य, एक नई संवेदना तथा एक नए संसार से साक्षात्कार कराती है। ‘पुरू और प्राची’ एक ऐसी ही कहानी है, जिसमें बीकानेर के एक मारवाड़ी व्यापारी और उसके अमेरिका निवासी पुत्र तथा उसकी विदेशी पत्नी रुडक़ी स्थिति प्राची स्पेस सेंटर के कैपसूल से चाँद की यात्रा करते हैं, जिसके बाद नारायण परिवार का जीवन ही बदल जाता है, व्यापार आसमान छूने लगता है। कहानी मनुष्य की महत्त्वाकांक्षा और लिप्सा का रोचक वर्णन करती है। ‘2050’ में एक ऐसे मानवीय समाज की कल्पना है जहाँ ‘हाई आई-क्यू’ वाले पति-पत्नी ही संतान पैदा कर सकते हैं, तिस पर प्रवासीय जोड़ों को विदेशी स्पर्म से संतानोपत्ति के लिए बाध्यता। परिषद् पति-पत्नी की भावनाएँ कुचलती है, गर्भपात कराती है, आत्महत्या की अनुमति देती है और विरोध को कुचलती है। कहानी एक फैंटेसी है, किंतु यदि इसके सत्य होने की संभावना है तो यह भयभीत करती है। कहानी की यह फैंटेसी उसे बड़ी कहानी बनाती है। दिव्या माथुर की ‘हिंदी@स्वर्ग.इन’ कहानी भी एक फैंटेसी है, लेकिन वह दूसरे प्रकार की। इसमें दिव्या स्वयं एक पात्र हैं। वह एक कार दुर्घटना के बाद स्वर्ग पहुँचती हैं।वहाँ उनकी भेंट कमलेश्वर, लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, महावीर शर्मा, मनोहरश्याम जोशी, कन्हैयालाल नंदन, प्रभा खेतान आदि से होती है, वाद-विवाद होता है। प्रवासी साहित्य की उपेक्षा पर चोट करती हुई दिव्या कहती हैं,“आप जैसे महान लेखकों के पास समय ही नहीं हम लेखकों को ठीक से पढऩे-सुनने का; एक-आध कहानी और कविता पढक़र अपने को प्रवासी-एक्सपर्ट कहलवाने लगते हैं।” कहानी में नई संवेदना तथा नई तकनीक का प्रयोग है।
एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में एक अलग पहचान को स्थापित करती हुई दिव्या की कहानियों में जीवन का वैविध्य है, सघन संवेदना है और अभिव्यक्ति में प्रेषणीयता है। कहानीकार के रूप में वे भारतीयता एवं भारतीय जीवन-मूल्यों की स्थापना के प्रति आग्रहशील नहीं हैं, किंतु वे बड़ी तटस्थता के साथ अपने भारतीयपन को उजागर कर देती हैं। उनमें एक बोल्डनैस है, फैंटेसी का सौंदर्य है, जीवन-यथार्थ की मार्मिकता है और सच यह भी है कि उनके कहानीकार में अनछुए प्रसंगों तथा अलिखित जीवन-छवियों के चित्रण की और उन्हें प्रेषणीय भाषा में अभिव्यक्त करने की क्षमता है। हिंदी की मुख्यधारा में भी उनके उचित स्थान को अब कोई चुनौती नहीं दे सकता।
डा. कमल किशोर गोयनका,
(पूर्व प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय, लेखक, समीक्षक, प्रेमचंद और प्रवासी हिन्दी साहित्य के विशेषज्ञ )