दिव्या माथुर की कहानियों में संवेदना और शिल्प

दिव्या माथुर की कहानियों में संवेदना और शिल्प

दिव्या माथुर वर्षों से साहित्यिक रचना में संलग्न हैं। उनकी रचनात्मक प्रतिभा के विविध आयाम कविता, कहानी और उपन्यास की विधाओं में प्रतिफलित हुए हैं।
द क्राफ्ट ऑफ फिक्शन में पर्सी लबक ने ‘कथ्य का अधिकतम प्रयोग’ द्वारा संवेदना और शिल्प के संबन्ध का स्पष्टीकरण किया है। लेखक का अपना रचना-शिल्प होता है जो उसे सबसे अलग करने वाला और उसके व्यक्तित्व की छाप से युक्त होता है। शिल्प की सार्थकता उसकी नवीनता में नहीं वरन विषयानुरूपता में निहित है। जिस प्रकार से पतीली में पकाए जाने वाले चावल के कुछ दाने निकाल कर देखने से यह मालूम हो जाता है कि पतीली के सारे चावल पके या नहीं, कुछ उसी तरह से उनकी कुछ चुनी हुई कहानियों की विवेचना करके उनकी रचना प्रतिभा, लेखन की यात्रा और साहित्यिक उपलब्धि पर प्रकाश डाला जएगा।
दिव्या माथुर की कहानियों का रचनाकाल एक बहुत लम्बी अवधि को समेटा हुआ है। इस दौरान संवेदना की विविधता की दृष्टि से उन्होंने लम्बी यात्रा की है। यह यात्रा बौद्धिक और भौतिक दोनों स्तरों पर रही है। एक तरफ़ भारत से आकर इंग्लैंड में अपना घर बनाने के अनुभवों ने उनके अनुभव फलक का विस्तार किया दूसरी ओर भारतीयता के संस्कार की गहरी पकड़ ने उन्हें जीवन मूल्यों की धरती से जोड़े रखा है। उनकी मानसिकता पर स्वाभाविक रूप से दोनों संस्कृतियों की छाप दिखाई देती है पर ये कहानियाँ भारतीय संस्कारों से जुड़ी होकर भी नॉस्टैल्जिया की कहानियाँ नहीं हैं। उनके पात्रों की समस्या अपने को नये परिवेश में स्थापित करने की है न कि पीछे मुड़ कर देखने की। इस दौरान उन्होंने अपने परिवेश के जीवन की विसंगतियों को संवेदनशील दृष्टि से पहचान कर आत्मभोगी की सी अंतरंगता सहित कहानियाँ बुनी हैं। उनकी कहानियों के विषय विशद हैं।


संवेदना और शिल्प के संतुलित प्रयोग से लिखी गई यथार्थवादी कहानी का एक उत्कृष्ट उदाहरण ‘बचाव’ है। ‘भारतीय और पाश्चात्य संस्कृतियों की मानसिकता को दिव्या ने निंदिया के चरित्र में बखूबी से चित्रित किया है। दिव्या की कहानी कहने का अंदाज़ एक निर्लिप्त तटस्थता का है। भारतीय समाज के चित्रण में वे सामाजिक रूढ़ियों का ज्यों का त्यों वर्णन करती हैं। परिवार में बेटी का जन्म एक अभिशाप समझा जाता है और बेटी एक बोझ! दहेज़ प्रथा के बोझ के नीचे ना जाने कितने माता-पिता के अरमान दफ़न हो जाते! ‘अभिनय’ कहानी आधुनिक पति-पत्नी के सम्बन्ध की संश्लिष्टता को दर्शाती है। सुखी दाम्पत्य जीवन एक ऐसी मृग मरीचिका है, जिसकी खोज में पूरा जीवन बिताने पर भी अंत में निराशा ही हाथ लगती है।
संवेदना की विविधता और कल्पना की अतिशयता पर अधारित कहानियों में ‘2050’ भविष्य की फैंटेसी पर लिखी गई कहानी है, जिसमें दिव्या की सर्जनात्मक प्रतिभा का एक नया आयाम प्रस्तुत है। कहानी का प्लॉट भविष्य के ब्रिटेन के सामाजिक रूप पर केंद्रित है। दिव्या की कल्पना का भावी ब्रिटिश समाज जिसमें गोरों का प्रभुत्व होगा केवल चौंकाने वाला ही नहीं भावी पीढ़ी के अस्तित्व की सुरक्षा के प्रति चिंतित करने वाला है।
संवेदना की विविधता का एक और प्रयोग ‘गूगल’ कहानी में मानवेतर जीवों की मानसिकता की कल्पना में है। चूहों पर प्रयोग करने वाले वैज्ञानिक कभी यह नहीं सोचते कि उनके भी मन होते हैं। कहानी का अंत अत्यंत मार्मिक होने के साथ ही समाज मे वृद्धजनों के अधिकार, पशु-संरक्षण तथा पशुओं पर किये जाने वाले वैज्ञानिक प्रयोग की नैतिकता पर गंभीर नैतिक प्रश्न उठाता है। ‘कथा सत्यनारायण की’ और ‘एक था मुर्गा’ कहानियों में पारम्परिक कथा और समानांतर कहानी लिखने का सफल प्रयोग देखने को मिलता है। सत्यनारायण की कथा के वाचन से सूत्र पकड़कर सुशीला, रूपा और निधि की कहानी बुनी गई है।
संवेदना की दृष्टि से समृद्ध और शिल्प की दृष्टि से सधी हुई दिव्या की ये कहानियाँ पात्र, परिवेश, पाठक और कहानीकार को एक साथ जोड़ती हैं। साधारण सी लगने वाली घटनाओं द्वारा गंभीर समस्याओं को रेखांकित करने की कुशलता, उनकी विकसनशील सर्जनात्मकता के उत्कृष्ट उदाहरण हैं जो उनको मुख्य-धारा की महत्वपूर्ण कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित करती हैं। भावना और चिंतन के संयोग से लिखी कहानियों का साहित्य-बोध तथा समसामयिक जीवन की विसंगतियों को रेखांकित करने में सक्षम सांस्कृतिक बोध उनकी कहानियों की सफलता है।

 

डॉ अरुणा अजितसरिया एम.बी.ई,

केम्ब्रिज इंटरनेशनल के हिंदी विभाग से अंतर्राष्ट्रीय मुख्य परीक्षक, उच्चायोग-लंदन द्वारा जॉन गिलक्रिस्ट हिन्दी शिक्षण सम्मान से पुरस्कृत और समीक्षक।

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