वरदान

वरदान

निर्वाक है वाचक, लेखनी डरी हुई है,

अंधेरा रात का दिन में भरी हुई है

बहुतेरे प्रश्न उमड़ता, उत्तर मांगता हूँ,

जड़ता विनाश को लेखनी दौड़ाना चाहता हूँ।

गले में फंसी आवाजें जुबान दब रही है,

आपसी भाई चारे की लाशें निकल रही हैं

खुला आसमान सांस चाहता हूँ,

लेखनी में जोर और बन्दूके कमज़ोर चाहता हूँ।

शहीदों ने लहू बहाए,तू लाज इनका रख ले।

स्वदेश हित हेतु पुनः बलिदान माँगता हूँ,

संघर्ष शक्ति लेखकों में आये, वरदान मांगता हूँ।

लेखक, लेखनी मत छोड़,

लेखक, लेखनी मत छोड़,

सत्य बता झूठ को तोड़,

सच का मुँह ना फोड़,

मोह अगर कोई दे दे तो भी,

सच का साथ कभी ना छोड़,

लेखक, लेखनी मत छोड़।

सत्य का संगत संकट से है

पर,इसका साथ न छोड़,

बहकावे में तुम आओगे तो,

लेखनी की होगी तोड़ मरोड़,

सत्य की नींव लगाया,

सच्चाई कि स्याही में डुबोया

सच को डूबने न दो तुम,

मिथ्या का चाहे हो कितना भी शोर,

लेखक, लेखनी मत छोड़।

न हिंसा हो न रक्त बहे

तलवार को यह रोके रहे

अतः,लेखक तू लेखनी मत छोड़।

रजनी दुर्गेश
उत्तराखंड, भारत

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