सोंधी मिट्टी का बिहार

सोंधी मिट्टी का बिहार

दिशा – दिशा में लोकरंग का तार-तार है,
महका-महका सोंधी मिट्टी का बिहार है
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कहीं गूंजते आल्हा ऊदल के अफसाने,
कजरी, झूमर और फगुआ के मस्त तराने,
चौपालों में चैता घाटों की बहार है।
उपर्युक्त बिहार गीत की रचयिता डाॉ शांति जैन ने अपनी रचना के माध्यम से एक आम बिहारी के हृदय में, अपने प्रदेश के इतिहास के प्रति, बसे उद्गार का बहुत ही सजीव और सच्चा चित्रण किया है।
बहुत बार यह बात दुहराये जाने के बावजूद भी, एक बिहारी होने के नाते मैं यह बात कहने से अपने आप को रोक नहीं पाऊंगी कि, भले ही आज की तारीख में बिहार की पहचान एक पिछड़े हुए राज्य के रूप में होती हो लेकिन कला, संस्कृति, साहित्य और ज्ञान के क्षेत्र में अपना स्वर्णिम इतिहास समेटे बिहार अखिल विश्व का पुरोधा रहा है।
नालंदा विश्वविद्यालय का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान, देशरत्न डॉ राजेंद्र प्रसाद की मेधा, शून्य की खोज, बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति से लेकर साहित्य के क्षेत्र में कालिदास, विद्यापति, रामधारी सिंह दिनकर, फणीश्वर नाथ रेणु, गोपाल सिंह नेपाली, बाबा नागार्जुन, रामवृक्ष बेनीपूरी, पद्मभूषण राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह, पद्मभूषण शिवपूजन सहाय, कलक्टर सिंह केसरी, आरसी प्रसाद सिंह, रामगोपाल शर्मा ‘रूद्र’, केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’, रॉबिन शॉ पुष्प, पद्मश्री डॉ उषा किरण खान, नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार, नरेश जी, पद्मश्री डॉ रविंद्र राजहंस,प्यारे मोहन सहाय, गोपी वल्लभ सहाय, आलोक धन्वा, ध्रुव गुप्त, मदन कश्यप, अरूण कमल, सतीश राज पुष्करणा, भावना शेखर, गीता श्री, डॉ शांति जैन इत्यादि अनगिनत नाम हैं जिन्होंने बिहार की यशगाथा में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
‘आजादी के बाद बिहार में हिंदी लेखन’.. ऐसे विषय पर लेख लिखना एक बहुत ही मुश्किल और जिम्मेवारी भरा काम है, क्योंकि बिहार की सारी प्रतिभाओं के विषय में, चाहे वे आजादी के बाद के ही क्यों न हों, अगर लिखने बैठा जाय तो निश्चय ही एक मोटी पुस्तक तैयार हो जाएगी, फिर भी कुछ न कुछ बाकी रह जाएगा कहने को…। फिर भी मेरी कोशिश रहेगी कि मैं राष्ट्र कवि दिनकर से लेकर बिहार के आज तक की साहित्यिक गतिविधियों को, अपनी योग्यता और सीमाओं के अंदर जो भी थोड़ा बहुत जानती हूँ या जो जानकारी एकत्रित की है, उसे इस लेख के सीमित दायरे में समाहित कर सकूं।
पहला नाम ‘जनकवि’ जिन्हें ‘राष्ट्रकवि’ के नाम से भी जाता है और जो बिहार ही नहीं वरन् पूरे भारत के साहित्यिक आकाश में सूर्य के समान दैदिप्यमान नक्षत्र थें, हैं और रहेंगे… यथा नाम तथा गुण…. श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (23 सितंबर 1908- 24 अप्रैल 1974, जन्मस्थान – बेगूसराय) का लेना अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। यूं तो दिनकर की ख्याति एक वीर रस के कवि के रूप में ही है जैसा कि 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में भारत की हुई हार के बाद अपनी काव्य रचना ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में उन्होंने कहा :
‘कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,
हम बिना लिए प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,
…………………………
जब तक जीवित हैं क्रोध नहीं छोड़ेंगे।
परंतु वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। काव्य के साथ उन्होंने अत्यंत सार्थक गद्य और निबंध की भी रचना की। कहा जाता है कि दिनकर का गद्य उनके दिमाग को और उनकी कविताएँ उनके दिल को प्रतिबिंबित करते हैं।
अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में उनका उत्कर्ष एक दार्शनिक के रूप में हुआ है जिसमें उन्होंने धर्म को सभ्यता का सबसे बड़ा मित्र बताया है और साथ में यह भी कि संस्कृति, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भारत एक देश है।
दिनकर जी एक बात जो सबसे ज्यादा चकित करती है वह है कि, वह कभी सीमाओं में नहीं बधें या दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि वे कभी भी एक ध्रुव को पकड़ कर नहीं रहे। समय और परिस्थितियों के अनुसार कभी वह लोगों की भावनाओं को ‘क्रोध नहीं छोड़ेंगे’ जैसे बीज मंत्र से भड़काने की कोशिश करते हैं, तो कभी ‘कुरुक्षेत्र’ में वे मानवता के धर्म का उल्लेख करते दिखाई देतें हैं,
‘दीपक का निर्वाण बड़ा कुछ श्रेय नहीं जीवन का,
है सद्धर्म दीप्त रख उसको हरना तिमिर भुवन का।’
साहित्य अकादमी, पद्म विभूषण, ज्ञान पीठ पुरस्कार से सम्मानित इस वीर रस के कवि /दार्शनिक ने अपने खंड काव्य ‘उर्वशी’ (1961) में अपने श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति से सारी दुनिया को चौंका दिया जब पुरुरवा के माध्यम से रूपसी के आगे प्रणय निवेदन करते हुए कहलवाया,
‘मैं तुम्हारे वाण का बींधा हुआ खग,
वक्ष पर धर शीष मरना चाहता हूं।’
और जिसके लिए उन्हें 1972 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
उस क्रांतिकारी, ओजस्वी और राष्ट्रवादी कवि जिनके विषय में नामवर सिंह ने कहा कि दिनकर जी अपने समय के सचमुच सूर्य थे, जिनकी कालजयी रचनाएं अपने युग और काल की सीमाएं लांघ कर आज भी उतनी ही सार्थक और सामयिक हैं कि वे कविताओं से आगे बढ़कर लोगों की जुबान पर लोकोक्तियों की भांति चढ़ गईं हैं और गाहे बगाहे हर कविता प्रेमी उसे दुहराता ही दुहराता है, उदाहरण के तौर पर :
‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल ब्याध्
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।’
या फिर
‘जला अस्थियां बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम आज उनकी जय बोल।’
दिनकर रचित पंक्तियाँ :
‘सदियों से ठंढ़ी, बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज
पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।’
तो बिहार के संपूर्ण क्रांति के आंदोलन में क्रांति गीत बन गई थी।आजादी के पहले और आजाद भारत में जनता के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ दिनकर की लेखनी आजादी के बाद लगभग एक चौथाई सदी तक हिंदी साहित्य को समृद्ध करती रहीं।
वैद्यनाथ मिश्र, उर्फ यात्री, फक्कड़ अक्खड़,घुमक्कड़ औघड़ बेबाक, बेतरतीब, कबीर की विचारधारा का वाहक, प्रगतिवादी और सच्चे अर्थों में जनकवि, बाबा नागार्जुन (30 जून 1911- 5 नवंबर 1998, जन्मस्थान – मधुबनी) का नाम लिए बगैर बिहार की साहित्यिक विरासत पर विमर्श अधूरा रह जाएगा।
1945 ईस्वी के आसपास साहित्य में कदम रखने वाले बाबा नागार्जुन की कलम जब भी उठी या तो समाज के तात्कालिक परिस्थितियों या फिर शासक वर्ग के नाकामियों या उनके आमजन विरोधी भावनाओं का बिना किसी लाग लपेट के प्रकट करने का साधन बनी।
बाबा की रचना का संसार भाषा और विधा की सीमाओं में कभी नहीं बंधा, उन्होंने जहां ‘रतिनाथ की चाची’ ‘बलचनमा’, ‘बाबा बटेसर नाथ’ जैसे करीब छह हिंदी उपन्यासों की रचना की, वहीं ‘अभिनंदन’ जैसे व्यंग्य, ‘अन्न हीनम क्रियानाम’ जैसे निबंध संग्रह और ‘कथा मंजरी’, ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ जैसे बाल साहित्य से भी हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।
भाषा की बात की जाए तो हिंदी के साथ – साथ मैथिली और बांग्ला में भी सृजन किया। उन्हें उनकी मैथिली भाषा में लिखी गई कविता संग्रह ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ के लिए 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। एक बात और, भले ही उन्होंने अनेक विधाओं और भाषाओं में सृजन किया लेकिन जनविरोधी परंपराओं पर कड़ा आघात करती हुई उनकी कविताएँ साहित्य प्रेमियों के दिलों दिमाग को झकझोरतीं हुई पाठकों के होठों पर बरबस ही स्मित की एक रेखा खींच देने में सफल हो जाती है।
‘रोता हूँ लिखता जाता हूँ,
कवि को बेकाबू पाता हूँ’ या फिर,
‘प्रतिहिंसा ही स्थायीभाव है मेरे कवि का,
जन-जन में जो ऊर्जा भर दे, मैं उदगाता हूँ कवि का।’
जैसी पंक्तियाँ लिखने वाले नागर्जुन की पैनी नजर तात्कालिन भारत के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, भौगोलिक हर पहलू पर रहती, और हर घटना को कविता का रूप देने में वे कभी विलंब नहीं करते, तभी तो, आजादी के बाद भारत आई महारानी एलिजाबेथ का नेहरू जी द्वारा किये गये भव्य स्वागत पर चुटकी लेते हुए कहा था
‘आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी,
यही हुई है राय जवाहरलाल की’
नेहरू तो नेहरू, उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री को भी नहीं बख्शा था,
‘लाल बहादुर – लाल बहादुर, मत बनना तुम गाल बहादुर’
और जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया तो 1974 में रचित ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ नामक संग्रह में उनकी भर्त्सना करने में कोई संकोच नहीं किया,
‘इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!
……………………
छात्रों के लहू का चस्का लगा आपको
……………………..’
उनकी कविता ‘शासन की बंदूक’ (1966) तात्कालिन राजनैतिक परिस्थितियों का बखिया उधेड़ते हुए कहती है,
‘सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक,
जहां – तहां दगने लगी शासन की बंदूक
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक।’
जयप्रकाश नारायण और उनके द्वारा उद्घोषित संपूर्ण क्रांति के घोर समर्थक बाबा ने जब जनता पार्टी की विफलता देखी तो साफ शब्दों में जयप्रकाश जी को उलाहना दे दी :
‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
अब भी खत्म नहीं होगा क्या
पूर्णक्रांति का भ्रांति विलास।’
और मशहूर बोफोर्स कांड पर राजीव गांधी पर उनका वक्तव्य
‘बोफोर्स की दलाली
गुपचुप हजम करोगे
नित राजघाट जाकर
बापू भजन करोगे’
और हद तो तब हो जाती है जब वे खुद को यानि लेखक वर्ग को कहते हैं,
‘ उनको दुख है नए आम की मंजरियों को पाला मार गया है
तुमको दुख है काव्य संकलन दीमक चाट गए हैं।’
व्यक्तियों ने ही नहीं अप्रिय घटनाओं ने भी उनकी कलम को समान रूप से गति दी,बेलछी कांड पर उनकी आंखों देखी टिप्पणी
‘आड़ी – तिरछी रेखाओं में
हथियारों के ही निशान हैं
खुखरी है, बम है, असि भी है
गंडासा – भाला प्रधान है।’
और अकाल के परिदृश्य का ठेठ गंवई अंदाज में वर्णन,
‘कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास,
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास’
प्रकृति और मानव के साथ – साथ पशुओं के प्रति भी उनकी संवेदना की परिचायक है।
लोग उन्हें मार्क्सवादी का समर्थक मानतें हैं लेकिन उन्होंने इसका खंडन करते हुए कहा,
‘क्या है दक्षिण क्या है बाम,
जनता को रोटी से काम’
और अगर रोटी न मिले तो युवाओं को नक्सली तक बनने की सलाह दे डाली,
‘काम नहीं है, दाम नहीं है
तरुणों को उठाने दो बंदूक
फिर करवा लेना आत्मसमर्पण’
क्रांतिकारी कवि होने के साथ उनका सौंदर्य बोध भी अनोखा था,
‘देर तक टकराए
उस दिन इन आँखों से वे पैर
भूल नहीं पाऊँगा फटी बिवाइयाँ’
जिस तरह काव्य रचना के संसार में दिनकर और नागार्जुन स्वतंत्रता के ठीक पहले और उसके बाद के भारत में अपने क्रांतिकारी और समाजवादी तेवर से यहां व्याप्त राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक विषमताओं पर अपनी रचनाओं से प्रहार कर रहें थें, उसी तरह, स्वभाव और कर्म से क्रांतिकारी और उच्च कोटि के स्वतंत्रता सेनानी श्री फणीश्वर नाथ रेणु (4 मार्च 1921- 11अप्रिल 1977 जन्मस्थान – पूर्णिया) ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से ग्रामीण अंचल और विशेषकर अपनी जन्म भूमि पूर्णिया तथा कोसी अंचल के आर्थिक अभाव और तमाम तरह की विवशताओं पर दुनिया का ध्यान आकृष्ट कर रहे थे।
‘ठुमरी’,’अग्निखोर’ आदि कहानी संग्रह, ‘मैला आंचल’, ‘परती परिकथा’ आदि उपन्यास, ‘ऋणजल – धनजल’, ‘वनतुलसी की गंध’ आदि संस्मरण तथा ‘दिनमान पत्रिका’ में रिपोतार्ज के कारण गद्य साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाले रेणु को उनके बहुचर्चित और लब्ध प्रतिष्ठित उपन्यास ‘मैला आंचल ‘(1954), के लिए पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। हिन्दी के इस प्रथम आंचलिक उपन्यासकार को आजाद भारत का प्रेमचंद भी कहा जाता है।
ग्रामीण पृष्ठभूमि पर लिखे इस उपन्यास के विषय में रेणु सारगर्भित टिप्पणी देते हुए कहते हैं, ‘यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास। इस उपन्यास के केंद्र में है बिहार का पूर्णिया जिला, जो काफी पिछड़ा है।’
इनकी इस और अन्य रचनाओं में भी अंचल विशेष की भाषा या कह सकते हैं कि वहां कि बोली का प्रयोग बहुत उदारता से किया गया है। वर्णनात्मक शैली में लिखी रचनाओं में दृश्यों को चित्रित करने के लिए गीत, संगीत, वाद्य इत्यादि का प्रयोग कर आंचलिक परिवेश के सौंदर्य, सजीवता और मानवीय संवेदनाओं को संप्रेषित की गई है, इनके लिए श्री नामवर सिंह ने कहा था “कलम से नहीं कैमरे से लिखा है।”
कोसी बांध निर्माण की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास ‘परती परिकथा’ में तात्कालिन समाज के जाति और वर्ग के मुद्दों को उठाया गया है।
इनकी कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’ फिल्म की आज की तारीख में भी चर्चा की जाती है।
1972 ईस्वी उन्होंने अपनी अंतिम कहानी ‘भित्ति चित्र की मयूरी’ लिखी।
स्वभाव से सच्चे समाजवादी और क्रांतिकारी इस कालजयी लेखक ने आपातकाल का विरोध करते हुए अपना ‘पद्मश्री’ का सम्मान लौटा कर पटना में ‘लोकतंत्र रक्षी साहित्यिक मंच’ की स्थापना की, यह उनके जीवन की अंतिम साहित्यिक गतिविधि थी।
‘हर क्रांति कलम से शुरू हुई सम्पूर्ण हुई
चट्टान जुल्म की कलम चली तो चूर्ण हुई
हम कलम चला कर त्रास बदलने वाले हैं
हम तो कवि हैं इतिहास बदलने वाले हैं’
जैसी पंक्तियाँ लिखने वाले कवि और गीतकार गोपाल सिंह नेपाली (11 अगस्त 1911- 17 अप्रैल 1963 जन्मस्थान – बेतिया)
को कभी ‘राग और आग का कवि’, कभी ‘गीतों का राजकुमार’, कभी ‘प्रकृति का कवि’, कभी ‘राष्ट्रकवि’, कभी ‘जनता के कवि’, कभी ‘वनमैन आर्मी’ और कविवर निराला के शब्दों में ‘काव्याकाश का दैदीप्यमान’ सितारा जैसे उपाधियों से विभूषित किया जाना एक बिहारी को अत्यंत ही गौरवान्वित करता है।
यद्यपि कविवर नेपाली बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि थे, जिन्होंने, प्रकृति प्रेम
‘नव वसंत वन में आता है’,
राष्ट्र प्रेम
‘जंजीर टूटती न कभी अश्रुधार से’,
आशावादी सोच,
‘तुम कल्पना करो नवीन कल्पना करो’,
आजाद भारत के कण-कण में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोश,
‘चर्खा चलता है हाथों से शासन चलता है तलवार से’,
मानवीय संवेदनाएं,
‘बाबुल तुम बगिया के तेवर’ या,
‘दूर जाकर न कोई बिसारा करे’
और भक्ति रस में डूबी,
‘दर्शन दो घनश्याम’
जैसी जीवन के हर पहलू को छूते हुए बहुत सी कविताओं की रचना की।इतना ही नहीं, वे मंचों पर जब गाते :
‘तुझ सा लहरों में बह लेता/तो मैं भी सत्ता गह लेता /ईमान बेचता चलता तो/मैं भी महलों में रह लेता’, तो
श्रोता झूम उठते, उनकी इसी लोकप्रियता ने बाद में उनके लिए बॉलीवुड का राह प्रशस्त किया था, तथापि कुछ समीक्षकों की अनुसार उनके कवि कद के साथ न्याय करने में कदाचित् उस समय के बड़े प्रकाशकों ने अपनी भूमिका नहीं निभाई।
‘हिमालय ने पुकारा’ इनका प्रसिद्ध काव्य और गीत संग्रह है। 1962 की चीनी आक्रमण के समय इन्होंने कई देशभक्ति के गीत और कविताएँ लिखीं, जिनमें ‘सावन’, ‘कल्पना’, ‘नीलिमा’, नव कल्पना करो’ आदि हैं। इस दौर में लिखी गई इनकी बहुत सी कविताएं उस समय की लोकप्रिय और लब्ध प्रतिष्ठित साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुईं थीं।
सच तो यह है कि इसी दौर जब इन्होंने संपूर्ण राष्ट्र को चीन के विरुद्ध ललकारते हुए कहा था। ‘
जागो कि बचाना है तुम्हें मानसरोवर
रख ले न कोई छीन के कैलाश मनोहर
ले ले न हमारी यह अमरनाथ धरोहर
उजड़े न हिमालय तो अचल भाग्य तुम्हारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा’
तो चीन आग बबूला हो उठा।
सचमुच नेपाली अपनी कविताओं और गीतों के द्वारा भारतीय मानसपटल में अमर रहेंगे।
महाकवि निराला की प्रेरणा से संस्कृत से हिंदी लेखन की ओर उन्मुख हुए, छायावाद के अंतिम स्तंभ कहलाए जाने वाले कवि श्री जानकी वल्लभ शास्त्री हिंदी काव्य प्रेमियों के दिल में एक बहुत ही सम्मानजनक स्थान रखतें हैं।
यद्यपि इनकी लेखनी साहित्य की सभी विधाओं यथा गीत, गजल, कविताएँ, उपन्यास, कहानीयां, ललित निबंध, संस्मरण, आलोचना, व्यंग्य आदि सभी में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराती रही तथापि उनके द्वारा रचित गीत और गजल हिंदी साहित्य में अपना अलग स्थान रखतें हैं।
1945 से 1950 ईस्वी की अवधि में इनके चार गीति काव्य ‘शिप्रा’, ‘अवंतिका’, ‘मेघगीत’ और ‘संगम’ तथा 1971 में महाकाव्य ‘राधा’ और ‘निराला के पत्र’ नाम से एक संकलन प्रकाशित हुआ।
‘शिप्रा’, का प्रथम गीत ‘किसने बांसुरी बजाई?’, ‘
अवंतिका’ का दार्शनिक गीत,
‘बादलों से उलझ,बादलों से सुलझ,
ताड़ की आड़ से चांद क्या झंकता?’
और तात्कालिन परिस्थितियों पर प्रहार करती ‘मेघगीत’ की पंक्तियाँ,
‘ऊपर ऊपर पी जातें हैं जो पीने वाले हैं,
ऐसे भी जीतें हैं जो जीने वाले हैं।’
उनकी सर्वश्रेष्ठ कृतियों की कुछ बहुत ही लोकप्रिय पंक्तियाँ हैं।
गीत को गीत रखते हुए भी व्यंग्य की अभिव्यक्ति का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है,
‘कुपथ पथ जो दौड़ता,
पथ निर्देशक वह है…’,
और मानवीय संवेदनाओं को उजागर करती उनकी पंक्तियाँ,
‘सब ऊपर ही ऊपर हँसते हैं,
भीतर दुर्भर दुःख सहते हैं’
साहित्य के धरोहर आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री प्रकाशित से ज्यादा अप्रकाशित रचनाएँ प्रकाशन का बाट जोह रहीं हैं।
अपनी कृतियों के लिए ‘राजेंद्र शिखर’, ‘ भारत भारती’ और शिवपूजन सहाय’सम्मान प्राप्त करने वाले साहित्य के इस धरोहर ने 2010 में भारत सरकार द्वारा प्रदत्त ‘पद्मश्री’ लेने से मना कर दिया।
राजा राधिका रमण प्रसाद (10 सितंबर – 1890 – 24 मार्च 1971 जन्मस्थान रोहतास), मूलरूप से कथाकार थे। तात्कालिन सामाजिक जीवन को सुंदर शिल्प और सहज भाषा में प्रतिबिंबित करती उनकी कहानियाँ पाठकों के दिल को छूने में सफल रहीं हैं ।
आजादी के बाद की उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं :
नाटक : ‘अपना पराया’, ‘धर्म की धुरी’,
कहानी संग्रह : ‘मॉर्डन कौन, सुंदर कौन’, ‘अपनी – अपनी नजर’ , ‘अपनी – अपनी डगर’
उपन्यास : ‘पूरब और पश्चिम’, ‘चुंबन और चांटा’
कहानियां : ‘नारी क्या एक पहेली?’, ‘हवेली और झोपड़ी’, ‘देव और दानव’, ‘बिखरे मोती’ इत्यादि। इसके अलावा उनके कुछ संस्मरण भी लिखे। वे देश के अनेक साहित्यिक – सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्थाओं से जुड़े रहे। उनके संरक्षण में बिहार से हिंदी मासिक पत्रिका ‘नई – धारा’ का प्रकाशन होता रहा। सन् 1962 में उन्हें भारत सरकार द्वारा ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया।
‘शब्दों का जादूगर’ कहे जाने वाले प्रसिद्ध पत्रकार और साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी(23 दिसंबर, 1899 – 9 सितंबर 1968 जन्मस्थान मुजफ्फरपुर)के विषय में दिनकर जी का कथन कि ‘स्वर्गीय पंडित रामवृक्ष बेनीपुरी केवल साहित्यकार नहीं थे…. ।बेनीपुरीजी के भीतर बेचैन कवि, बेचैन चिंतक, बेचैन क्रांतिकारी और निर्भीक योद्धा सभी एक साथ निवास करते थे।’
बेनीपुरीजी के व्यक्तित्व में समाहित क्रांतिकारी और साहित्यकार का समुचित व्याख्या करता है।
एक निर्भीक और ओजस्वी पत्रकार के रूप में अपने लेखन के कारण, गुलाम भारत में उन्हें बार – बार जेल जाना पड़ा।
इन्होंने नाटक, कहानी, उपन्यास, रेखाचित्र, यात्रा-विवरण, संस्मरण एवं गद्य – विधाओं में अपनी लेखनी चलाई।
1946 में जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ने के क्रम में इन्हें जेल से रिहा किया तो इनके हाथों में, इनकी प्रसिद्ध रचनाओं ‘माटी की मूरतें’ कहानी संग्रह और ‘आम्रपाली’ उपन्यास की पांडुलिपियाँ थी। ‘गेहूं और गुलाब’ इनकी प्रसिद्ध रचना है। ‘माटी की मूरतें’ रेखाचित्रों का संग्रह है, जिनमें बिहार के जनजीवन को दर्शाया गया है। बिहार में हिन्दी – प्रसार के कार्य और ‘बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ की स्थापना में इन्होंने बढ़ – चढ़कर हिस्सा लिया।
वर्ष 1999 में ‘भारतीय डाक सेवा’ द्वारा रामवृक्ष बेनीपुरी के सम्मान में भारत का भाषायी सौहार्द मनाने हेतु भारतीय संघ के हिन्दी को राष्ट्रभाषा अपनाने की अर्धशती वर्ष में डाक-टिकटों का एक संग्रह जारी किया गया। उनके सम्मान में बिहार सरकार द्वारा ‘वार्षिक अखिल भारतीय रामवृक्ष बेनीपुरी पुरस्कार’ दिया जाता है।
आचार्य शिवपूजन सहाय (9 अगस्त 1893- 21 जनवरी 1963 जन्मस्थान बक्सर जिले का उन्वास गांव) जिनको सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने हिन्दी भूषण की उपाधि से विभूषित किया था, मूलतः एक साहित्यिक पत्रकार थे।
हिन्दी भाषा से अगाध प्रेम को दर्शाती हुई उनकी ये पंक्तियाँ चिंतन मनन योग्य हैं , “हम सब हिंदी भक्तों को मिलकर ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि साहित्य के अविकसित अंगों की भली – भांति पुष्टि हो और अहिंदी भाषियों की मनोवृत्ति हिंदी के अनुकूल हो जाए।” किंचित उनकी इसी मानसिकता और प्रयासों से प्रभावित हो कर, उनकी मृत्यु पर राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा कि “सहाय की सोने प्रतिमा लगाई जाए और उस पर हीरे मोती जड़े जाए तो साहित्य में उनके योगदान की भरपाई नहीं की जा सकती”, राष्ट्र कवि की यह उक्ति इस यशस्वी लेखक और पत्रकार के हिन्दी साहित्य के उच्च शिखर पर होने का पक्का सबूत प्रस्तुत करता है।
स्वतंत्रता के बाद शिवपूजन सहाय ने 1950-1959 तक पटना में बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् के निदेशक का पद सुशोभित किया साथ ही बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से प्रकाशित ‘साहित्य’ नामक समीक्षात्मक त्रैमासिक पत्र के संपादक का कार्य भार भी संभाला। उपन्यास, कहानियां और संस्मरण लेखन, ‘वे दिन वे लोग’ ‘बिम्ब :प्रतिबिंब’, चार खंडों में बिहार के ‘साहित्यिक इतिहास’ का सृजन के अलावा इन्होंने बहुत सारे पत्र पत्रिकाओं जैसे ‘राजेंद्र अभिनंदन ग्रंथ’ ‘बिहार की महिलाएं’ के संपादन का कार्य भी सफलता पूर्वक किया ।भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद की आत्मकथा का संपादन के कार्य का श्रेय इन्हीं को जाता है।
लेखकों के विषय में एक पत्रकार की हैसियत से उनका रुख बहुत ही कठोर था उन्होंने अपने विचार ‘धर्मयुग’ में रखते हुए कहा था “सर्वश्रेष्ठ पत्र भी वही हो सकता है, जो साहित्य क्षेत्र से निरंकुशता को निर्मूल कर डालने का दावा रखता हो।”
साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में इनके महत्वपूर्ण भूमिका के लिए 1960 में ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया। 1998 में भारत सरकार ने इन पर डाक टिकट जारी किया। बिहार सरकार इनके नाम पर एक लाख रुपये का पुरस्कार देती है और राजकीय स्तर पर जयंती भी मनाती है।
हिंदी के इस दधीचि ने साहित्यिक पत्रकारिता को एक नया आयाम प्रदान किया।
कलक्टर सिंह केसरी (1909 – 18 सितंबर 1989 जन्मस्थान एकवना घाट, भोजपुर, बिहार) अपने बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा के लिए जाने जाते हैं।
अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक और हिंदी भाषा के बहुत ही प्रभावशाली कवि होने के साथ इनकी ख्याति विश्वविद्यालय सेवा आयोग एवं साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में भी है। इन्होंने दो बार ‘विराट् हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ की अध्यक्षता की। राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक मंडल के सदस्य रहे केसरी जी को बिहार सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा भी पुरस्कृत किया गया।
‘मराली’, ‘कदम्ब’, ‘आम – महुआ’ इनके काव्य साहित्य, और ‘सफल जीवन की झांकियां’ इनके गद्य साहित्य हैं।
इनकी कविता ‘रामराज्य’ में युद्ध के औचित्य पर राम के मन में उठते भाव :
‘इति जो हो सो हो परन्तु अथ इन हायों में लिखा हुआ,
रक्तपात का सूत्रपात, बस रामराज्य में लिखा हुआ।
हर युग में प्रासंगिक रहेगा।
मां सरस्वती के वरद पुत्र और हिंदी के महाकवि आरसी प्रसाद सिंह (19 अगस्त 1911- 15 नवंबर 1996, जन्मस्थान, जिला समस्तीपुर, ग्राम एरौत) को रूप, यौवन और प्रेम का कवि कहा जाता है। इनकी लेखनी कविता, कहानी, एकांकी, संस्मरण के साथ बाल साहित्य पर भी निर्बाध गति से चली।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इनकी प्रशंसा करते हुए कहा था, “सचमुच ही यह कवि मस्त है….”, उन्होंने आरसी जी की कविता ‘जुही की कली’ की पंक्तियाँ
‘एक कलिका वन छबीली विश्व वन में फूल,
सरस झोंके खा पवन के तू रही है झूल’
उद्धृत करते हुए आगे कहा है “…. भाषा पर सवारी करता है… उपस्थापन में अबाध प्रवाह है। भाषा में सहज सरकाव।”
रामवृक्ष बेनीपुरी जी द्वारा संपादित ‘युवक’ समाचार पत्र से जुड़े, और ‘रजनीगंधा’ और ‘नन्द-दास'(प्रबंध काव्य), ‘जीवन और यौवन'(कविता संग्रह), ‘ ‘कलंक मोचन’,(एकांकी) और ‘पंचमेल'( बाल साहित्य) जैसे विविध विधाओं की रचनाओं के लिए प्रसिद्ध इस रचनाकार को इनके मैथिली काव्य संग्रह ‘सूर्यमुखी’ के लिये 1948 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘यह जीवन क्या है? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है।
सुख-दुःख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है।’
और
‘शक्ति ऐसी है नहीं संसार में कोई कहीं पर, जो हमारे राष्ट्रीयता को अस्त कर दे।
ध्वान्त कोई है नहीं आकाश में ऐसा विरोधी, जो हमारे एकता के सूर्य को ध्वस्त कर दे’
जैसी पंक्तियों के द्वारा कविवर आरसी हिंदी साहित्य और राष्ट्र प्रेमियों के दिलों और जुबान पर युगों – युगों तक राज करते रहेंगे।
केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ (11 सितंबर 1907 – 2 अप्रैल 1984 जन्मस्थान आरा), के दो गीत संग्रह ‘ऋतम्भरा’ और ‘बैठो मेरे पास’ को बिहार और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत किया गया था।’कैकेयी’, ‘तप्तगृह’ तथा ‘कर्ण’ जैसे प्रबंध काव्य के अलावा इन्होंने बाल साहित्य में भी अपना अच्छा खासा योगदान दिया है।
आचार्य नलिन विलोचन शर्मा को (18 फरवरी 1916- 12 सितंबर 1961, जन्मस्थान पटना) आधुनिक हिंदी कविता में नकेनवाद के जनक की संज्ञा दी जाती है। मात्र पैंतालीस वर्ष की उम्र पाने वाले नलिन विलोचन शर्मा ने कविता,कहानी,आलोचना, निबंध सभी विधाओं में अपना साहित्यिक योगदान दिया।
‘दृष्टिकोण'(आलोचना), ‘मानदंड’ (निबंध संग्रह), ‘विष के दांत’ (कहानी संग्रह) के रचयिता के अलावा इनकी पहचान एक अध्यापक, बिहार साहित्य सम्मेलन के प्रधान मंत्री, बिहार राष्ट्र भाषा परिषद् के शोध – निर्देशक तथा ‘साहित्य’, ‘दृष्टिकोण’ और ‘कविता’ के संपादक के रूप में भी है।
लेकिन नलिन जी सबसे ज्यादा जिस बात के लिए जाने जाते हैं वह है नकेनवाद। नकेनवाद पटना के तीन उत्कृष्ट साहित्यकारों के नाम के पहले अक्षरों नलिन जी के साथ केसरी कुमार और नरेश जी के नाम को मिलाकर बना है।
नलिन जी यदि नकेनवाद के जनक माने गए तो केसरी जी उसके प्रवक्ता। नकेनवाद प्रपद्यवाद का ही दूसरा नाम है। प्रपद्य का अर्थ है प्रयोगवादी पद्य। प्रपद्यवादी कविताओं के दो संकलन ‘नकेन के प्रपद्य’ और ‘नकेन – 2’ क्रमशः 1956 एवं 1981 ई. में प्रकाशित हुई।
नलिन विलोचन शर्मा के प्रपद्यवादी कविता का एक मजेदार उदाहरण प्रस्तुत है,
‘दिल तो अब बेकार हुआ जो कुछ है सो ब्रेन,
गाय हुई बकेन है, कविता हुई नकेन।’
बीसवीं सदी में बिहार के मूर्धन्य साहित्यकारों में मोहनलाल महतो वियोगी और रामगोपाल शर्मा रूद्र का नाम भी उल्लेखनीय है।
महाकाव्य ‘आर्यावर्त’ के रचयिता महाकवि वियोगी ने उपन्यास, नाटक, संस्मरण और बाल साहित्य, साहित्य के हर विधा पर अपनी लेखनी आजमायी, और एक मौलिक लेखक के रूप में प्रसिद्ध हुए।
‘गीतों में फूट रहा हूँ मैं,
गीतों में ही आगे भी खिलू खुलूं।’
जैसी पंक्तियों के रचयिता रामगोपाल शर्मा रूद्र एक ओजस्वी और लोकप्रिय कवि थे।
हर अक्षर है टुकड़ा दिल का’,
और ‘रुद्र समग्र’ उनके द्वारा रचित काव्य संग्रह हैं।
वरिष्ठ साहित्यकार रॉबिन शॉ पुष्प (20 दिसंबर 1936 – 30 अक्टूबर 2014, जन्मस्थान मुंगेर) एक स्वतंत्र लेखक थे ।कवि, कथाकार, उपन्यासकार, नाटककार और पटकथा लेखक श्री पुष्प की पहली कहानी ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुईं थी।’अन्याय को क्षमा’, ‘दुल्हन बाजार’ (उपन्यास) ‘अग्निकुंड’, ‘घर कहां भाग गया’ (कहानी संग्रह) और ‘सोने की कलम वाला हिरामन'(संस्मरण) इनकी प्रमुख कृतियां हैं। रेडियो पर प्रसारित इनके द्वारा रचित नाटक ‘दर्द का सुख’ आज भी लोकप्रिय है।
शिवपूजन सहाय, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का विशेष साहित्य सेवा सम्मान, फणीश्वर नाथ रेणु पुरस्कार, महिषी हिन्दी साहित्य रत्न जैसे अनेक पुरस्कार और सम्मान पाने वाले रॉबिन शॉ पुष्प बिहार के गांव कस्बों, आम आदमी के दुःख – सुख, प्रेम संघर्ष की कहानी अपनी लेखनी की जुबानी हिंदी साहित्य के पाठकों के साथ साझा करते रहे।
इनकी पत्नी गीता पुष्प शॉ भी एक जानी मानी लेखिका रहीं हैं।
बीसवीं सदी को लांघते हुए इक्कीसवीं सदी की ओर अग्रसर बिहार के साहित्यिक परिवेश में पुरुषों के एकाधिकार को खत्म करती हुई एक महिला लेखिका .. उषा किरण खान, एक सेवानिवृत्त अकादमिक इतिहासकार जिन्होंने अपना स्त्री धर्म निभाने के साथ हिंदी साहित्य जगत में अपना अति विशिष्ट और प्रतिष्ठित स्थान बनाया है।
7 जुलाई 1945 को लहेरियासराय, दरभंगा में जन्मी उषा किरण खान उपन्यास, कहानी और नाटक तीनों विधाओं में लिखतीं हैं। ‘पानी पर लकीर’ (उपन्यास), ‘घर से घर तक’ (कहानी संग्रह) और ‘हीरा डोम’ ((नाटक), इनकी प्रमुख कृतियां हैं।
इन्हें अब तक, हिंदी सेवी सम्मान, महादेवी वर्मा सम्मान, दिनकर राष्ट्रीय पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, कुसुमांजलि पुरस्कार, विद्या निवास मिश्र पुरस्कार तथा साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सेवा के लिए 2015 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
अपने उपन्यासों में स्त्रियों से संबंधित मुद्दे को बहुत सहज ढंग से उठाने वालीं उषा किरण खान अपनी लेखनी से हमें आगे भी लाभान्वित करती हुई अन्य स्त्री लेखिकाओं का भी मार्ग प्रशस्त करतीं रहें यह हमारी शुभकामना है।
डॉ. रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव जिन्हें साहित्य की दुनिया में रवीन्द्र राजहंस के नाम से भी जाना जाता है, अंग्रेजी साहित्य के बहुत बड़े विद्वान हैं और चालीस वर्षों से ज्यादा समय तक बिहार के विश्वविद्यालयों में अध्यापन का कार्य करते रहें हैं, ने हिन्दी साहित्य जगत में एक कवि, स्तंभकार और व्यंग्यकार के रूप में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है
‘अप्रियं ब्रूयात’ और ‘नाखून बढ़े अक्षर’ इनकी व्यंग्य कविताओं का संकलन है, जबकि ‘समर शेष है’, में इन्होंने जयप्रकाश आंदोलन में नुक्कड़ काव्य पाठ से जुड़े सात कवियों की रचनाओं का संपादन किया है। ‘गंदी बस्तियों का सूरज’, बेघर, अनाथ और असहाय बच्चों को केंद्र में रखकर लिखी गई कविताओं का संग्रह है।
इन्हें ‘नाखून बढ़े अक्षर’ के लिए वर्ष 85-86 में दिनकर पुरस्कार और साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में अप्रतिम योगदान के लिए 2009 ई. में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
जयप्रकाश आंदोलन को जन आंदोलन बनाने में रवीन्द्र राजहंस, के अलावा कवि सत्यनारायण, गोपी वल्लभ सहाय, परेश सिन्हा का नाम उल्लेखनीय है।परेश सिन्हा जब अपनी कविता ‘खेल भाई खेल-सत्ता का खेल’ पढ़ते, तो आम श्रोता के साथ नागार्जुन भी साथ – साथ गाने लगते।
ऋषिकेश सुलभ हिंदी के समकालीन कहानीकार और नाटककार हैं। हाल ही में उनके कहानी संग्रह ‘वसंत के हत्यारे’ के लिए इंदु शर्मा अंतरराष्ट्रीय कथा सम्मान, कथा यूके द्वारा दिया गया। सारिका, धर्मयुग, हंस जैसी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लिखने के साथ – साथ, पिछले कुछ वर्षों से लगातार कथादेश के लिए लेख लिख रहे हैं
अवधेश प्रीत का जन्म तो उत्तर प्रदेश में हुआ परंतु उनकी कर्मभूमि बिहार ही रही।
लगभग 30 वर्षों तक वह बिहार में रह कर हिंदुस्तान जैसे प्रतिष्ठित अखबार के लिए काम करते रहे।
‘हस्तक्षेप’, ‘चांद के पार एक चाभी’ उनके कथा संग्रह हैं। ‘अशोक राजपथ’ उपन्यास इनकी नवीनतम कृति है,जो पटना की एक अति महत्वपूर्ण और प्राचीन सड़क अशोक राजपथ पर स्थित शैक्षणिक संस्थान और वहां व्याप्त अनुशासनहीनता पर केंद्रित है।
ऐतिहासिक और पौराणिक विषयों का गहन अध्ययन और उन्हीं विषयों पर आधुनिक परिपेक्ष्य में उपन्यास की रचना में सिद्धहस्त लेखक का नाम है भगवती शरण मिश्र, ‘प्रथम पुरूष’, ‘पुरुषोत्तम’ इत्यादि उनकी प्रमुख कृतियां हैं।
कवि और गजलकार मृत्युंजय मिश्र करुणेश हिंदी साहित्य में छंद को जीवंत रखा है। ‘नदी की देह पर’ और ‘कहता हूँ गजल’ उनके गीतों और गजलों के संग्रह हैं।
‘शमशेर सम्मान’ प्राप्त मदन कश्यप एक कवि और एक सामाजिक – सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। ‘उदास है पृथ्वी’ और ‘नीम रोशनी में’ उनके काव्य संग्रह है। ‘मतभेद’ में उनके राजनैतिक विचारों और टिप्पणियों का संग्रह है।
साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं अन्य कई पुरस्कारों से सम्मानित अरुण कमल की कविताएँ जीवन के विविध क्षेत्रों का चित्रण करती हैं। विभिन्न जीवन प्रसंगों को कविता के रूप में प्रस्तुत करने वाले कवि अपनी कविताओं में शोषण करने वाली व्यवस्था के खिलाफ खुलकर आवाज उठातें हैं। ‘अपनी केवल धार’, ‘नए इलाके में’ इनके काव्य संग्रह हैं।
ध्रुव गुप्त, भारतीय पुलिस सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी एक जाने माने कवि, गजलगो, संपादक, कथाकार होने के साथ फेसबुक पर भी बहुत ही सक्रिय रहते हैं। उनके द्वारा फेसबुक पर लिखे गए आलेख प्रतिष्ठित हिंदुस्तान सहित अन्य बहुत सारे अखबारों तथा वेब पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। ‘कहीं बिल्कुल पास तुम्हारे’, ‘मौसम जो कभी नहीं आता’ (कविता संग्रह), ‘मुठभेड़’ (कहानी संग्रह) और ‘मुझमे कुछ है जो आईना सा है’ (गज़ल संग्रह) इनकी कृतियों के उदाहरण है। बिहार उर्दू अकादमी सम्मान एवं निराला सम्मान प्राप्त, श्री गुप्त की फेसबुक पर उपस्थिति फेसबुक को एक गरिमा प्रदान करने के साथ नवोदित रचनाकारों का उत्साहवर्धन भी करती है।
प्रसिद्ध हिंदी जनकवि आलोक धन्वा ने 70 के दशक में कविता को एक नई पहचान दिलवाई। सहज, सुलभ और संवेदनशील कवि आलोक धन्वा नुक्कड़ नाटकों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। ‘गोली दागों पोस्टर’, ‘जनता का आदमी’ इनकी प्रसिद्ध कविताएँ हैं। इन्हें पहल सम्मान, नागार्जुन सम्मान आदि सम्मानों से सम्मानित किया गया है।
समकालीन साहित्यकारों में गीताश्री एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। एक साहित्यकार के साथ एक पत्रकार गीताश्री, कविता, कहानी और लेख तीनों विधाओं में लिखतीं हैं। इन्हें रामनाथ गोयनका पुरस्कार, भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार के अलावा कई अन्य सम्मानों से भी सम्मानित किया गया है।
‘ रक्तिम सन्धियां’ ‘ओसिल सुबहें ‘, ‘प्रत्यंचा’ और ‘बहस पार की लंबी धूप’ (कविता संग्रह), और’ कोई भी दिन’ और क़िस्सा-ए-कोहिनूर(कहानी संग्रह) की रचयिता पंखुरी सिन्हा युवा साहित्यकारों का प्रतिनिधित्व करतीं हैं। पंखुरी जी गिरजा कुमार माथुर पुरस्कार, शैलेश – मटियानी कथा सम्मान आदि से सम्मानित की जा चुकी हैं।
शांति जैन को अपनी पहली पुस्तक ‘चैती’ के लिए राजभाषा पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इन्हें बिहार गौरव गीत लेखन के लिए भी सम्मानित किया गया।
बिहार के साहित्यकार पारंपरिक विधाओं में तो जमकर लिखे ही साथ ही साथ समय और परिस्थितियों के साथ कदम ताल मिलाते हुए इन्होंने नये प्रयोग और नयी विधाओं में भी अपना कमाल दिखाया।
ऊपर में मैंने प्रपद्यवाद अथवा नकेनवाद का उल्लेख किया है जिसके अंतर्गत प्रयोगवादी पद्यों की रचना की गई, उसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए साहित्य की आधुनिकतम विधा ‘लघुकथा’ और ‘हाइकु’ को भी बिहार के साहित्य ने हाथों – हाथ लिया।
बिहार के लघुकथाकारों की बात की जाए तो सबसे पहला नाम जो दिमाग में आता है वह है सतीश राज पुष्करणा का। सतीश राज जी यूं तो साहित्य की सभी विधाओं में, यथा कहानी, उपन्यास, कविता, गजल, हाइकु पर अपनी लेखनी चलाई और प्रकाशित भी हुए, परंतु सबसे ज्यादा चर्चित लघुकथा क्षेत्र में अपने योगदान को लेकर हैं।लघुकथा आंदोलन के प्रमुख स्तंभों में से एक श्री पुष्करणा अनेक सम्मानों /पुरस्कारों जैसे लघुकथा गौरव, लघुकथा सम्मान, डॉ परमेश्वर गोयल लघुकथा शिखर सम्मान से विभूषित किये जा चुके हैं। साहित्य में इनके योगदान पर शोध भी होते रहते हैं।
हाइकु लेखन में भी बिहार की विभा रानी श्रीवास्तव का नाम उल्लेखनीय है।
पटना के डीएवी स्कूल की शासकीय अध्यक्षा ममता मेहरोत्रा एक वरिष्ठ लेखिका हैं, जिन्होंने विद्यालय स्तर के पाठ्य पुस्तकों के अलावा ‘धुआँ – धुआँ है जिंदगी’ (लघुकथा – संग्रह), ‘महिला अधिकार और मानव अधिकार’ जैसी पुस्तकों की रचना की।
बहुत लंबी और अंतहीन सूची है, क्योंकि बिहार में हिन्दी साहित्य प्रेमियों की कमी कभी नहीं रही है। आज के बिहार में लघुकथा तथा कविता लेखन में महिला और पुरुष दोनों बहुत ही सक्रिय हैं। तकनीक के विकास ने आम आदमी की साहित्यिक चेतना की राह को बहुत ही सुगम्य बना दिया है। घरेलू महिलाएं भी फुर्सत के क्षणों में सृजन कर रही हैं और एक क्लिक कर प्रकाशन के लिए भेज रहीं हैं। अधिकतर समाचार पत्रों के स्थानीय संस्करणों में सृजनशील पाठकों के लिए भी सप्ताह में एक पृष्ठ अवश्य सुरक्षित रहता है जो कि हर होने वाले साहित्यकार के लिए सफलता का पहला पायदान उपलब्ध कराता है।
जिस तरह बिहार के यशस्वी साहित्यकार अपनी कालजयी कृतियों के माध्यम से अपने साथ – साथ बिहार को भी भूतल के मानचित्र पर एक अलग स्थान और प्रतिष्ठा दिलाने में सफल रहें हैं उसी तरह बिहार की धरती से संचालित साहित्यिक संस्थाएं और साहित्यिक गतिविधियां देश विदेश में जानी जातीं हैं और जानी जाएगी।
जय प्रकाश आंदोलन को जन आंदोलन बनाने में दिनकर, नागार्जुन, रेणु, परेश सिन्हा, रविन्द्र राजहंस, गोपी वल्लभ सहाय, सत्यनारायण आदि की भूमिका की चर्चा हम कर चुके हैं, साथ ही इस बात की भी कि किस तरह 40 – 50 के दशक के कवि और साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से क्रांति के बिगुल फूंक रहे थे, इस बात को सिद्ध करता है कि यहां के साहित्यकार केवल स्वांतः सुखाय के लिए नहीं लिखते रहें हैं, बल्कि उनकी लेखनी समाज में व्याप्त विषमताओं को दूर करने के लिए भी कटिबद्ध रही है।
बिहार के हिंदी साहित्यकारों की तरह ही बिहार सरकार भी हिंदी के प्रचार – प्रसार और हिंदी सेवा को अपना परम कर्तव्य मानती है।
ऐसे ही कुछ पवित्र उद्देश्यों यथा श्रेष्ठ साहित्य के संकलन और प्रकाशन की व्यवस्था, योग्य नये पुराने साहित्यकारों को पुरस्कृत करने की व्यवस्था, हस्तलिखित और दुर्लभ साहित्य को एकत्रित करने की व्यवस्था आदि, को लेकर बिहार राष्ट्र भाषा परिषद की स्थापना 1950-51 ईस्वी में हुई। बिहार राष्ट्र भाषा परिषद की ओर से प्रतिष्ठित पत्रिका ‘परिषद पत्रिका’ का प्रकाशन होता है।हाल ही में परिषद से प्रकाशित पुस्तक, ‘कहि जाइ, का कहिये’ सुप्रसिद्ध अभिनेता अमिताभ बच्चन को पुस्तक के लेखक प्रफुल्ल चंद ओझा ‘मुक्त’ के सुपुत्र के हाथों भेंट की गई।
बिहार ग्रंथ अकादमी से कला, संस्कृति, दर्शन, साहित्य आदि विषयों पर पुस्तकों का प्रकाशन होता है।
‘हिन्दी’ को पूरे देश की संपर्क भाषा या राष्ट्र भाषा बनाने के उद्देश्य से भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की गई और उसी के अनुकरण में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की गई।
किसी समय प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, हरिवंशराय बच्चन, दिनकर, नेपाली, आरसी प्रसाद सिंह, नागार्जुन जैसे साहित्यकारों के सान्निध्य में अपनी यशगाथा और गरिमा को चहुंओर फैलाने वाला हिन्दी साहित्य सम्मेलन बीसवीं सदी आते – आते घोर उपेक्षा और गंदी राजनीति का शिकार बन अपनी आभा और प्रभा खो बैठा था। पर हाल के वर्षों में इस संस्था को पुनर्जीवित करने के प्रयास फिर प्रारंभ हुए हैं। समय-समय पर साहित्य के अनमोल धरोहरों की जयंती मनाना, काव्य पाठ एवं अन्य गतिविधियों का संचालन इसके वर्तमान अध्यक्ष श्री अनिल सुलभ की देख रेख में होता है। इसी वर्ष के मार्च महीने में हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाने की मांग तथा शताब्दी वर्ष के भव्य आयोजन के संकल्प के साथ इसका 39वाँ महाधिवेशन संपन्न हुआ जिसमें बहुत सारे विद्वानों को विभिन्न सम्मानों से सम्मानित किया गया। शोध समीक्षा की पत्रिका ‘साहित्य’ का प्रकाशन भी पुनः प्रारंभ किया गया।

हर वर्ष लगने वाले पटना पुस्तक मेले में नई पुस्तकों का लोकार्पण समारोह और पटना वासियों के द्वारा इसका एक उत्सव, एक मेले की तरह आनंद उठाना निश्चित ही साहित्य के लिए एक शुभ संदेश है।
भाषा वह माध्यम है जिसकी सहायता से मनुष्य अपनी भावनाएं, अपना ज्ञान और अपना अनुभव एक दूसरे से साझा करता है, भाषा का श्रवण, कथन और लेखन ही मनुष्य को इस ब्रह्मांड में सबसे श्रेष्ठ बनाता है। भाषा का ही रोचक, सही और भावपूर्ण संप्रेषण साहित्य को जन्म देता है।अच्छा साहित्य मनुष्य के संस्कार को परिष्कृत करता है, जीवन की राह में समस्याओं का सामना और उनके समाधान करना सिखाता है।
परंतु दुःख की बात है कि हिन्दी साहित्य के इतने समृद्ध इतिहास और उसे अक्षुण्ण रखने के इतने सारे प्रयासों के बावजूद वर्तमान बिहार का युवा और किशोर वर्ग हिन्दी साहित्य में लेश मात्र भी रूचि लेते नहीं दिखाई नहीं देता, यह बात बहुत ही चिंतित करती है। अंग्रेजी और अंग्रेजियत का प्रभाव नई पीढ़ी को हिंदी के बदले अंग्रेजी साहित्य पढ़ने को प्रेरित करती हैं।
अन्य भाषाओं में रूचि रखना गलत नहीं है, परन्तु उसकी तुलना में अपनी भाषा को कमतर आंकना गलत है। अपनी भाषा का संरक्षण, संपोषण और आदर हम ही नहीं करेंगे तो दूसरे भला क्यों करेंगे?
तकनीक के आगमन और रोजगारोन्मुखी शिक्षा भी एक कारण है कि न सिर्फ़ बिहार बल्कि पुरे देश की युवा पीढ़ी साहित्य से विमुख हो रही है। एक जमाना था जबकि हर पीढ़ी अपने मनोरंजन और समय बिताने के लिए पुस्तकों के शरण में जाती थी। परंतु अब घरेलू महिलाएं खाली समय में टी वी देखतीं हैं और बच्चे वीडियो गेम खेलते हैं और किशोर और युवा अपनी सारी ऊर्जा अपना भविष्य बनाने में लगाए रहते हैं।
हर व्यक्ति को चाहिए कि जिस तरह वह अपने घर में ईश्वर की पूजा प्रार्थना के लिए एक कोना मंदिर के लिए सुरक्षित रखता है ठीक उसी तरह एक कोना साहित्यिक पुस्तकों के लिए अवश्य रखे जिसमें बच्चों से लेकर वृद्ध तक हर आयु वर्ग की रूचियों के अनुसार पुस्तकें उपलब्ध हों।बच्चे जब पुस्तकों में अपना मित्र देखने लगेंगे तो स्वाभाविक रूप से ब्लू ह्वेल जैसे गेम से दूर रहेंगे।
हर व्यक्ति द्वारा किया गया एक छोटा सा प्रयास भी बिहार की साहित्यिक सरिता के सतत प्रवाह को बनाए रखने में सहायक होगा।

ऋचा वर्मा
बिहार, भारत

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