ढूँड़ो अगर मिलता भी है
तूफ़ाँ भी है ठहरा हुआ, दर पे दिया रक्खा भी है
रास्ता भी है, मौक़ा भी है, देखें कोई आता भी है
क्या क्या सितम,क्या क्या ग़ज़ब, क्या क्या ख़लिश, क्या क्या तलब
अब तो हम ज़िन्दा भी हैं अब तक तो दिल प्यासा भी है
हर इक क़दम भटके भी हम, हर इक क़दम संभले भी हम
थोड़ा बहुत खोया भी है, थोड़ा बहुत पाया भी है
आए हैं हम जिस देश से क्या कुछ नहीं उस देश में
घुंघरू भी है,गागर भी है, गौरी भी है, गजरा भी है
रुककर कभी सोचा नहीं, अफ़सोस ये समझा नहीं
जो कुछ भी है इस बाग़ में तेरा ही है मेरा भी है
फैली है क्यों दश्तो-दमन, खिलते हैं क्यों बर्गों-समन
सोचो तो सब ज़ाहिर भी है, देखो तो इक पर्दा भी है
मंज़र वही दिलचस्प-तर, होना है क्या अबके मगर
मौजें भी हैं, कश्ती भी है, साहिल भी है दरिया भी है
करके ‘हिलाल ‘ उसकी तलब, ये राज़ हम समझते हैं
अब नज़रों से वो छुपता भी है, ढूँड़ो अगर मिलता भी है
डॉ हिलाल फ़रीद
ऑर्थोपेडिक्स सर्जन और उर्दू शायर
यूके